इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी
अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’फ़ाइलुन फ़अल फ़ाइलुन फ़ाईलुन मुफ़ाइलुन फ़ा
212 12 212 222 1212 2
इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी।
आज जा के देखा मुहब्बत कितनी बची हुई थी।।
आपसे जहाँ बात फिर मिलने की कभी हुई थी,
आज मैं देखा गर्द उन वादों पर जमी हुई थी।
लग रही थी हर रहगुज़र वीराँ हम जहाँ मिले थे,
सिर्फ़ ख़ूब-रू एक याद-ए-माज़ी सजी हुई थी।
सोचता हूँ तक़दीर कितनी थी मेहरबान हम पर,
क्यूँ मगर ये तक़दीर अपनी उस दिन क़सी हुई थी।
आपको भी आ कर ज़रूरी था एक बार मिलना,
चौक पर वही चाय मन-भावन भी बनी हुई थी।
9 टिप्पणियाँ
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वाह वाह
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Gajab
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खूबसूरत ग़ज़ल
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जी बेहतरीन शायरियां
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बढिया ग़ज़ल
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Waah
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Wah khub
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Shandar ghazal .. like it
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क्या बात है वाह शानदार ग़ज़ल जनाब
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