मरीचिका - 6

15-10-2020

मरीचिका - 6

अमिताभ वर्मा (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

(मूल रचना:  विद्याभूषण श्रीरश्मि)
धारावाहिक कहानी

1956-59

घर छोड़ने के बाद मैं सीधे मिस साइमन के पास गई, उनके कंधे पर सिर रख कर दिल का बोझ हल्का किया। कहते हैं कि सहकर्मी से सामीप्य रखना ठीक नहीं होता, पर मिस साइमन के अलावा उस शहर में था कौन जो मेरा अवसाद हरता? मिस साइमन आदर्श भारतीय नारी की छवि पर भले ही ख़री न उतरती हों, पर मेरे लिए निस्वार्थ सम्बल बन चुकी थीं। वे मुझे सदा व्यावहारिक राय देती आई थीं, चाहे उनका व्यक्तिगत नुक़्सान ही क्यों न होता हो। मैं तो केवल उनके परामर्श से लाभान्वित होती थी, पर मेरे अनुमान से वे गुप्त रूप से अनाथ विद्यार्थियों की शिक्षा और निर्धन स्त्रियों के विवाह जैसे कामों में भी जुटी थीं। उन बातों को छेड़ते ही वे बड़ी सफ़ाई से विषय परिवर्तित कर दिया करती थीं।

जैसी कि आशा थी, मिस साइमन ने मुझसे पूरी सहानुभूति जताई, और अपना बँगला मेरे लिए "जब तक जी चाहे, रहो" के आश्वासन के साथ खोल दिया। मैं सकुचाते-सकुचाते उनके साथ रहने लगी, और पता भी नहीं चला कि तीन महीने कैसे बीत गए। उनका आतिथ्य और विशाल-हृदयता, दोनों अद्भुत थे। 

मिस साइमन के बँगले से दूसरे दिन ही मैं उस पार्क में गई जहाँ मैना पप्पू को घुमाने ले जाती थी। दूर से देखा, विमल का कहीं अता-पता न था, लेकिन मैना और पप्पू सुनसान-से पार्क में एक झूले के पास बैठे थे। मैना पप्पू को बिस्किट खिलाने का प्रयत्न कर रही थी, पर वह गिलहरियों को देखने में व्यस्त था। मेरी आँखें छलछला गईं। बदहवास-सी दौड़ती हुई मैं उनके पास पहुँची और पप्पू को कलेजे से लगा कर फूट-फूट कर रो पड़ी। अपने पर क़ाबू पाने के बाद मैंने मैना को दो सौ रुपए पकड़ाए, अपना नया ठिकाना बताया, और बच्चों को हर छुट्टी के दिन अपराह्न मेरे पास लाने का अनुरोध किया। पैसे लेते हुए मैना रो पड़ी, बड़े कातर स्वर में बोली, "बीवीजी! पैसा काहे देत हँय? अब आप घर नाहीं आएँगी का? बचवन को अइसे ही छोड़ देंगी?"

मैं उससे क्या कहती! वैसे भी, वह समझदार थी, हम पति-पत्नी के वैमनस्य का कारण भली-भाँति जानती थी। "अभी कुछ कह नहीं सकती। जब तक सब ठीक न हो जाए, तब तक तो तुम्हें ही देखना होगा सबको," कह कर मैंने बात ख़त्म कर दी।

प्रेरणा, पप्पू और मैना अगले रविवार दोपहर तीन बजे आए। पप्पू आते ही गले से लिपट गया, प्रेरणा थोड़ी देर दूर खड़ी सिसकती रही। मैना ने बताया, विमल घर बदल रहा था। उसने बाबू को दूसरी नौकरी खोजने के लिए कह दिया था। मतलब, मैं परिचित पार्क में जाकर बच्चों से नहीं मिल सकती थी, और बच्चों, घर, बाहर–सबकी ज़िम्मेदारी मैना के मत्थे आ गई थी।

अगले पन्द्रह-बीस दिन मैना और बच्चे नहीं आए, और मैं परेशान रही। फिर एक दोपहर, पहले की ही भाँति, तीनों आए। बच्चे इस बार ख़ुशी से मिले। मैंने प्रेरणा के लिए चन्दामामा और पप्पू के लिए खिलौने रखे थे। मैना ने बताया कि वे लोग शक्ति नगर में एक छोटे-से फ़्लैट में चले गए थे। बाबू अब वहाँ काम नहीं करता था। वैसे तो सब ठीक-ही चल रहा था, पर विमल के सप्ताहान्त में कभी अकेले और कभी मित्रों के साथ शराब पीते समय प्रेरणा को समझाना और पप्पू को अलग रखना मुश्किल हो रहा था। विमल ने सख़्त ताक़ीद की थी कि मैना मुझसे न मिले और बच्चों को तो हर्ग़िज़ मेरे पास न लाए। शायद वे मेरे पास आज अन्तिम बार आए थे। मेरा दिल टूक-टूक हो गया। 

इस समस्या का इलाज मेरे पास नहीं था। मैंने मैना से कहा, "वे ज़िद पर अड़ गए हैं, कि उनके साथ तभी रह सकती हूँ जब मैं नौकरी छोड़ दूँ। उन्हें बच्चों के सामने शराब पीना मंज़ूर है, पर बच्चों को मेरे पास भेजना मंज़ूर नहीं। अगर मैं नौकरी छोड़ कर, उन पर आश्रित बन कर, उस छोटे-से घर में लौट भी गई, तो भी वे बदलेंगे नहीं। पिछली बार चिल्ला-चिल्ला कर लड़े थे, इस बार हाथ उठा देंगे। कौन जाने, मेरी हत्या कर दें और ख़ुद जेल चले जाएँ। ... ना! अभी मेरे वहाँ जाने से हम सब का जीना दूभर हो जाएगा। जब तक वे सच्चे दिल से न बुलाएँ, मुझे अलग ही रहना होगा। मैना, मैंने बच्चों को तुम्हारे सहारे छोड़ा है। मैं रुपए-पैसे से हर मदद कर दूँगी, लेकिन उनकी देख-रेख तुम्हें ही करती होगी। ये लो, रखो! कभी अचानक कुछ ख़र्च पड़ गया, तो काम आएँगे।" मैंने मैना की ओर दो सौ रुपए बढ़ाए।

मैना का मुँह रुँआसा हो गया। उसने चुपके से रुपए अपनी साड़ी में बाँधे, और बोली, "पाँच साल में हम वो देख लिए जो उससे पहले कब्भौ नाहीं देखै थे। सब कुछ केतना अच्छा रहा, आउर ...। हम त बचवन को देखैंगे ही, लेकिन अब हमारी उमर हुई गई हय। पता नहीं कब तक ...। भगवान करैं आप दूनौ में जल्दी सुलह हुई जाय।"

"मैना बाई, मेरे बच्चों के लिए, मेरे लिए, तुम्हें जीना होगा। वरना बेचारे कहाँ जाएँगे!" मेरा गला अवरुद्ध हो गया, आँखें छलक गईं।

मैना खड़ी हो गई। माँ की तरह मेरे सिर पर हाथ रख कर बोली, "दिल छोटा नाहीं करौ। हम अब्भी नाहीं मरैंगे। अगर एकौ भला काम किए होंगे जिन्दगी में, तौ दूनौ बचवन को बड़ा करके ही जाएँगे। इत्मीनान रक्खौ।"

मिस साइमन के बँगले से निकल मैं बहुत दूर नहीं गई। पास ही, जंगपुरा में मैंने एक अच्छा-सा फ़्लैट किराये पर ले लिया। वैसे मैं बँगला भी ले सकती थी, पर मुझे इतनी जल्दी अकेले रहने में डर लगता था– कहीं विमल कोई बेजा हरक़त कर न बैठे। लोग-बाग से भरे मकान में स्थित फ़्लैट में अधिक सुरक्षा महसूस की मैंने, हालाँकि वहाँ अतिथियों को मौक़े-बेमौक़े बुलाना सम्भव नहीं था। वहाँ के बच्चों और विमल के दायित्व-जन्य-तनाव से मुक्त जीवन में मुझे काम करने की अधिक सहूलियत मिली। दूसरों के साथ व्यापार कर रहे कम्पनी के कई मूल्यवान पुराने ग्राहक वापस लौट आए, बहुत से नए ग्राहक भी बने। ढाई वर्ष में ही कम्पनी की बिक्री पच्चीस प्रतिशत बढ़ गई, जबकि ज़्यादातर प्रतियोगी कम्पनियों का व्यापार या तो घटा या ज्यों-का-त्यों रहा, सिर्फ़ एक की बिक्री दस प्रतिशत बढ़ी। 

जहाँ एक ओर मेरे व्यावसायिक सम्बन्ध सुदृढ़ हुए, वहीं दूसरी ओर आत्मीय सम्बन्ध ताश के महल की तरह धराशायी हो गए। विमल ने सीधे आक्रमण नहीं किया, पर मायके में मेरे अकेले रहने का समाचार भेज दिया। वे लोग सन्न रह गए, अनुराग, सुकुमार और मौसाजी झटपट विमल के पास दिल्ली आए। विमल ने कुछ सच्चे और कुछ झूठे रंगों से एक मार्मिक चित्र उकेरा, और अपनी विशाल-हृदयता के साक्ष्य में प्रस्ताव रखा कि मेरे नौकरी छोड़ कर उसके साथ रहने पर वह मुझे माफ़ कर देगा। मौसाजी के मुख से यह उदार प्रस्ताव सुनकर मुझे हँसी भी आई और रोना भी। विमल के साथ वापस रहना क्या किसी दण्ड से कम होता? दस वर्षों में मैं उसके लालच, उसकी ईर्ष्या, उसके दंभ, उसकी कुटिलता और उसकी हीन भावना के अनगिनत परिणाम भुगत चुकी थी, एक सीधी-साधारण लड़की से एक प्रताड़ित महिला बन चुकी थी। मायकेवाले इन बातों को बिना जाने-समझे मुझे दोषी मान रहे थे। पर ऐसी अत्यंत व्यक्तिगत बातें उनसे कही भी तो नहीं जा सकतीं जो कई-कई बरसों के बाद मिलते हों, चाहे वे निकट सम्बन्धी ही क्यों न हों। फिर, तीन मर्द मेरी बात क्या समझते? मैंने विमल के पास वापस लौटने से इन्कार कर दिया। मायकेवालों ने तरह-तरह की दलीलें दीं, बच्चों के प्रति मेरे कर्तव्यों की फ़ेहरिस्त सुनाई, मुझे क्षमा, त्याग और कल्याण की मूर्ति बनने का उपदेश दिया, और अन्त में यह चेतावनी देकर चले गए कि अगर मैंने एक महीने के अन्दर उनकी बातें नहीं मानीं, तो वे मुझे मृत मान कर मुझसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लेंगे। 

वह एक महीना भी बीत गया। मैं उनकी नज़र में मर गई।  

अब मैं उस नाव की तरह थी जिसे नाविक ने जानबूझ कर मझधार में बहने को छोड़ दिया था। कई बार विमल से तलाक़ लेने का विचार मन में आया, पर आशा का अन्तिम सम्बल तोड़ने में हिचक होती थी। मेरी-जैसी स्त्री से विवाह करने वाला व्यक्ति विमल से बहुत बेहतर नहीं होता। और अगर होता भी, तो प्रेरणा और पप्पू से न जाने कैसा व्यवहार करता। पुनर्विवाह न करने पर बच्चों को अकेले पालना आसान न होता। मेरे तलाक़ का रेवा के विवाह पर भी बुरा असर पड़ता। मैंने कुछ समय अकेले ही रहने की ठानी। मेरे हृदय में अपार दुःख था, पर बाहरी तौर पर मैं हँसमुख बनी रही। मेरे चित्ताकर्षक हावभाव के कारण क्लब में लोग मुझसे जान-पहचान बढ़ाने को उत्सुक रहते। कोई मेरे समीप बैठने को व्याकुल था, तो कोई मेरे साथ बॉल डान्स करने को बेक़रार रहता। मेरे अधिक पास आने की होड़ में कुछ लोगों में अनबन भी हो जाती। मैं सबसे अच्छा बर्ताव करती, लोगों का साथ मेरे जीवन के कटु सत्य को कुछ पल के लिए धूमिल भी कर देता, पर अन्त में मैं सदा यथार्थ के कठोर धरातल पर सिर पटकती रह जाती।

एक दिन क्लब में अचानक मुझे एक ऐसे चेहरे की झलक दिखी जिसने कभी मेरे मन-प्राण पर अधिकार जमा रखा था। एक पल को मैं हर्ष-विह्वल हो गई, मेरी हृदयगति तीव्र हो गई, पर दूसरे ही क्षण मुझे संकोच ने जकड़ लिया। मेरी परिस्थितियों में आधारभूत परिवर्तन जो हो गया था। मैंने ध्यान ताश के खेल की ओर वापस फिराया, लाल पान के ग़ुलाम को बचाते हुए बेगम को फेंक दिया। 

पर संकोच सिर्फ़ मुझे था, उसे कोई झिझक न थी। वह बड़े आत्मविश्वास से मेरे पास आया और बाक़ी खिलाड़ियों से माफ़ी माँगने के बाद बोला, "प्रतिमाजी! इज़ दैट यू? व्हाट ए प्लेज़ेण्ट सरप्राइज़!"

मैंने चौंक कर नज़रें ऊपर उठाने का स्वांग रचा, और उसकी आँखों से आँखें मिलते ही उठ खड़ी हुई। अन्तर्भावों को छुपाने में माहिर तो हो ही चुकी थी मैं, ख़ुशी के अनार फोड़ते हुए बोली, "माई गॉड! लुक, हू इज़ हियर! शरद!"

बाक़ी खिलाड़ी हमें घूरने लगे थे। मैंने परिचय दिया, "ये हैं शरद कुमारजी। कॉलेज में मेरे क्लासफ़ेलो थे, आजकल ..."

"... गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया में ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटी हूँ," शरद ने परिचय पूरा किया।

ताश के तीनों साथी निजी संस्थानों से सम्बद्ध थे। एक आई ए एस अधिकारी के सम्पर्क में आने से उनके चेहरे पर चमक-सी आ गई। तीनों ने अपना-अपना परिचय दिया, पर शरद ने बेतकल्लुफ़ी की नौबत आने से पहले ही अल्टिमेटम दे दिया, "कब फ़्री हो रही हो? ... या कभी किसी और दिन मिलें?"

"जब कहो... अभी... यह तो यूँ ही टाइम किल कर रहे थे हम लोग, है न?" मैंने बाक़ी खिलाड़ियों की ओर मनमोहक मुस्कान के साथ कहा। और "इफ़ यू परमिट, लेट मी हैव ए वर्ड विद माई ओल्ड बट यंग फ़्रेंड!" के साथ मैं शरद के साथ चल पड़ी।

शरद ने प्रसन्नता से कहा, "कहो, ढूँढ़ ही लिया न आख़िर!"

"हाँ, ढूँढ़ तो लिया!" मैंने सस्मिति तिरछी निगाह से उसे देखा, "लेकिन क्यों?"

"वही बताने तो ले जा रहा हूँ," शरद मुस्कराया।

"कहाँ? मुझे तो डर लगने लगा तुम्हारी बात सुन कर," मैंने शोख़ चितवन के साथ कहा।

"डर? तुम्हें डर लगता है? अरे, तुम्हें तो दाँत काटना आता है, तुम्हें किस बात की परवाह!" 

शरद के मज़ाक को सुन कर मैं ठण्डी पड़ गई। धीरे से बोली, "अब वे दाँत नहीं रहे, शरद!"

"क्यों? मैंने तो सुना है कि आज भी तुम्हारा काटा हुआ उठ कर पानी नहीं पीता!" बोल कर वह क्लब के बरामदे में ही ठिठक कर मुझे शरारत से घूरने लगा।

"दुष्ट! इस तरह क्या देख रहे हो मुझमें?" मैंने सलज्ज मुस्कान के साथ कहा।

"देख रहा हूँ, तुम कितनी बदली हो और कितनी वही हो, कितनी रेखाएँ ऐड हो गई हैं और कितनी खो गई हैं!" उसने थोड़ी गम्भीरता से कहा, और हम कार पार्क की तरफ़ बढ़ने लगे।

चलते-चलते मैंने धीमे से जवाब दिया, "रेखाएँ तो मिटती और बनती ही रहती हैं। इन पर अपना कोई वश होता है?"

"फिर किसका वश होता है? ज़रा मैं भी सुनूँ।"

"यह ख़ुद से ही पूछो न।"

"ख़ुद से? ख़ुद से क्या पूछूँ? मुझमें कोई चेंज आया होता तो पूछता। मैं तो ज़रा भी नहीं बदला, ज्यों-का-त्यों हूँ अब तक।"

"अपनी आँखों से दूसरे ही दिखाई पड़ते हैं न, इसलिए ऐसा कह रहे हो।"

"तो क्या मुझमें सचमुच कोई चेंज आया है?"

अतीत के कई चित्र मेरे मानस पटल पर उभर आए और होंठ कह उठे, "न, तुम तो अब भी उतने ही भोले हो! अब भी किसी की गोद में चिट्ठी फेंक कर सिर झुकाए भागते रहते हो।"

शरद झेंप मिटाने के लिए ज़ोर से हँस दिया, "व्हाट ए मेमोरी! यू आर राइट, शायद मुझमें भी कुछ चेंजेस आए हैं।"

अब तक हम उसकी कार के पास पहुँच गए थे। उसके शोफ़र ने मुस्तैदी से कार का दरवाज़ा खोला। शरद ने पहले मुझे बैठने का निमन्त्रण दिया, और फिर वह भी मेरी बगल में बैठ गया। हमारे बीच अच्छी-ख़ासी दूरी थी। उसने गम्भीरता से कहा, "कोठी," और हम चल दिए।

मैंने उसे कनखियों से देखा। यह वही शरद था जिसका चोरी-चोरी ताकना कभी मुझे बहुत भाता था, जो मेरे मन में बसी आदर्श जीवनसाथी की छवि से मेल खाता था, और भविष्य की अनिश्चितता के भय से जिसके प्रणय निवेदन को ठुकरा कर कभी मैं बहुत रोई थी। कुँवारेपन की मासूम भावनाएँ छुप ज़रूर जाती हैं, पर शायद मरती कभी नहीं, सोचते हुए मैंने गहरी साँस ली। शरद ने मुझे तिरछी निगाहों से देखा, और अमरीका के 'एक्सप्लोरर 1' और सोवियत संघ के 'स्पूतनिक 3' उपग्रहों के बारे में बात करने लगा। यह ऐसा विषय था जिसमें शोफ़र जैसे मामूली आदमी की रुचि शायद न के बराबर थी। देख तो वह मुझे पहले भी नहीं रहा था, पर इतनी शुष्क चर्चा से ऊब कर जल्दी ही कुछ और सोचने लगा।  

थोड़ी देर बाद मुझे अपने ख़ाली हाथ जाने और उसके परिवार का ख़याल आया। मैंने संकोच से कहा, "आई विश वी कुड स्टॉप समव्हेयर ऑन द वे।"

शरद बहुत समझदार था। उसने मेरा हाथ दबा कर 'द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई' के बारे में चर्चा छेड़ दी। फ़िल्म का विश्लेषण समाप्त होने से पहले उसका घर आ गया। 

अन्दर जाते-जाते मुझे अपने ख़ाली हाथों की फिर चिन्ता हुई। शरद मेरी परेशानी समझ गया, बोला, "सब कश्मीर गए हुए हैं।"

"ओह!" मुझे झटका-सा लगा। उसने दरवाज़े का ताला खोल कर मुझे आमन्त्रित किया। बड़ा आलीशान बैठक-कक्ष था उसका, पर सजावट कुछ उपेक्षित-सी थी। कहीं किताबें और पत्र-पत्रिकाएँ बिखरी थीं, कहीं पानी का जग और गिलास पड़े थे, और कहीं बच्चों के जूते-चप्पल उल्टे-पुल्टे धरे थे। मैं एक सोफ़े पर बैठ गई, वह भी बत्तियाँ-वगैरह जला कर बगलवाली आर्म्ड चेयर पर आ गया।

उसने बताया कि बी ए करने के दूसरे ही साल वह आई ए एस में चुन लिया गया था। कई राज्यों में रहने के बाद पिछले चार महीनों से दिल्ली में ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटी का पदभार सम्भाल रहा था। उसका विवाह 1947 में ही एक धनाढ्य परिवार में हो गया था। फ़ायरप्लेस के ऊपर मैण्टलपीस पर उन दोनों की फ़ोटो से साफ़ ज़ाहिर था कि उसकी पत्नी अत्यन्त सुन्दर थी। शरद ने लापरवाही से बताया कि उसकी पत्नी मैट्रिक के आगे पढ़ाई नहीं कर सकी थी। उसकी लड़की छः साल की और लड़का दो साल का था। बेचारे शरद को एक महत्वपूर्ण काम के अचानक आ जाने से अन्तिम समय में अपनी कश्मीर यात्रा मुल्तवी करनी पड़ी थी।

उसे मेरे बारे में थोड़ा-बहुत पता था। मैंने जानकारी पूरी कर दी संक्षेप में यह बता कर कि विमल से मतभेद के कारण मैं कुछ समय से अलग रह रही हूँ। मैंने इस मतभेद का आरोप अपनी महत्वाकांक्षाओं के टकराव के सिर मढ़ दिया। उसे मेरी बातों से शायद विमल के स्वार्थी स्वभाव के बारे में भी पता लग गया। उसने गरिमामय ढंग से मेरा हाल सुना। वैसे भी इतने सालों के बाद मिल रहे थे, यह समय रोने-रुलाने और सहानुभूति व्यक्त करने का नहीं, ख़ुशियाँ बाँटने का था। आधे घण्टे में हम अपने दुःख भूल कर जाम टकरा रहे थे। हम दोनों ने एक-दूसरे में कभी कुछ पाना चाहा था पर पा न सके थे।  मनोभावों को दबाने-उभारने में देर होती गई, और अन्त में शरद ने अपने बेडरूम के बगलवाले कमरे में मेरा बिस्तर लगवा दिया। दोनों कमरों के बीच एक दरवाज़ा था। रात में उस दरवाज़े के साथ-साथ हमने अपने दिल के दरवाज़े खोल दिए, पिछले बारह वर्षों के अभाव को पूरा जो करना था! मुझे शरद मिल गया था, उसे मैं। लेकिन हम दोनों ही संभवतः मरीचिका के छलावे में थे। न वह पुराना शरद रह गया था, न मैं पुरानी प्रतिमा। हमारी मासूमियत की हत्या बहुत पहले हो चुकी थी।

हम बदल गए थे, पर इतने नहीं कि मित्र भी न रह सकें। शरद और मैं आज भी बेतक़ल्लुफ़ी से मिलते हैं, पर हमारा हार्दिक लगाव सूख चुका है। पुराना शर्मीला संकोचशील विद्यार्थी शरद अब एक बहुर्मुखी और आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्ति में परिणीत हो चुका है। उसका स्वभाव बहुत बदल गया है। वह महिलाओं में विशेष तौर पर लोकप्रिय है। उसके सम्बन्ध ज्वार-भाटे की तरह कभी प्रगाढ़ तो कभी छिछले होते रहते हैं। उसकी दिलचस्पी और उपेक्षा, दोनों में ही गाम्भीर्य समाप्त हो चुका हैं। वह मुझसे कई बार आत्मीय हो चुका है, और बहुत बार मेरा तिरस्कार भी कर चुका है। उसने आकाश-पाताल एक कर मेरी समस्याएँ हल की हैं, तो मेरे साधारण से अनुरोधों को नकार भी दिया है। परिस्थितियों के साँचे में ढल-ढल कर वह एक नया रूप धारण कर चुका है, दुनियादार हो गया है। 

सोचो, तो मैं ही कौन-सी वह आरावाली प्रतिमा रह गई हूँ? आज की जंगपुरा की प्रतिमा में कल की करोलबाग़वाली प्रतिमा का प्रतिबिम्ब लुप्त हो चुका है। इस परिवर्तन का आभास मुझे एक कटु अनुभव से हुआ। तीन साल पहले उनके पति की मृत्यु के बाद शान्ति देवी से धीरे-धीरे मेरा सम्पर्क टूट गया था। सेनेटोरियम से स्वस्थ होकर लौटने के कुछ महीनों के अन्दर ही उनके देहान्त से मेरा मन विरक्त हो गया था। मेरे संवेदना संदेश के उत्तर में शान्ति देवी ने प्रारब्ध को दोष दिया था और आर्थिक तथा मानसिक मदद देने के लिए बड़े मर्मस्पर्शी शब्दों में मेरा आभार प्रकट किया था। एक-दो पत्रों के आदान-प्रदान के बाद चिट्ठियों का सिलसिला बन्द हो गया था। विमल से अलग होने पर भी उन्होंने कुछ न लिखा था। या तो उन्हें वह समाचार नहीं मिला था, या उन्होंने मेरे व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप न करना श्रेयस्कर समझा था। चंद महीने पहले उन्होंने ढाई हज़ार रुपए का इनश्योर्ड लेटर भेज कर मुझे कई वर्ष पीछे ढकेल दिया था। वे, अपने प्रण के अनुसार, पति के इलाज के लिए मिली सहायतार्थ राशि लौटा रही थीं। कोई तो था, जो नहीं बदला था! मैं भावविभोर होकर उनके स्वाभिमान, ईमानदारी, और पति-प्रेम के बारे में सोचती रह गई थी।

मैंने लेटर वापस कर दिया था। मेरी भेजी रक़म उनके पति का जीवन बचाने में असमर्थ रही थी। उनके आत्मसम्मान की रक्षा के लिए मैंने एक पत्र भी लिखा, जिसमें रुपए वापस करने का विचार त्यागने और उस धनराशि को अपनी शिष्या की श्रद्धापूर्ण भेंट समझ कर स्वीकार करने का अनुरोध किया गया था। 

उस पत्र का उत्तर मुझे विलक्षण रूप से मिला। एक दिन वे स्वयं ही मेरे घर आ धमकीं। हर्ष से मेरी बाँछें खिल गईं। मैं उनकी चरणधूलि लेने के लिए नीचे झुकी, पर उन्होंने मुझे आशीर्वाद नहीं दिया। बिना कुछ बोले पर्स से नोटों का एक बण्डल फेंक कर वापस जाने के लिए मुड़ गईं। मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसक गई। मेरी आराध्या ने मुझे अपनी करुणा और संरक्षण से वंचित कर दिया था। मैं शोकप्लावित हृदय और भरा कंठ लिए गिड़गिड़ाई, "मेरी बात तो सुनिए! मैं निर्दोष हूँ ..."

वे रुकी नहीं, चलते-चलते बोलीं, "पापियों की बात सुनने में मेरी रुचि नहीं है।"

मैं ठगी-सी खड़ी रह गई। फिर हौले-हौले नोटों को उठाया। हज़ार रुपए के नोटों पर शिव के तिन्जौर मन्दिर की तस्वीर थी। वही शिव, जो विष पी कर भी विचलित नहीं हुए थे। सौ रुपए के नोटों पर विवेक के प्रतीक हाथी का चित्र था। शान्ति देवी मेरा तिरस्कार करते हुए भी कितनी महत्वपूर्ण सीख दे गई थीं! 

– क्रमशः

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