मैं भी अपने गाँव जाता हूँ

15-05-2019

मैं भी अपने गाँव जाता हूँ

महेशचन्द्र द्विवेदी

वर्षों पूर्व गाँव से आकर 
नगर में बसे हुए लोग
जब अपने गाँव जाते हैं,
तब अपने समय की 
ऊबड़-खाबड़ गलियों में उड़ती धूल
और गंदगी से बजबजाते 
परनाले न देख,
बुधिया ताई को दूरस्थ कुँए से 
पानी से भरा घड़ा
कमर पर लादे हुए लाते न देख,
कल्लो काकी को फुंकनी से 
चूल्हा जलाते हुए
आँखों को धुंआते न देख,
टुड़ई बबा को बैलों का 
गंदा गोबर हलुआ सा
हाथों से उठाते न देख,
निठल्ले पुरुषों को जाड़े की 
अँधेरी रातों में देर तक
अगेहना के किनारे 
बतियाते न देख
उन्हें अपने ज़माने की याद आती है
उनके मन में अतीत की 
ललक उफ़ान खाती है।

गाँव वालों के पारस्परिक 
वार्तालाप में
एक दूसरे को भैय्या, जिज्जी, 
चाची, बुआ, काका, बाबा
जैसे आत्मीय सम्बोधन से पुकारने की
परम्परा याद कर उनकी 
आँख नम हो जाती है।

मैं भी अपने गाँव जाता हूँ
बचपन में जिये दिनों की 
याद में मैं भी खो जाता हूँ;
पर गाँव में होने वाले 
परिवर्तनों के विषय में
अपने आकलन को  
दूसरों के आकलन से 
प्रायः भिन्न पाता हूँ।
आज मेरी कार मुख्य 
मार्ग से घर तक बनी
पक्की सड़क पर
धड़धड़ाती चली जाती है;
पहले पानी की कमी 
के कारण जो ज़मीन
बंजर पड़ी रहती थी
वहाँ अब हरी-भरी फसल लहलहाती है।
गाँव में टी.वी., ट्रैक्टर 
और पक्के मकान
परचून और दवा-दारू की दुकान
कंक्रीट की गलियाँ और 
स्वच्छ नालियाँ देख
अपनी तबियत तो 
बाग-बाग हो जाती है।

बुधिया ताई को 
घर के आंगन में लगे
हैंड-पम्प से पानी निकालते देख,
कल्लो काकी को 
गैस के कुकर को
लाइटर से जलाते देख,
टुड़ई बबा को खेत में 
आड़ तलाशने के बजाय
शौचालय में शान से जाते देख,
गाँव के युवाओं को जेब 
में मोबाइल रखकर
मोटर बाइक पर फुर्र 
उड़ जाते देख,
सायंकाल होते ही गाँव की 
गलियों और घरों में
बिजली के लट्टू जल जाते देख
मेरे मन में देश में होती प्रगति के विषय में
संतुष्टि की लहर दौड़ जाती है.

स्वतंत्रता पूर्व मेरे गाँव के लगभग
एक हज़ार व्यक्तियों में
दस-पाँच व्यक्ति ही 
अपने हस्ताक्षर कर पाते थे,  
आज दो-ढाई हज़ार में 
केवल दस-पांच ही
निरक्षर रह पाते हैं।
पहले गाँव के अनेक लोग
 बंधुआ मज़दूर थे
पीढ़ी दर पीढ़ी 
कर्ज़ में जीते थे;
निर्धन, निराश, 
निस्सहाय थे,
आधा पेट खाते और 
आधा पेट पानी पीते थे।
प्रगति के प्रति 
असंतुष्ट होते हुए भी
आज गाँव वाले आशावान हैं,
ज्ञान का हो रहा है प्रसार
प्रत्येक वर्ग में जाग रहा स्वाभिमान है।    

पहले प्रकट में 
पारस्परिक प्रेम तो था
परंतु उसका आधार 

निर्बल वर्ग की मजबूरी थी
अन्यथा जातियों में 
सामाजिक स्तर की लम्बी दूरी थी.
आज किसी को निराश 
रहकर यथास्थिति में
जीना नहीं स्वीकार्य है,
पिछड़ों में भी आत्म-सम्मान 
एवं आत्म-विश्वास है,
उन्नति की ललक है, छटपटाहट है,
प्रगति की दरकार है।  
इसीलिये मैं जब भी 
अपने गाँव जाता हूँ,
समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं
आज के राजनैतिक 
विद्वेष के बावजूद
गाँव की प्रगति देख मुस्कराता हूँ।  

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