झाँझी-टेसू का ब्याह

23-05-2017

झाँझी-टेसू का ब्याह

नीरजा द्विवेदी

“झिंझिया आय गई, झिंझिया आय गई”-- कहकर बसन्ती और विशाल उत्सुकता से चहकते हुए फाटक की ओर दौड़ पड़े। घर के बाहर से आते हुए शोर को सुनकर माधवी कुछ समझ पाती इसके पूर्व ही चार-पाँच वर्ष से लेकर ग्यारह-बारह वर्षों की कन्याओं का झुन्ड आँगन में आकर खड़ा हो गया। कमला सिर पर एक रंग-बिरंगी मलैया /मटकी/ लिये खड़ी थी और उसकी सहेलियाँ गीत गाने लगीं थीं --”झाँझी रे झाँझी, तेरो ब्याह रचायें”।

बसन्ती बूढ़ी अम्मा से बोली, “दादी ! झिंझिया आय गई।” अस्सी वर्षीया बूढ़ी अम्मा ने सन से सफेद बालों का लपेटा देकर जूड़ा बनाया और पल्लू सिर पर डालकर, डिबिया से एक चुटकी तम्बाकू मुख में दबाते हुए कहा—“बिटिया  ! ओसारे से निकाल के एक कटोरा मक्का दै देव ।” यह कहकर उन्होंने अपने तकिये के नीचे रक्खी झोली से एक दस रु० का नोट निकाल कर चम्पा की ओर बढ़ा दिया । उत्तर प्रदेश में औरैया ज़िले के मानीकोठी ग्राम में दशहरे की छुट्टियों में माधवी अपनी मौसी शकुन्तला के यहाँ पहली बार आई थी । रात्रि के आठ बजे का समय था । मौसम बड़ा सुहावना था। आँगन में छिटकी चॉदनी बडी सुन्दर लग रही थी । माधवी अपनी मौसी एवं उनकी सास के पास बैठी बतकही में व्यस्त थी कि इसी समय शोर मचाते बच्चे आँगन में आकर खड़े हो गए थे। माधवी आश्चर्य से उस मटकी को देखने लगी। लाल, पीले, हरे रंगों से रंगी-पुती, एक बड़े से छेद वाली मटकी के अन्दर धान रक्खा था जिसके ऊपर एक दीपक जलाकर रक्खा गया था और छेद को मिट्टी के ढक्कन से ढँक दिया गया था । लडकियाँ गीत गा रही थीं। बसन्ती जब मक्का लेकर आई तो एक लड़की ने एक झोले में मक्का रख ली और सब लड़कियाँ मिलकर गीत गाते हुए दूसरे घर की ओर चल दीं ।

 “मौसी! यह सब क्या हो रहा है” --शहर से आई माधवी के लिये यह प्रथम अनुभव था और गाँव की लड़कियों के जाते ही उसने प्रश्न किया। इसी समय रामचन्द्र मौसा घर में आ रहे थे, प्रश्न सुनकर उन्होंने उत्तर दिया --”हमारे यहाँ -विशेषकर इटावा, औरैया, मैनपुरी, आगरा आदि ज़िलों में- झाँझी-टेसू का विवाह रचाने की प्रथा का प्रचलन है । दशहरे के मेले से लोग झाँझी और टेसू के नाम की मटकी खरीद कर लाते हैं । कुम्हारों के द्वारा झाँझी ’लड़की‘ और टेसू ’लड़का‘ बनाया जाता है। फिर झाँझी और टेसू को मटकी पर रँग लेते हैं। झाँझी को सलोनी सी लड़की के रूप में और टेसू को मछधारी युवक के रूप में रँगा जाता है। दशहरे की शाम से ही सब बच्चे झाँझी और टेसू वाली मटकी के अन्दर अनाज रखकर और दीपक जलाकर घर-घर जाते हैं जहाँ उन्हें अनाज व धन दिया जाता है।“

गाँव वालों में कुछ लोग कन्या पक्ष के हो जाते हैं और कुछ वर पक्ष के। फिर दोनों पक्षों में विवाह की तैयारी का यह कार्यक्रम दशहरे के पश्चात चौदस तक चलता है। रात्रि में बाकायदा सब स्त्रियाँ एकत्रित होकर नाच-गाना करती हैं। शरद-पूनों के दिन तक जो अनाज इकटठा होता है, उसे भी बेचकर एकत्रित धन से पूनों की रात्रि में झाँझी-टेसू का ब्याह किय जाता है। वर पक्ष वाले कन्यापक्ष के प्रमुख व्यक्ति के यहाँ बारात लेकर जाते हैं और वहाँ विवाह का स्वांग रचाया जाता है। फिर सबको खील, बताशे, रेवड़ी आदि बाँटी जाती है।”

इतने में लड़कों का एक झुन्ड शोर मचाते हुए सिर पर टेसू को उठाये हुए घर में आया। यहाँ से अनाज व रुपये लेकर दूसरे घर की ओर चल दिया।

बूढ़ी दादी ने माधवी से पूछा – “बिटिया! नाच देखोगी।”

माधवी जो इस अजीबोगरीब रस्म को समझने का प्रयास कर रही थी, प्रसन्न होकर बोली -  “नाच! अरे वाह, क्यों नहीं। जरूर देखूँगी। “

बूढ़ी अम्मा ने बसन्ती से कहा --”बिटिया, जाव मोड़िन से कहि देव कि आज हमाये आंगन में रंग कट जाय।”

“भली”  कहकर बसन्ती बाहर निकल गई ।

रात को नौ बजे अपने अपने घरों का कामकाज निबटाकर गाँव की स्त्रियाँ अम्मा के चौक में एकत्रित होने लगीं। रामसागर, अम्बिका, इन्द्रजीत,   बसन्ती एवं पार्वती ने मिलकर फर्श पर दरी बिछा दी । ढोलक, मजीरा और घुँघरू भी रख दिये। थोड़ी देर में ही स्त्रियों एवं बच्चों से आँगन भर गया। इतने में एक स्त्री पैरों में घुँघरू बाँधकर खड़ी हो गई और नाचने लगी । रामसागर की बहू ने ढोलक पर थाप दी। लालाइन चाची ने आलाप लिया और बच्चों ने साथ दिया। गाने के स्वर वातावरण में गूँज उठे --

“नये कुआँ में दिया जलत है, कमल फूल उतराई सुगना, कमल फूल उतराई।
इन गलैयन से ससुरा निकले ,ससुरा प्यासे जाई ,सुगना ससुरा प्यासे जाई ।
अपने ससुर को पानी पियाइ देव, बिन लुटिया बिन डोर ।
इन गलैयन से जेठवा निकले, जेठवा प्यासे जाई सुगना, जेठवा प्यासे जाई ।
अपने जेठ को पानी पियाव देव, बिन लुटिया बिन डोर ।
इन गलैयन से देवरा निकले, देवरा प्यासे जाई सुगना, देवरा प्यासे जाई ।
अपने देवर को पानी पियाइ देव, बिन लुटिया बिन डोर ।
इन गलैयन से सहबा निकले, सहबा प्यासे जाई सुगना, सहबा प्यासे जाई ।
अपने साहब को पानी पियाइ देव बिन लुटिया बिन डोर ।--- “

मास्टर साहब की पत्नी शीला ने ठुमकते ुए झाँझी की मलैया अपने सिर पर रख ली। उसके अन्दर दीपक जल रहा था। अपनी गर्दन को साधे हुए वह लय-ताल पर द्रुतगति से नृत्य करती रही। न दीपक गिरा न मलैया गिरी। अब अन्य स्त्रियों को भी जोश आ गया, एक बैठती तो दूसरी खड़ी हो जाती । बारह बजे रात्रि तक यह कार्यक्रम चलता रहा, तब जाकर महफ़िल बर्खास्त हुई ।

अगले दिन शरद पूर्णिमा थी। टेसू के पक्ष वाले सजधज कर बारात के रूप में बैन्ड-बाजे के साथ बारात लेकर झाँझी के घर की ओर रवाना हुए । वीरेन्द्र पन्डित जी बन गए। बुद्धवती नाइन थी । कन्या पक्ष के यहाँ स्वागत की जोरदार तैयारी की गई थी । टेसू की बारात पहुँचने पर सबके ऊपर गुलाबजल छिड़का गया । शर्बत पिलाया गया । श्री चन्द्र दुबे व उनकी पत्नी मनोरमा ने बड़हार में एक धोती ब्लाउज और ११ रु० दिया। मन्डप में झाँझी टेसू का ब्याह कराया गया । ब्याह के बाद सबको खील, बताशे खिलाये गए । झाँझी-टेसू की विदाई की गई । ११रु० पन्डित को व ११रु० नाइन   को  दिये गये।

माधवी आश्चर्यमिश्रित प्रसन्न्ता से इस रीति को देख रही थी । उसे लग रहा था कि जैसे उसका बचपन लौट आया है और वह गुडडे-गुड़िया का ब्याह रच रही है, जिसमें पूरा गाँव सम्मिलित है।

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