ईमानदारी का फल

29-12-2014

ईमानदारी का फल

नीरजा द्विवेदी

 चन्दनपुर गाँव में एक किसान रहता था। उसके तीन लड़के थे। तीनों बहुत आलसी थे। किसान बहुत दुःखी था कि उसके न रहने पर उसके बेटों का क्या होगा? वह बुड्ढा हो गया और उसे अपना अन्तिम समय निकट आया प्रतीत होने लगा तो उसने अपने तीनों पुत्रों को अपने पास बुलाया। उसने तीनों बेटों को पाँच सौ, पाँच सौ रुपये देकर कहा-

"बेटा! मेरे पास अभी इतने ही रुपये थे, जो मैने तुम तीनों को बाँट दिये हैं। मैं देखना चाहता हूँ कि तुम तीनों में कौन योग्य है और इस धन को बढ़ा कर लाता है। तुम तीनों प्रातः काल जिधर जाना चाहो जा सकते हो। एक वर्ष के बाद तुम लोग यहाँ लौटकर आना। जो इस धन का सही उपयोग करेगा, मैं अपनी अचल सम्पत्ति उसी को दूँगा।"

"जो आज्ञा पिता जी"- कह कर किसान के तीनों बेटे तीन दिशा में चल दिये। बड़ा बेटा पूरब दिशा की ओर गया। कुछ दूर चलने के बाद ही उसे थकान लगने लगी और वह पानी पीने के लिये एक दूकान पर रुका। पानी पीते-पीते उसकी दृष्टि हलवाई की दुकान पर पड़ी जहाँ गरम-गरम जलेबी और समोसे बन रहे थे। उसने पाँच रुपये के समोसे और पाँच की जलेबी खरीद ली। जब वह खा रहा था तभी पीछे से मन्तू ने उसे आवाज़ लगाई-

"अरे यार रामू, तुम यहाँ कैसे? चलो खूब आये। कल्लू और टीनू भी आये हुए हैं। हम लोग तीन जने हैं, मैं चौथे साथी की तलाश कर रहा था। चलो ताश की बाजी हो जाये।"

हीं यार, मुझे काम से जाना है। मुझे पिता जी को कुछ करके दिखाना है। केवल एक वर्ष का समय मेरे पास है, यदि कुछ कमा न पाया तो पिता जी मुझे अपनी सम्पत्ति नहीं देंगे," रामू ने उत्तर दिया।

"छोड़ो भी क्या बात करते हो? एक वर्ष तो बहुत होता है। दो-चार दिन यहाँ बने रहोगे तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। बड़े बेटे को भला कोई बेदखल कर सकता है। ये तो केवल कहने की बातें हैं। अरे चलो भी यार, अब क्या लड़कियों की तरह नखरे कर रहे हो,"-मन्तू ने व्यंग्य किया।

रामू स्वयं को अधिक देर तक ताश खेलने के मोह से न रोक सका। उसको तो रोज़ जुआ खेलने की आदत पड़ी थी। उसने सोचा कि क्या पता जुआ खेल कर ही मैं इतना धन जीत लूँ कि व्यापार करने या कोई काम करने की आवश्यकता न रहे। किसी भी चीज़ की लत बुरी होती है उस पर जुआ खेलने की लत तो लोगों को दीवालिया बना देती है। रामू पहले तो जुए में जीता फिर वह हारने लगा। कभी वह यह सोच कर खेलता रहा कि इसी से कमाई कर लूँगा और कभी जब वह हारने लगा तो हारा पैसा वापस पाने की आशा में जुआ खेलता रहा। उसे न दिन का होश रहा न रात का। जब उसे होश आया तब तक दस दिन बीत चुके थे और उसके पास ले दे के पचास रुपये बचे थे। वह शर्मिन्दा होकर सर झुकाये घर की ओर चलने लगा तो कल्लू बोला-

"क्या ऐसे हार कर घर जाओगे? आओ चलो मेरे साथ मेरे मालिक की दूकान पर तुम भी काम कर लो। तीन सौ रुपये, खाना-कपड़ा मिलेगा। रात को दूकान पर ही सो जाना। तुम पैसा भी बचा लोगे और हम लोग फ़ुर्सत में मस्ती भी कर लेंगे।"

रामू को यह प्रस्ताव अच्छा लगा। उसके पास दूसरा कोई विकल्प था भी नहीं। एक माह तो उसने ढंग से काम किया और ताश के चक्कर में नहीं पड़ा पर किसी चीज़ की लत बहुत बुरी होती है। बुरी संगति और भी बुरी होती है। वह अपने मन पर नियंत्रण रखना चाहता था परन्तु कल्लू और टीनू की बुरी संगति ने उसे सुधरने न दिया।

"अभी तो एक वर्ष में बहुत समय है, अभी हार गये तो कोई बात नहीं कल जीत जाओगे,"-कह कर वे लोग उसे फ़ुसला लेते। यहाँ तक कि जुआ खेलने के चस्के में वह साथियों के साथ बीड़ी और गुटखे की आदत भी लगा बैठा। उसे समय का ध्यान ही न रहा कि कब एक वर्ष समाप्त होने को आ गया। जो धन वह अपने साथ लेकर आया था वह तो उसने गँवाया ही इसके अतिरिक्त जो कमाया था वह भी जुए की लत में स्वाहा हो गया। बीड़ी, गुटखे ने उसका स्वास्थ्य भी खराब कर दिया। लगातार खाँसी, बुखार ने उसे जवानी में ही बेदम कर दिया। अपनी घड़ी, कोट, कम्बल और सोने की अंगूठी सहित सब धन और स्वास्थ्य गँवा कर लुटा-पिटा, शर्मिन्दा रामू सर झुकाये घर की ओर चला।

किसान का दूसरा बेटा विष्णु पश्चिम की ओर चला। उसके नाना का घर उसी दिशा में था। पहले तो वह यह सोच कर चला था कि कहीं नहीं रुकूँगा और सीधे शहर जाकर बाज़ार से गाय खरीदूँगा और दूध बेच कर पैसा कमाऊँगा। विष्णु की एक आदत थी कि वह मन ही मन सोचता रहता था कि मैं ये करूँगा, वह करूँगा पर वास्तव में उस पर अमल नहीं करता था। उसका मन अस्थिर और चंचल था। बाज़ार से गाय खरीदने का विचार तो उसने कर लिया पर मन की अस्थिरता के कारण नाना के घर के समीप पहुँच कर नाना से मिलने का मोह न छोड़ सका। वह यह भूल गया कि जब किसी काम को करना हो तो दृढ़ निश्चय करके उस पर जुट जाना चाहिये। नाना के यहाँ पहुँचा तो नाना-नानी की आवभगत और लाड़-दुलार ने सब भुलवा दिया कि वह किस लिये घर से निकला है। लापरवाह भी वह एक नम्बर का था। पिता जी के दिये रुपये उसने कहाँ खो दिये इसका उसे पता ही नहीं चला। मामा के साथ पिक्चर जाते समय किसी ने जेब से रुपये निकाल लिये या धोबी के कपड़ों के साथ रुपये भी धुलने चले गये मालूम नहीं। दस दिन बाद उसे होश आया कि उसे एक वर्ष में कुछ करके दिखाना है। नाना से उसने पिताजी की शर्त बताई तो उन्होंने उसे दुलारते हुए कहा-

"बेटा, चिन्ता मत करो। तुम अपने मामा के साथ काम में हाथ बटाओ। जितना तुम कहीं और नौकरी करके कमाओगे, उतने रुपये हमसे लेकर चले जाना।"

विष्णु ने मामा के साथ कुछ दिन ठीक से काम किया पर वह आलसी था अतः कुछ दिन बाद कभी काम पर जाता और कभी नहींजाता। घर की बात समझ कर लिहाज़ में कोई उससे कुछ नहीं कहता। पलक झपकते समय बीत गया। अब उसे चिन्ता हुई। कुछ न समझ आया तो नाना के नौकर के साथ पड़ोसी के घर में चोरी करने चला गया और पकड़ा गया। नानी की चिरौरी, विनती से जेल जाने से बच गया और बिना कमाई किये, उसे लज्जित होकर वापस घर लौटना पड़ा।

किसान का तीसरा लड़का श्यामू अभी आयु में छोटा था। वह बड़े भाइयों की नकल करके आलसी होता जा रहा था किन्तु वह पिता के समान भला और होशियार था। पिताजी की बीमारी ने उसे समझदार बना दिया था। वह पिता जी को फ़सल तैयार होने पर बेचते देखा करता था अतः उसे सामान खरीदने-बेचने के विषय में कुछ ज्ञान हो गया था। उसने सोचा कि क्यों न वह भी व्यापार करे। उसके पास पाँच सौ रुपये थे। उसने हिसाब लगाया कि सात दिन में खाने-पीने का खर्च वह सौ रुपये के अन्दर करेगा और सौ रुपये वक्त-ज़रूरत के लिये सम्हाल कर रखेगा। अब उसके पास बचेंगे तीन सौ रुपये। वह विचार करने लगा कि तीन सौ में किस तरह व्यापार किया जाये। वह एक गाँव के पास से गुज़र रहा था तभी उसे एक घर के पास से किसी स्त्री के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। उसका दयालु मन पिघल गया और उसने आवाज़ लगा कर पूछा-

"माई! आपको कोई सहायता की ज़रूरत है क्या?"

अन्दर से कराहते हुए आवाज़ आई-

"हाँ बेटा, जल्दी से आकर मुझे खोल दो। बदमाश मुझे बाँध कर डाल गये हैं।"

श्यामू ने घर के अन्दर जाकर देखा कि एक वृद्धा स्त्री घायल अवस्था में रस्सी से बँधी पड़ी है। उसने शीघ्रता से उसे खोला और पानी से उसके घाव साफ़ किये। उसने अपना साफ़ अंगोछा फ़ाड़ कर उसके घावों को बाँध दिया कि रक्त-स्राव रुक जाये और घाव पर मक्खी बैठने से संक्रमण न हो जाये। तभी उस स्त्री की दृष्टि कुछ दूर पड़े मूर्छित व्यक्ति पर पड़ी। श्यामू ने भी उसकी ओर देखा तो शीघ्रता से उसके समीप पहुँच कर उसकी नाड़ी पकड़ कर देखा- नाड़ी की गति धीमी-धीमी चल रही थी यानी वह व्यक्ति जीवित था। श्यामू ने बाहर कोने में रक्खी बाल्टी से पानी लाकर उसके मुख पर छींटे डाले। वह व्यक्ति कराहते हुए होश में आया तो उसने उठने की कोशिश की। अचानक वह दर्द से चीखते हुए वहीं पर लुढ़क गया। उसके पैर की हड्डी टूट गई लगती थी। बड़ी विकट समस्या थी उसके सामने। एक वृद्ध दम्पति घायल, असहाय अवस्था में उसके सामने पड़े थे। उसने बिना समय गँवाये पहले इस दम्पति की सहायता करने का निश्चय किया। उसने बाहर निकल कर किसी को सहायता के लिये बुलाना चाहा पर दूर-दूर तक किसी मनुष्य का नामो-निशान न था। बुढ़िया बोली-

"बेटा, यहाँ कोई नहीं मिलेगा। तुसने घर के बाहर एक बैलगाड़ी खड़ी देखी होगी। ओसारे में बैल सानी खा रहे हैं। यहाँ से एक मील पर अस्पताल है। यदि तुम हमें वहाँ पहुँचा दो। हम लोग अकेले हैं।"

श्यामू ने चारों ओर घूम कर देखा तो पीछे कुछ दूर पर बैल सानी खाते दिखाई दिये। उसने शीघ्रता से बैलों को लाकर बैल गाड़ी में जोत दिया। इसके बाद किसी तरह से उस घायल व्यक्ति को लाकर बैलगाड़ी पर लिटाया। वह स्त्री भी लंगड़ाते हुए आकर साथ में बैठ गई। बोली-

"बेटा, ईश्वर ने तुम्हें हमारी सहायता को भेज दिया। हमारा इस दुनिया में भगवान के सिवाय कोई नहीं है। तुम बड़े मौके पर आ गये। भगवान तुम्हारा भला करे।"

श्यामू बैलगाड़ी चलाना जानता नहीं था पर उसने पिता जी को बैलगाड़ी चलाते देखा था। उसने कोशिश की तो बैलगाड़ी चल पड़ी। जानवर भी समझदार होते हैं और अपने मालिक को प्यार करते हैं। बैल स्वयं ही अस्पताल की दिशा में तेज़ी से चल पड़े। अस्पताल पहुँचने पर दर्द से मूर्छित व्यक्ति को वहाँ आये कुछ लोगों की सहायता से उठा कर डॉक्टर के पास ले जाया गया। सौभाग्यवश डॉक्टर साहब अभी अस्पताल में मौजूद थे। उन्होंने वृद्धा की मरहम-पट्टी करवा दी और दर्द निवारक दवा दे दी परन्तु वृद्ध की हालत गम्भीर थी। उसके पैर में हड्डी टूट गई थी। उसके इलाज के लिये कुछ सामान बाज़ार से लाने के लिये डौक्टर ने पर्चा बना कर दे दिया। बुढ़िया के पास केवल सौ रुपये थे। वह एक क्षण सोचता रहा फिर बुढ़िया से बिना पैसे लिये दवा की दुकान पर चल दिया। दवाई की दुकान पर पर्चे का सारा सामान हज़ार रुपये का था। उसे समझ में न आया कि क्या करे फिर उसने दुकानदार से बात की। दुकानदार भला आदमी था और उस वृद्ध दम्पति के मृदु व्यवहार से बहुत प्रभावित था। उसने बिना पैसे लिये सारा सामान उधार दे दिया।

डौक्टर ने कहा-

"वृद्ध को दवा देकर कुछ दिन अस्पताल में रुकना पड़ेगा। सूजन पटकने के बाद ही प्लास्टर होगा तब घर ले जा सकते हैं। वृद्धा इस हालत में नहीं थी कि वह पति की सेवा कर सके। उसकी दशा और कातर मुद्रा देख कर श्यामू से रहा न गया। वह बोला-

"माता जी आप चिन्ता न करें। मैं चाचा जी का प्लास्टर बँधवा कर ही घर जाऊँगा।"

बुढ़िया को अपने बैलों का ध्यान आ गया, बोली-

"बेटा, बैल भूखे होंगे। उनको घास के मैदान में बाँध दो। वे घास चर कर पेट भर लेंगे। बैलगाड़ी पर चादर बिछी है जिसके नीचे लम्बी रस्सी रक्खी है। उसी से बैलों को बाँध देना।"

"ठीक है," - कह कर श्यामू बैलों को बाँधने चला गया। अब उसने सोचा कि अस्पताल में रुकने और खाने-पीने की व्यवस्था करनी होगी। वहाँ के वार्ड ब्वॉय ने कुछ पैसे लेकर भोजन की व्यवस्था करने का वादा कर दिया। रात में मरीज़ों के वार्ड में खाली पलंगों पर सोने की व्यवस्था हो गई। जब अस्पताल के कर्मचारियों ने देखा कि श्यामू उस वृद्ध दम्पति को न जानते हुए भी उनकी इतनी सेवा कर रहा है तो वे लोग भी उन लोगों की यथासंभव सहायता करने लगे। संगति का असर तो पड़ता ही है।

श्यामू को वृद्ध दम्पति को सुस्थिर करने में पन्द्रह दिन लग गये। जब वृद्धा ठीक से चलने फिरने और अपने पति की सेवा करने लायक हो गई तो उसने वृद्धा से कहा-

"माताजी! आप अब ठीक हो गई हैं और चाचा जी का ख्याल रख सकती हैं अतः अब मैं चलूँ।"

बुढ़िया श्यामू की सेवा और संस्कारों से बहुत प्रभावित थी। उसने बड़े स्नेह से पूछा-

"तुमने हमारी इतनी लगन से सेवा की है जैसे शायद मेरा सगा बेटा भी न करता। तुम कहाँ जा रहे हो?"

श्यामू ने बताया कि कैसे वह पिताजी के कहने से व्यापार करने निकला है। एक वर्ष के बाद उसे पिताजी को कमाई करके दिखानी है। बुढ़िया कुछ देर सोचती रही फिर बोली-

"बेटा! मैं एक प्रस्ताव तुम्हारे सामने रख रही हूँ। यहाँ से कुछ दूर बाज़ार है वहीं पर हमारी गल्ले की दूकान है। मेरे पति अभी दूकान पर जाने लायक नहीं हैं। एक नौकर उस पर काम करता है। यदि मेरे पति की अनुपस्थिति में दूकान तुम सम्हाल लो तो जो लाभ होगा उसमें आधा-आधा कर लेंगे।"

श्यामू कुछ देर सोचता रहा और फिर बोला-

"माता जी, आपका प्रस्ताव तो अच्छा है पर मुझे अभी दुकान चलाने का अनुभव नहीं है। ऐसा न हो कि आपका नुक्सान हो जाये।"

बुढ़िया श्यामू की ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुई, बोली-

"अच्छा शुरू में दो महीने मैं थोड़ी देर तुम्हारे साथ दुकान पर चलकर तुम्हें काम समझा दूँगी। तब तक मैं तुम्हें पाँच सौ रुपया जेब खर्च दे दूँगी। इसके बाद जब तुम काम समझ जाओगे तो मुनाफ़े में आधा-आधा कर लेंगे।"

श्यामू दुकान पर काम करने लगा। एक माह पूरा होने पर बुढ़िया ने उसे पाँच सौ रुपये दे दिये। अचानक उसे याद आया कि वह दवा की दुकान से उधार दवा लाया था। उसके पास तीन सौ रुपये पहले के बचे थे और पाँच सौ ये मिला कर उसने दवा की दुकान पर जमा कर दिये और बाकी दो सौ अगले माह देने का वादा करके चला आया। बुढ़िया के ममतापूर्ण व्यवहार ने उसे वृद्ध के इलाज के लिये खर्च किये गये रुपयों को माँगने नहीं दिया। उसे पता था कि बदमाश उन लोगों का पूरा धन छीन ले गये थे। वह बुढ़िया की दुकान पर खूब लगन से काम करने लगा। दुकान चलाते-चलाते उसे मोल-भाव करने के गुर आ गये थे। एक दिन एक आदमी अपनी बकरी बेचने के लिये बाज़ार में लाया। उसे पैसे की बहुत ज़रूरत थी। श्यामू ने उसे दो सौ रुपये का अनाज देकर बकरी खरीद ली। थोड़ी देर के बाद एक आदमी वहाँ आया और बकरी को देख कर पूछने लगा-

"मेरा बच्चा बीमार है उसे बकरी का दूध देने को कहा गया है। मेरे पास एक छोटी सी गाय है, दूध देती है। मैं दोनों जानवर नहीं रख सकता। तुम मेरी गाय ले लो और बकरी मुझे दे दो। गाय बकरी से मंहगी ही है।"

श्यामू को उसके ऊपर तरस आ गया और उसने उससे गाय ले कर बकरी उसे दे दी। उसने गाय नौकर को दी और कहा कि इस गाय को तुम अपने पास रक्खो और इसके चारे का खर्च तुम उठाओ। इसके बदले एक वक्त का दूध तुम लेना और दूसरे वक्त का दूध घर पहुँचा देना। बुढ़िया इस प्रबन्ध से बहुत प्रसन्न हुई। एक तो शुद्ध दूध मिलने लगा और बाज़ार से दूध खरीदने के पैसे बच गये। उसने खुश होकर दूध खरीदने के जितने पैसे बचे उतने श्यामू के खाते में जमा कर दिये।

श्यामू के मन में विचार आया कि मैं बाज़ार में दूकान को देख ही रहा हूँ, यदि जानवरों का व्यवसाय करना प्रारम्भ कर दूँ तो अधिक धन कमा सकता हूँ। इस विचार से उसने अपने खाते से धन निकाल कर गाय आदि खरीदना व बेचना प्रारम्भ कर दिया। जल्दी घर जाने के विचार से दूर से आये व्यक्ति अपने जानवर कुछ कम मूल्य पर बेच देते थे। श्यामू उन्हें खरीद लेता और अधिक दाम पर उन्हें बेच देता था। इस कार्य में दूकान पर काम करने वाले नौकर की पत्नी उसकी सहायता करती थी। इसके बदले में वह हर खरीद-फ़रोख्त पर उसे भी कुछ धन राशि देता था। यह व्यवसाय काफ़ी तेज़ी से चल निकला। उसे पता ही नहीं चला कि कब साल भर कासमय पूरा होने आ गया।

वृद्ध बिल्कुल ठीक हो जाने पर भी अभी दूकान पर नहीं जाते थे। श्यामू ने उनको दूकान का पूरा हिसाब दिया। साथ ही जानवरों का जो व्यवसाय किया था उसमें से भी उनके हिस्से का आधा धन उन्हें सौंप कर अपने घर जाने की आज्ञा माँगी। बुड्ढे एवं बुढ़िया श्यामू की सेवा और ईमानदारी से इतने प्रभावित थे कि उसके जाने की बात सुनकर बहुत दुःखी हो गये। उनकी अपनी कोई औलाद नहीं थी अतः उन्होंने अपने खानदानी ज़ेवर जो सौभाग्यवश बदमाशों द्वारा लुटने से बच गये थे चलते समय श्यामू को सौंप दिये और कहा-

"बेटा! तुमने हमारी सेवा सगे बेटे जैसे की है। हमारा क्या भरोसा कब आँख मिच जायें। तुमने हमें औलाद का सुख दिया है। जब तुम्हारा विवाह हो तो हमें ज़रूर बुलाना। ये ज़ेवर तुम्हारी होने वाली दुल्हन के लिये है। कभी-कभी हमारे पास मिलने के लिये आते रहना। आज से यह घर भी तुम्हारा है।"

श्यामू ने उन लोगों के चरण छूकर, आते रहने का वादा करके विदा ली। अपने पिता जी के पास पहुँचने पर जब उसने अपना पूरा हाल सुनाया तो किसान उससे बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने तीनों बेटों से कहा-

"तुम तीनों में श्यामू ही सबसे भला, मेहनती और योग्य है अतः मेरे न रहने पर मेरी अचल सम्पत्ति का अधिकारी भी वही बनेगा।"

ईमानदारी का फल मीठा होता है।’

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