आरती

अमिताभ वर्मा (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

पहला दृश्य


(किसी फ़्लाई ओवर के नीचे का अन्तिम, धूल-भरा, सिरा। दूर लगी स्ट्रीट-लाइट्स का हल्का-हल्का प्रकाश आ रहा है। अधेड़ अम्र के उस्ताद के अतिरिक्त अन्य पात्र बच्चे अथवा किशोर हैं।)

 

उस्तादः 

आओ मेरी चवन्नियो, अठन्नियो, दुअन्नियो, खोटे सिक्को, आओ, जल्दी आओ! ... आक् थू! ... क्या लाया बे तू, मैले?

मैलाः 

यह, उस्ताद! तेंतालिस रुपए की चिल्लर (पैसे खनकते हैं), दो-दो रुपए के यह तीन नोट, एक रुपए का (खाँसता है) ... आक् थू ... एक रुपए का यह एक नोट, और बीस रुपए का यह एक नोट! पूरे इकहत्तर रुपए! सूँघ कर देखो, कैसी ख़ुश्बू मार रहा है भमक-भमक यह बीस रुपए का नोट!

उस्तादः 

हाँ, ख़ुश्बू तो है! किसकी पॉकेट से निकाला?

मैलाः 

पॉकेट से नहीं निकाला उस्ताद, पॉकेट से नहीं निकाला! गली में एक मेम साहब जा रही थी। बस, उस के सामने खड़ा हो गया। उसने दाएँ-बाएँ से निकलने की कोशिश की, लेकिन मैं गली (खाँसता है़) ... आक् थू ... मैं गली में बीचों-बीच खड़ा था। मेम साहब बड़ी चालाक बन रही थी। सोचा होगा कि मुझे धकेल के आगे बढ़ जाएगी। लेकिन (हँसता है़) जैसे ही पास आई, बदबू से परेशान हो गई। अंग्रेज़ी में बड़बड़ाने लगी। बेचारी की हालत देखने लायक थी! फटाक से पर्स खोल कर पाँच रुपया देने लगी। मैंने भी अंग्रेज़ी में कहा, "प्लीज़ गिव मोर, मदर डेड!"   

उस्तादः 

अच्छा किया! पॉकेटमारी में ख़तरा है। भीख माँगने का धंधा ईमानदारी का है! पैसा कम है, लेकिन, बच्चा देख कर लोग रहम से दे देते हैं। ले ... (खाँसता है) ... बीड़ी पी! ... अबे एक सुट्टा लगाने को कहा था, पूरी बीड़ी धौंकने को नहीं कहा था! और थोड़ी दूर बैठ। ऐसी बास आती है तुझसे कि सूअर भी खाना उलट दे! क्यों बे ढैंचे, तू क्या लाया? 

ढैंचाः 

उस्ताद, आज तो अच्छी कमाई हुई है!

उस्तादः 

अरे तो उतर न अपनी इस काठ की गाड़ी से! 

(ढैंचा खिसक-खिसक कर गाड़ी से उतरता है तो गाड़ी खटर-पटर करती इधर-उधर होने लगती है। गाड़ी पर पड़ी बोरी की चिल्लर खनखनाती है।)

ढैंचाः 

अठारह रुपए की चिल्लर बोरी के ऊपर है। नीचे सौ का एक, पचास के तीन, और दस के सात नोट ... और सत्ताइस रुपए की चिल्लर है। 

मैलाः 

तीन सौ पैंसठ रुपए! 

उस्तादः 

नज़र मत लगा मैले, मंदिर में मंगलवार को भी कमाई नहीं होगी, तो कब होगी?

मैलाः 

कल से मैं बैठूँगा मंदिर पर। ढैंचा कमाता भी ज़्यादा है और बढ़िया प्रसाद भी खाता है। हम गली में भूखे घूमते रहते हैं। (नक़ल मारते हुए) दे दे बाबा, दे दे धर्मी!  

उस्तादः 

चुप कर! तू कैसे बैठेगा मंदिर पर? ढैंचा सीनियर है। ... कल्लुआ नहीं आया? कहाँ है, देख तो! कहीं ठर्रा पीने तो नहीं बैठ गया?

मैलाः 

उस्ताद, पिछली बार कल्लू ने जब भीख के पैसे से ठर्रा पिया था, तो मार-मार कर (खाँसता है) ... आक् थू ... तो मार-मार कर तुमने उसका एक हाथ तोड़ दिया था। (हँसता है़) अब तो वह ठर्रा तभी पियेगा, जब उसे दूसरा हाथ भी तुड़वाना हो!

उस्तादः 

(हँसता है़) जब से हाथ टूट गया, भीख ज़्यादा मिलने लगी है उसे। 

मैलाः 

फिर? ... आ जाएगा कल्लुआ, फ़िक्र क्यों करते हो? 

ढैंचाः 

ए मैला! तू दूर जा कर बैठ। तुझसे बहुत बदबू आ रही है।

मैलाः 

और तू जो तीन ग़ज़ की कुचैली पाँव में बाँधे रखता है, उससे क्या इत्र महक रहा है सुबह वाली मेम जैसा? कीड़े पड़े हुए हैं तेरी इस कुचैली में। बीनता भी नहीं!

(नेपथ्य से कल्लू की पुकार: उस्ताद!)

उस्तादः 

(स्वगत) आ गया कल्लुआ! (पुकारते हुए) अबे पुल के तीसरे खंभे के पास आ! (स्वगत) वह रहा। यह साथ में किसको पकड़ कर ला रहा है? कोई छोकरा मालूम पड़ता है। अब समझ में आया कल्लुआ चिल्ला क्यों रहा है!

उस्तादः 

ए मैला, जल्दी भाग! देख, कल्लुआ शिकार ला रहा है, उसकी मदद कर।

मैलाः 

अभी लो उस्ताद! (जाते हुए) ... आक् थू ...

(नेपथ्य से ज़ोर-ज़ोर से साँस लेने, छटपटाते कदमों की आवाज़ आती है)   

कल्लू: 

(हाँफ़ते हुए) उस्ताद, शिकार लाया हूँ! तीन घंटे से स्टेशन के बाहर इधर-उधर कर रहा था। ढाबों के पास जा कर खड़ा हो जाता था, फिर लौट जाता था। मैं समझ गया। खाने का लालच दिया तो साथ आने लगा, लेकिन बड़ा चालाक है! पुल के पास सुनसान में आते ही छटपटाने लगा।

उस्तादः 

पहले-पहल सब ऐसा ही करते हैं। मैला भी तो ऐसे ही आया था! अब देखो, पहरा भी नहीं देना पड़ता, ख़ुद ही रात में हिसाब देता है। (शिकार से) क्यों रे, नाम क्या है तेरा?

(शिकार रोने लगता है।)

उस्ताद: 

(कड़ाई से) नाम बता! (थप्पड़ मारता है) बता नाम! (दोबारा थप्पड़ मारता है) बोल!

शंकर: 

शंकर।

स्तादः 

मार पड़ी तो बोली निकलने लगी? मार के आगे बड़े-बड़ों की ज़बान तोते जैसी चलती है, तू चीज़ क्या है?

ढैंचाः 

उस्ताद, यह तो थानेदार ने तुम्हें पीटते समय कहा था!

उस्तादः 

चुप कर बे ढैंचे, वरना दूसरी टाँग भी ककड़ी की तरह तोड़ डालूँगा!

मैलाः 

तो कमाई और बढ़ जाएगी उस्ताद!

(मैला, कल्लू और उस्ताद हँसते हैं।)

उस्ताद: 

(कड़ाई से) हाँ बे शंकर, यहाँ कैसे आया? स्टेशन पर क्या कर रहा था?

शंकर: 

चाचा के साथ गाँव जा रहा था। चाचा बोले, यहाँ गाड़ी बदलनी है। दूसरी गाड़ी में बड़ी भीड़ थी। (रोता है) चाचा बोले, हाथ पकड़े रहो। ... लेकिन धक्का-मुक्की में हाथ छूट गया। ... चाचा गाड़ी में अंदर घुस गए, भीड़ के ज़ोर में मैं बाहर रह गया। (फूट-फूट कर रोता है) मुझे घर जाना है।

उस्तादः 

घर कहाँ है तेरा?

शंकर: 

(रोते हुए) गाँव में।

उस्तादः 

अबे छोकरे, मेरी खुपड़िया घूम गई तो बहुत पछताएगा! क्या नाम है तेरे गाँव का?

शंकर: 

चकनी।

उस्तादः 

बाप क्या करता है तेरा?

शंकर: 

कुछ नहीं करता। पिछले साल उसकी आँखें चली गईं।

मैलाः 

तो उसको भी ले आ उस्ताद के पास, खूब कमाएगा।

(शंकर के सिवाय सब हँसते हैं।)

उस्तादः 

और चाचा क्या करता है? 

शंकर: 

खेत जोतता है।

उस्तादः 

(थप्पड़ मार कर) खेत जोतता है! नाली के कीड़े, हमको सिखाता है? तेरा चाचा यहाँ शहर में खेत जोतता है?

शंकर: 

(रोते हुए) चाचा मेरी माँ का इलाज कराने यहाँ बड़े अस्पताल आया था। मुझे अस्पताल में घुसने नहीं दिया। कल सुबह नर्स बोली, माँ तो रात में ही मर गई .... (सुबकने लगता है)

उस्तादः 

कोई है तेरा यहाँ?

शंकर: 

कोई नहीं। 

उस्तादः 

तेरा गाँव चकनी कितनी दूर है?

शंकर: 

रेल से आने में दो दिन लगते हैं।

उस्तादः 

हूँ! शिकार ठीक लाता है तू कल्लुआ! 

कल्लूः 

इसको मेरे साथ रखोगे उस्ताद?

उस्तादः 

बेवक़ूफ़ों जैसी बात मत करो। अगर किसी ने आज देख लिया होगा, तो दोनों धरे जाओगे! मेरा तो धंधा ही ऐसा है कि अपने साथ नहीं रख सकता। तू, मैला ... 

मैलाः 

हाँ उस्ताद, इसे मेरे साथ लगा दो।

उस्तादः 

नहीं, तू बहुत चंट है कमीने! और अभी कच्चा भी है। यह होशियारी का काम है। बहुत लोगों को सँभालना पड़ सकता है। ढैंचा, तू कल इसको अपने पास रख। तब तक मैं गंगू उस्ताद से बात कर लूँगा। पिछली बार उसने दो हज़ार रुपए दिए थे। यह सुंदर है, गोरा भी है। शायद तीन हज़ार रुपए दे दे। उसे दिखा दूँगा कल मंदिर में ही। आज इसे अपने पास सुला। होशियार रहना। चल कल्लू, बीड़ी दे!

 

दूसरा दृश्य

 

(मन्दिर को जाती सड़क और सीढ़ियाँ। रह-रह कर घण्टे बजते हैं। कभी-कभी शंख ध्वनि भी सुनाई पड़ती है। फूलवालों, फलवालों की आवाज़ भी रह-रह कर सुनाई देती है। ये इफ़ेक्ट्स अंत तक जारी रहते हैं।)

ढैंचाः 

देख शंकर। ये भी शंकर का ही मंदिर है। भोले बाबा का। तेरी माँ मर गई। चाचा हाथ छुड़ा कर भाग गया। बाप लाचार है। गाँव के नाम के सिवाय तुझे कुछ मालूम नहीं। यहाँ तू किसी को जानता नहीं। ऐसे में अगर कहीं भागने की कोशिश की, तो पता नहीं किसके हाथ लग जाएगा तू, क्या जाने क्या कर डाले वह तेरा? कल स्टेशन के ढाबों के बाहर तीन घंटा भूखे रह कर ये तो देख ही लिया तूने, कि यहाँ दया-माया कुछ नहीं है। आदमी दान भी देता है तो दूसरे की मदद करने के लिए नहीं, अपना परलोक सुधारने के लिए। समझ रहा है?

शंकर: 

हाँ!

ढैंचाः 

और सुन! अपना उस्ताद इतना बुरा भी नहीं है। जानता है, उस्ताद चाहे तो तुझे बीस हज़ार रुपयों में ऐसे राक्षसों के हाथ बेच सकता है, जो तेरे शरीर का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा अलग कर एक-एक लाख रुपए में बेच दें। तुझे जीते जी लाश बना दें। जब तक तू हमारे पास है, उस्ताद तेरी हिफ़ाज़त करेगा। लेकिन अगर तू उन लोगों के हत्थे चढ़ गया, तो उस्ताद भी कुछ नहीं कर पाएगा। अपना भला-बुरा सोचना तेरा काम है। मैं तेरी रखवाली नहीं करूँगा। ज़िन्दा रहना है तो हमारे पास रह, कुत्ते की मौत मरना है, तो भाग जा। बोल, भागेगा?

शंकर: 

नहीं।

ढैंचाः 

समझदार है तू! और सुन, किसी दूसरे भिखारी की जगह मत खड़े हो जाना। यहाँ सब की जगह बँटी हुई है। मेरी जगह इस सीढ़ी पर है, यहाँ। उस्ताद इसके पैसे देता है। (हँसता है) भीख देने वालों को अगर यह पता चल जाय कि उनकी भीख कहाँ तक पहुँचती है और उससे क्या-क्या होता है, तो ... ख़ैर! मेरी बगल में बैठ जा, यह, इधर। (भीख माँगने लगता है) बाबूजी, लाचार बच्चे को दे दो। भगवान तुम्हें देगा। 

(एक औरत कटोरे में पैसा गिराती है।)

शंकर: 

एक रुपया मिला! इससे नींबू पानी पी लूँ?

ढैंचाः 

नहीं, यह पैसा ख़र्च करने के लिए नहीं होता। इसे रात में उस्ताद को देना पड़ता है। उस्ताद को अगर शक़ हो गया कि इस पैसे में ज़रा भी इधर-उधर हुई है, तो बड़ा बुरा हाल करेगा! (भीख माँगने लगता है) माँ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी, लाचार को दो रुपए दे दो माँ! (शंकर से) ले, केला दिया बुढ़िया ने! खा ले।

शंकर: 

(केला खाते-खाते) शहर में कैसा गला हुआ केला मिलता है!

ढैंचा: 

(हँसते हुए) शहर में गाँव से अच्छा केला मिलता है, लेकिन जब दान में ही देना है, तो अच्छावाला क्यों दो? गले केले सस्ते में मिल गए होंगे बुढ़िया को!

शंकर: 

तुम्हारा नाम कितना अजीब है−'ढैंचा'! 

ढैंचा: 

(हँसते हुए) मेरा नाम ढैंचा नहीं है।

शंकर: 

(अचरज से) तुम्हारा नाम ढैंचा नहीं है?

ढैंचाः 

नहीं! मेरा नाम ढैंचा नहीं है। मेरा नाम है धीरज। 

शंकर: 

तो ... तो सब तुम्हें ढैंचा-ढैंचा क्यों पुकारते हैं?

ढैंचाः 

मैं लावारिस हूँ। न बाप का पता, न माँ का। ऊपर से बचपन से ही एक पैर कमज़ोर था। अनाथाश्रम में पला। आश्रम क्या था, जेल था! बल्कि जेल से भी बदतर! सारे कुकर्म होते थे वहाँ। उस्ताद की जान-पहचान थी वहाँ। पता नहीं कैसे उसने मुझे बाहर निकलवा लिया। चार साल की उम्र में हाथ में यह भीख का कटोरा थमा दिया, और यह नाम दे दिया, ढैंचा। अब तो आठ साल बीत गए।

शंकर: 

तो क्या सारे भिखारियों के नाम बदल दिए जाते हैं?

ढैंचाः 

जिनसे ज़बर्दस्ती भीख मँगवाई जाती है उनके नाम ज़रूर बदल दिए जाते हैं, ताकि पहचान न हो सके।

शंकर: 

तुमने कभी भागने की कोशिश नहीं की?

ढैंचाः 

की थी। लेकिन मुझे क्या मालूम था कि पानवाले से ले कर पानीवाले तक उस्ताद के गुर्गे हर जगह, हर रूप में हैं। मुझे आधे घंटे के अंदर पकड़ कर उस्ताद के सामने पेश कर दिया गया। यह बोरी देख रहे हो? उस्ताद ने यह बोरी मेरी कमज़ोर टाँग पर रखी, और लोहे के रॉड से ...

शंकर: 

... बस-बस-बस-बस, आगे मत बोलो, आगे मत बोलो!

ढैंचाः 

आज तक मेरी टाँग में दर्द होता है। इसमें अब तक ज़ख़्म हैं। लोगों को उनकी टाँगें सँभालती हैं, मुझे अपनी टाँग सँभालनी पड़ती है।    

शंकर: 

उस्ताद इलाज नहीं करवाता? 

ढैंचाः 

इलाज? इलाज करवाने से अगर मेरी टाँग ठीक हो गई तो? भीख मिलना कम नहीं हो जाएगा? भीख तो उन्हें ही ज़्यादा मिलती है जो लाचार हों। इसी चक्कर में महीने-दो-महीने के बच्चों को अफ़ीम चटा कर औरतें चौराहों पर भीख माँगती हैं। लोग बच्चे को बुरी तरह बीमार समझ कर भीख दे देते हैं। उन्हें क्या मालूम कि बच्चा बीमार नहीं है, अफ़ीम की पीनक में मदहोश है ... (घबरा कर) ... अरे, तुझसे बात करने में भीख माँगना तो भूल ही गया! कमाई कम हुई, तो उस्ताद बहुत धुलाई करेगा। देख, वह औरत रिक्शे से उतर रही है। भाग कर जा उसके पास और माँग। 

शंकर: 

लेकिन तुमने तो इधर-उधर जाने से मना किया था! कहते थे कि हर भिखारी की जगह बँटी हुई है।

ढैंचाः 

अरे, भिखारी क्या कर लेंगे? झगड़ेंगे ही न? मैं सँभाल लूँगा उन्हें। लेकिन उस्ताद की मार खाने से तो बच जाएँगे! जा, जल्दी जा!

शंकर: 

अच्छा, जाता हूँ। (मज़े से) एक सीढ़ी - दो सीढ़ी - तीन सीढ़ी - चार सीढ़ी ... (हाँफ़ता है) ... ये हुई अंतिम सीढ़ी। (स्वगत) अरे, ये अम्मा जी तो अब तक रिक्शे से उतर ही नहीं पाईं! कितनी उजली साड़ी पहनी है इन्होंने! वह काली पैंट सफ़ेद कमीज़ में उनका लड़का है शायद। वह तो पहले ही उतर गया है और अम्मा जी उसे डोलची थमा रही हैं। 

अजीतः 

सँभल के उतरो माँ, देखो, साड़ी फँस रही है!

माँ: 

यह रिक्शा बड़ा बेढब है! थोड़ा सहारा दे अजीत। (उतरती है) अँ ... हाँ ... बाप रे, रिक्शा की सवारी न हुई, घोड़े की सवारी हो गई! लो, भैया रिक्शावाले।

अजीतः 

मैं दे रहा हूँ माँ! यह लो, पाँच रुपए!

रिक्शावालाः 

साहब, कुछ और दे दीजिए!

माँ: 

क्यों, पाँच रुपए ही तो होते हैं?

रिक्शावालाः 

अब माई, होते तो पाँच ही रुपए हैं, लेकिन आप कुछ दे देंगे तो ग़रीब का घर चल जाएगा। 

अजीतः 

ठीक है, ठीक है, यह लो दो रुपए और लो! ख़ुश?

रिक्शावाला: 

(ख़ुशी से) जी, मालिक!

माँ: 

वाह, कितना भव्य मंदिर है!

अजीतः 

हाँ, बड़ा ही सुन्दर! लेकिन इसमें सीढ़ियाँ बहुत हैं, और हर सीढ़ी की दोनों तरफ़ भिखारियों का जमावड़ा है। 

माँ: 

बेटा, डोलची सँभाल कर सीढ़ियाँ चढ़ना। हर भिखारी को पूरी देनी है। तभी मेरा व्रत पूरा होगा।

शंकर: 

अम्माजी, मैं ले चलूँ आपकी डोलची?

माँ: 

नहीं, तू कहीं डोलची ले कर भाग गया तो?

अजीतः 

इसे डोलची उठाने दो न माँ! हम साथ में तो हैं, भागेगा कैसे? ले, पकड़! अरे ऐसे नहीं, सँभाल कर, हाँ, ऐसे!

माँ: 

आगे-आगे चल हमारे! (पहले भिखारी से) लो भैया, पूरी!

भिखारी 1: 

पूरी नहीं चाहिए माताजी, दो रुपए दे दो! 
माँ: 

अजीत बेटा, दे दे इसको एक रुपया। (अगले भिखारी से) लो भैया, तुम तो पूरी लोगे?

भिखारी 2: 

माताजी, प्रसाद से हमारा पेट पहले ही भरा है। पाँच रुपए दे दो!

माँ: 

अच्छा! अजीत बेटा, इसको भी दे दे एक रुपया! (अगले भिखारी से) लो भैया, पूरी लो!
 भिखारी 3: 

माताजी, लगता है बात तुम्हारी समझ में नहीं आई! यहाँ कोई भिखारी तुम्हारी पूरियों का भूखा नहीं है! लेगा भी तो कुत्ते को खिला देगा।

माँ:

हाय राम!

भिखारी 3: 

ठीक कहता हूँ! पैसा है तो दो, वरना टाइम खोटी मत करो!

माँ: 

(रुँआसी होकर) हे भगवान, ये भिखारी हैं या व्यापारी? अब मेरा व्रत कैसे पूरा होगा?

अजीतः 

माँ, न तो ये भिखारी हैं न व्यापारी! ये दलाल हैं, एजेंट हैं ख़ौफ़नाक माफ़िया के! इन्हें दया में दी गई भीख के ये पैसे धार्मिक कामों में ख़र्च नहीं होते! तुम्हारी दया का यह दान काला पैसा बन जाता है, और हर काली हरक़त में इस्तेमाल होता है। नशीली दवाइयों की तस्करी, अंगों का व्यापार, शरीर के सौदे ... अरे कौन-सा जुर्म नहीं करते भीख के पैसों के ये अमीर? भीख के कैंसर की आँच में अपनी रोटी सेंकते हैं ये! और तुम्हारे जैसे भोले-भाले लोग इतनी-सी बात भी समझ नहीं पाते।

शंकर: 

वह देखो, उस्ताद, और उसके साथ उसका भी उस्ताद! वह मुझे ख़रीदने आया है। कितने ही बच्चों के हाथ-पैर तोड़ कर उनसे भीख मँगवाता है। वह जो बच्चा काठ की गाड़ी पर बैठा है ऊपर सीढ़ी पर, उसका पैर भी इसी ने तोड़ा है। (डर से चिल्लाता है) उसने मुझे देख लिया। अब मेरे हाथ-पैर भी तोड़ डालेगा। बचाओ! बचाओ! 

(भीड़ जमा हो जाती है। लोग "क्या है," "कौन है," "बच्चा चुरा रहे थे," "बच्चा चोर," "मारो-मारो" के शोर के साथ बदमाशों को घेरते हैं। तभी एक पुलिसवाला आ जाता है।)

माँ: 

चलो, दोनों बदमाशों को तो ले गई पुलिस।

अजीतः 

सब भिखारी भी भाग गए।

शंकर: 

सिवाय मेरी काठ की गाड़ी वाले दोस्त के! अम्माजी, हमें पूरी दोगी न? (पुकार कर) नीचे आ, पूरियाँ खाते हैं! दोगी न पूरियाँ, अम्माजी?

माँ: 

नहीं!

अजीत, शंकर: 

क्यों?

माँ: 

क्योंकि ये भिखारियों को दान में देने के लिए हैं, और तुम जैसे बच्चे दान के नहीं, स्नेह के पात्र हो!

शंकर: 

अम्माजी!

(आरती की आवाज़)

अजीतः 

माँ, आरती होने लगी, चलो!

माँ: 

चलो, सब आरती देखने चलें!

(तीनों मन्दिर की तरफ़ बढ़ते हैं।)

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