वह अब भी ढो रही है
डॉ. कविता भट्टअस्थियों के कंकाल शरीर को
वह आहें भर, अब भी ढो रही है,
जब अटूट श्वासों की उष्णता,
जीवन की परिभाषा खो रही है।
अब भी पल्लू सिर पर रखे हुए,
आडम्बर के संस्कारों में जीवन डुबो रही है।
क्या लौहनिर्मित है यह सिर या कमर?
जिस पर पहाड़ी नारी पशुवत् बोझे ढो रही है।
जहाँ मानवाधिकार तक नहीं प्राप्य
वहाँ महिला–अधिकारों की बात हो रही है।
इस लोकतन्त्र पंचायतराज में वह अब भी,
वास्तविक प्रधान–हस्ताक्षर की बाट जोह रही है।
नशे में झूम रहा है पुरुषत्व किन्तु,
ठेकों को बन्द करने के सपने सँजो रही है।
कहीं तो सवेरा होगा इस आस में,
रात का अँधियारा अश्रुओं से धो रही है।
पशुवत् पुरुषत्व की प्रताड़नाएँ,
ममतामयी फिर भी परम्परा ढो रही है।
पत्थर–मिट्टी के छप्पर जैसे घर में,
धुएँ में घुटी, खेतों में खपकर मिट्टी हो रही है।
शहरी संवर्ग का प्रश्न नहीं,
पीड़ा ग्रामीण अँचलों को हो रही है
वातानुकूलित कक्षों की वार्ताएँ–निरर्थक, निष्फल,
यहाँ पहाड़ी–ग्रामीण महिलाओं की चर्चा हो रही है।
एक ओर महिलाओं की बुलन्दियों के झण्डे गड़े हैं,
दूसरी ओर महिला स्वतन्त्रता बैसाखियाँ सँजो रही है।
1 टिप्पणियाँ
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Mam me phado se nhi hu....to mujhe wha ke bare me jyada nhi pta.......per yha bhi esa hi kuch h......ye sab jgha ki ladies ki aakho ka pani h.....osam mam
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