तू शंकर मेरा
डॉ. कविता भट्टतम था, विरह था, विवशताएँ थी,
सोचा था जीवन अमावस हुआ।
बरसों से मन में रखा था छिपाकर,
अब जाके कहने का साहस हुआ।
तेरे नैनो की गंगा में डुबकी लगाकर,
काया कंचन हुई, मन पारस हुआ।
हम पर थे ताने- कि भिक्षुक हैं हम,
तेरे दर पर झुक, जीवन राजस हुआ।
कुछ बूँदे ,जो निर्मल प्रेम की पा लीं,
अभिसिंचित हुए जेठ पावस हुआ।
मैं क्यों कुम्भ जाऊँ, क्यों गंगा नहाऊँ,
आज सवेरे ही तट से पग वापस हुआ।
पतित पावनी तो भीतर बहे है,
अद्भुत प्रेम गोते, आदर्श-मानस हुआ।
मुझे डूबना है, तैरना नहीं है,
अब पार जाने में भारी आलस हुआ।
सुनते थे, प्रेम वासना है तनों की ,
मेरा तन-मन तो प्रेम में तापस हुआ।
तेरा नाम जपते रहे हम निरंतर,
तू शंकर मेरा, घर पावन-बनारस हुआ।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अथाह प्रेम
- आँखें
- आँसू पीना ही पड़ता है
- आख़िरी बुज़ुर्ग
- उगने की प्रतीक्षा
- उन पाप के नोटों का क्या होगा?
- कामनाएँ
- किसी दिन तो
- जीवन (डॉ. कविता भट्ट)
- तुम आए
- तुम क्या जानो?
- तुम्हारा स्पर्श
- तू शंकर मेरा
- दीपक है मेरा प्यार
- पत्थर होती अहल्या
- पीड़ा (डॉ. कविता भट्ट)
- प्रणय-निवेदन
- फैलाओ अपनी बाँहें
- बूढ़ा पहाड़ी घर
- मन्दिर के दिये -सा
- माँ
- मिलन में भी
- मृगतृष्णा
- यदि तुम रहो प्रिय! साथ में
- वह अब भी ढो रही है
- वो धोती–पगड़ी वाला
- स्पर्श (डॉ. कविता भट्ट)
- हे प्रिय!
- हे प्रिय!
- ज़िंदगी
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-