पत्थर होती अहल्या
डॉ. कविता भट्टमदमस्त इंद्र
गौतम भी वैसा ही सशंकित क्रुद्ध
किन्तु, राम हो गया तटस्थ द्रष्टा
संभवतः ; स्पर्श करना भूल गया है
इसीलिए शिलाएँ अब
पुनः अहल्या नहीं बन पाती
टूटती-पिसती हैं
हो जाती हैं -धूल।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अथाह प्रेम
- आँखें
- आँसू पीना ही पड़ता है
- आख़िरी बुज़ुर्ग
- उगने की प्रतीक्षा
- उन पाप के नोटों का क्या होगा?
- कामनाएँ
- किसी दिन तो
- जीवन (डॉ. कविता भट्ट)
- तुम आए
- तुम क्या जानो?
- तुम्हारा स्पर्श
- तू शंकर मेरा
- दीपक है मेरा प्यार
- पत्थर होती अहल्या
- पीड़ा (डॉ. कविता भट्ट)
- प्रणय-निवेदन
- फैलाओ अपनी बाँहें
- बूढ़ा पहाड़ी घर
- मन्दिर के दिये -सा
- माँ
- मिलन में भी
- मृगतृष्णा
- यदि तुम रहो प्रिय! साथ में
- वह अब भी ढो रही है
- वो धोती–पगड़ी वाला
- स्पर्श (डॉ. कविता भट्ट)
- हे प्रिय!
- हे प्रिय!
- ज़िंदगी
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-