मन्दिर के दिये -सा
डॉ. कविता भट्टविदाई में तेरे चेहरे की सलवटें
मुझे सताए जैसे बेघर को गर्म लू।
तू रो न सका, मेरे आँसू न रुके,
पहाड़ी घाटी में उदास नदी-सा तू।
छोड़ रहा था चुन्नी, काँपते हाथों से,
सुना था, पुरुष लौह स्तम्भ हैं हूबहू।
तेरे मन के कोने मैंने भी रौशन किए,
मेरी नज़र में मन्दिर के दिये -सा तू।
चार क़दम में कई जीवन जी लिये,
अमरत्व को उन्मुख अब यौवन शुरू।
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