तुम्हारी याद में रो-रोकर पायजामा धो दिया

01-07-2022

तुम्हारी याद में रो-रोकर पायजामा धो दिया

अशोक परुथी 'मतवाला' (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

कविता शब्दों का हेर-फेर ही तो है! कुछ यही करते हुए ख़ुद को वरिष्ठ कवि कहने लगे हैं। वैसे, मैं जानना चाहता हूँ कितने साल बाद कवि वरिष्ठ हो जाता है या उसके पास किस यूनिवर्सिटी का डिप्लोमा होना चाहिए?

कुछ लिखारी आज भी फिसड्डी ही हैं। 

कुछ अभ्यास करते-करते बढ़िया हो गए हैं, कुछ अभी भी प्रयासरत हैं। 

आज मैं प्रयास करके देखूँ? 

“दुख सब हम भूले
ख़ुशनसीब हम, तुम मिले! 
तुम बनकर 'हमसफ़र' आना, 
यही है मेरी ईश्वर से प्रार्थना!” 
(मतवाला)

हम तो बचपन में भी ऐसी कविताएँ रोज़ ही करते थे:

“बड़े बड़े बाग़, छोटे-छोटे अनार, 
बड़ों को नमस्ते, छोटों को प्यार!”

शेरो-शायरी भी ख़ूब की, यहाँ तक के बसों में सफ़र करते हुए भी। कभी-कभी शेर भूल भी जाते थे तो कभी हिम्मत नहीं हारी! 

यह नमूना आपकी नज़र:

“शीशी भरी गुलाब की, पत्थर पे तोड़ दूँ
शीशी भरी गुलाब की, पत्थर पे तोड़ दूँ
शीशी भरी गुलाब की, पत्थर पे . . . 

“आगे क्या है”? एक सवारी के भभकने पर:

“शीशी भरी गुलाब की, पत्थर पे तोड़ दूँ
 . . . हर सवारी अपने समान की ख़ुद ज़िम्मेवार है!”

और तालियाँ पीटने वाले तालियाँ पीट देते थे! 

उन दिनों शेर की यह पंक्ति भी बहुत लोकप्रिय होती थी:

“रोशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं . . . ” इसकी दूसरी पंक्ति क्या होती थी, अल्लहा ताला ही जानें! 

एक और आशार याद आता है। अब इसकी पहली पंक्ति याद नहींं आ रही। 

ख़ैर, जब तक पहली पंक्ति याद आती है तब तक दूसरी पंक्ति सुन लीजिए! 

“सिहनी सोहनिये, नी तेरे वाल सोहने, तेरे वालां तों . . .। 
प्यार करण दा मज़ा तद आवे जदों तूं नर्स होवे ते मैं बीमार होवां!”

मेरे दौर में कुछ प्रीतो की गली के चक्कर काट-काट कर ‘लोफर’ बन गए। कईं प्रीतो के भाइयों से कुटापा खा-खाकर बावरे हो गए। कई विरह की आग में जल कर कविता लिखने और शायरी करने लगे। यह पंक्तियाँ आपको समर्पित:

“तुम्हारी याद में रो-रोकर पायजामा धो दिया
साबुन की बट्टी घिस घिसकर उसे भी खो दिया!”

फिर ताव में आ कर:

“तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा तो हमारा भी कुछ नहीं बिगड़ा, 
क्योंकि, हमारा पायजामा, तुम्हारे मुख-सा है निखड़ा!” 

अब क्या बताऊँ सच में हमने, बचपन से लेकर आज तक, कई गीतकारों के नग्मों की टाँगें और बाँहें मरोड़ी हैं। 

ख़ैर, छोड़ो, गर्मी है, लस्सी बनाकर रखना। रल्ल-मिल बैठ कर पिएँगे:

“रोटी पका कर रखना, लस्सी बनाकर रखना, 
खाएँगे हाँ गोरी, घर आके तेरे सज्जना!”

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