पिंजरे के बंद पंछी

24-12-2014

पिंजरे के बंद पंछी

अशोक परुथी 'मतवाला'

 "अस्मिता साहिबा! सलाम-अलेकुम, क्या आप नैनीताल से हैं?"

हिम्मत जुटाकर, अपनी काँपती उँगलियों से अकरम ने अस्मिता को 'फेस बुक' पर अपना पहला संदेश भेजा था। उसे कोई उम्मीद नहीं थी कि अस्मिता, उसे इतने लंबे अर्से के बाद अब अपना दोस्त भी स्वीकारेगी या फिर भेजे गए उसके संदेश का जवाब ही देगी। पिछले 22 वर्षों से वह अस्मिता को खोज रहा था। ‘ऑन लाइन’ ‘वेब साईट्ज़' के इलावा कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा था अकरम ने अस्मिता को ... और फिर, एक दिन अस्मिता उसे थोड़े से प्रयास के बाद "फ़ेस-बुक’ पर मिल जाएगी, उसने ऐसा कब सोचा था? उसे इस तथ्य पर बिलकुल भी यक़ीन नहीं हो रहा था।

अस्मिता अकरम का पहला प्यार थी। दो महीने बाद वह उसे ब्याह कर अपने घर भी लाने वाला था। वह उसकी मंगेतर थी। यह बात आज पूरे बाईस साल पुरानी है। लेकिन ख़ुदा को शायद यह रिश्ता मंज़ूर नहीं था और उसने उनकी तक़दीर में कुछ और ही लिखा था। इसी बीच अस्मिता के घर वालों ने उसकी शादी किसी दूसरे परिवार मैं पक्की करके अपनी ज़िम्मेवारी पूरी कर दी थी। दोनों की राहें जुदा हो गयीं थी।

अकरम ने अस्मिता से शादी करने से इन्कार तो नहीं किया था। उसने तो अस्मिता के अम्मी-अब्बू से सिर्फ़ एक साल और इंतज़ार करने की मोहलत माँगी थी । उसने उनसे अस्मिता के हाथ थामने की भीख माँगी थी और उससे शादी करने का अपना इरादा एक बार फिर दोहराया था। उनके पाँव भी पकड़े थे, उसने! दुर्भाग्यवश, वह उन्हें यक़ीन नहीं दिला पाया था कि वह अमेरिका जाना चाहता है और समय आने पर वह अस्मिता को भी अपने साथ ले जायेगा। उसने उन्हें यह बात बिल्कुल स्पष्ट बताई थी कि अगर वह आज की तारीख में अस्मिता से शादी कर लेता है तो उसकी विदेश जाने की श्रेणी बदल जाने के कारण उसे वहाँ जाने में बहुत वक़्त लग जाएगा। लेकिन, अकरम से बातचीत के बाद अस्मिता के अम्मी-अब्बू ने अकरम की बात को सुन-समझकर उसपर जितना भी यक़ीन किया था, उसके मुताबिक़ उन्होंने अपना फैसला ले लिया था। उन्होंने अपनी राय और फैसला भी अस्मिता से साँझा किया था- "अस्मिता बेटी देखो, हमारी बात को ज़रा ध्यान से सुनो..लड़का तबीयत का अच्छा है, पढ़ा लिखा है और अच्छे परिवार से उसका ताल्लुक़ भी है... और हम यह भी महसूस करते हैं और समझते हैं कि तुम अकरम से अपना रिश्ता जोड़ चुकी हो, लेकिन... यह सब ख़ुदा की मर्ज़ी है। हालातों को मद्देनज़र करते हुये हमें यह नहीं लग रहा कि यह निकाह मुमकिन है। सब मुकद्दर के खेल हैं, बेटा! अमेरिका जाने का बहाना करके लड़के वाले तेरे रिश्ते को ठुकरा रहे हैं।" इसके इलावा उन्होंने अस्मिता को कई अन्य तर्क भी दिए थे।

यह सुनकर जैसे अस्मिता के सिर पर बिजली गिर गई थी। अपने अम्मी-अब्बू के सामने उसकी इतनी हिम्मत कहाँ हुई थी जो अपने मन की बात वह उनसे कह पाती। रो-धोकर औंधे मुँह पड़ने के इलावा अस्मिता और कुछ कर भी सकती थी तो क्या?

'फेसबुक' पर संदेश पढ़ते ही अस्मिता ने तुरंत अपना जवाब भेज दिया था, "हाँ, मैं नैनीताल से ही हूँ, वालेकुम-सलाम,.अली साहिब! कैसे मिज़ाज़ हैं, आपके?"

"आप की ज़र्रा-नवाज़ी है!" अकरम ने ‘फेसबुक’ संदेश बक्से में अपने जवाब में टाइप कर दिया था।

इस तरह अकरम ने अस्मिता को बाईस सालों के लंबे अर्से के बाद ढूँढ निकाला था। उसे ऐसे लगा जैसे अस्मिता के मिलने से उसकी वीरान ज़िंदगी में एक बार फिर से बहार आ गयी है। उसे लगा जैसे उसे अपना खोया हुआ सारा जहां मिल गया हो।

जवाबा देते हुए अपने संदेश में अकरम ने फिर लिखा, "साहिबा, कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा आपको, इस दौरान? बहुत तड़पा हूँ मैं! आपसे एक बार मिलकर आमने-सामने बात करने और आपको देखने के लिए! ढूँढते-ढूँढते जब मैं एक दिन थक गया तो निराश होकर मैंने तारों और सितारों से भी तुम्हारा पता-ठिकाना पूछा था लेकिन उन्होंने भी कब कोई जवाब दिया था। पूरे अढ़ाई साल बाद मेरी अमेरिका जाने की बारी आयी। पूरे एक साल बाद तीन महीने की छुट्टी लेकर शादी करने के इरादे से, जब मैं भारत आया तो उस बार फिर आपको बहुत खोजा लेकिन क़िस्मत ने मेरा साथ नहीं दिया।"

अकरम ने अपने संदेश में आगे लिखा, "एक मज़ेदार बात और...जब मैं भारत आया तो मेरे साथ कोई शादी करने को तैयार नहीं होता था!"

अकरम की यह बात अस्मिता को बड़ी दिलचस्प लगी और हँसते-हँसते उसने पूछा, "वह क्यूँ?"

"कुछ बेईमान और झूठे लोगों की वज़ह से सभी प्रवासी भारतियों को भुगतना पड़ता है, जब तक हमारे बजुर्ग लोग स्वयं लड़के की सीधी जाँच नहीं कर लेते तब तक वह अपनी लड़कियों का विदेशी भारतीय लड़को से रिश्ता करने पर राज़ी नहीं होते। आजकल तो विदेश में रहना एक सज़ा है और शादी करना एक बहुत बड़ी समस्या है, उनके लिये!" अकरम ने साफ दिल से उत्तर दिया।

"मैंने आपसे अपने दिल की बातें अभी और भी करनी और पूछनी हैं। अपने अगले संदेश में मुझे सब-कुछ विस्तार से लिखना। मुझे आपके अगामी संदेश का इंतज़ार रहेगा," यह लिखकर अस्मिता ने अकरम से जाने की इज़ाज़त माँगी और अपने निजी-संम्पर्क की सारी जानकारी अकरम को भेज दी थी।

दो दिन बाद इतफ़ाक़ से एक बार फिर दोनों 'ऑन-लाइन' थे। अस्मिता ने 'फेसबुक' पर कुछ संदेश आदान-प्रदान करने के बाद फ़ोन पर बाकी की बातें करने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए लिखा, "फ़ोन पर ही बात बनेगी, क्या है कि लिखते ही रहो, लिखते ही रहो?”

"अभी फोन करूँ?" अकरम ने अस्मिता से इज़ाज़त माँगी और उसकी सहमती के बाद उसका फोन मिलाना शुरू कर दिया था।

"हैलो, मैं अस्मिता बोल रही हूँ," अस्मिता ने अपने रुँधे हुए गले से, सहमी आवाज़ में फोन का जवाब दिया। बड़ी उत्सुकता से उसने फ़ोन उठाया था। शायद, उसकी आँखें भी नम हो गयी थीं और उनसे ख़ुशी के आँसू भी छलक पड़े थे जिनको अकरम बखूबी सिर्फ़ महसूस ही कर सकता था।

"अरे, अरे, यह क्या, तुम्हें क्या हुआ...?" अस्मिता की सुबकती साँसों को सुनकर अकरम ने अपनी प्रतिक्रिया की।

"बस...यूँ ही, आज एक ज़माने के बाद, पहली बार आपकी आवाज़ सुनाई दी है, ना!"

इसके बाद दोनो एक दूसरे से काफ़ी देर तक बातें करते रहे। एक दूसरे से गिले-शिकवे करके, अपने मन की मैल को दूर करते रहे। अपना मन हल्का करने के बाद अकरम ने कहा, "अल्लाह ने आखिर मेरी सुन ही ली! खैर, जो तुम्हारी किस्मत में था वह तुझे मिला और जो मेरे मुकद्दर में था, मुझे!"

अगली सुबह थोड़ी देर पहले उठने के बाद अकरम ने जब रेडियो 'ऑन' किया तो जो गाना हवा की लहरों पर था उसके दिल को कुरेद गया - "रहा गर्दिशों में हरदम, मेरे इश्क़ का सितारा, कभी डगमगाई किश्ती, कभी खो गया किनारा!"

इसके तुरंत बाद अकरम 'फेस-बुक' पर अस्मिता के संदेशों को 'चैक' करने लगा, जिनका उसे पिछले दो दिनों से इंतज़ार था। कोई नया संदेश न देख कर वह पिछले दिनों के आये संदेशों को दोबारा पढ़ने लगा। अस्मिता ने अपने एक संदेश में लिखा था, "आपने तो मुझे किसी काम का नहीं छोड़ा, मेरे सारे काम "पेंडिंग" हो गये हैं!"

"आई एम सो सॉरी!" अकरम ने जवाब में लिखा था। और मेरा हाल जानना चाहती हो, "मैं यहाँ चूल्हे पर चाय रखकर भूल जाता हूँ, और हाँ एक दिन तो 'फायर–अलार्म' सुनकर मेरे पड़ोसी मेरे यहाँ भागते आए थे लेकिन मुझे अपनी रसोई में कोई धुआँ या किसी चीज़ के जलने की दुर्गंध नहीं आई।"

इसके बाद कुछ समय और दोनों ने अपने मन की बातों का आदान-प्रादान किया। थोड़ा दिल थाम कर फिर अकरम ने लिखा- "आज, क्या मैं.तुम्हें ‘आई लव यू’ कह सकता हूँ? ..अगर इज़ाज़त दो तो..?”

"चलो, इज़ाज़त दी मैंने..." अस्मिता ने तब बिना किसी झिझक आगे लिखा था, - "अगर इस से आपको ख़ुशी मिलती है?"

संदेश बोर्ड को थोड़ा और उपर सरकाने पर अब उसकी नज़र इस अगले संदेश पर आ रुकी। "किसी दूसरे से भी बातचीत ("चेटिंग") कर रहे हो क्या? मुझे यहाँ संदेश की इंतज़ार में छोड़ कर कहाँ चले जाते हो?"

"नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है, तुम्हारे संदेश आने से पहले एक ‘मूवी’ देख रहा था ‘बैकग्राउन्ड’ में अब भी चल रही है, दरअसल! संदेश लिखने के बाद 'संदेश भेजें' बटन दबाना भूल जाता हूँ," अकरम ने स्पष्ट किया था।

"कौन सी ‘मूवी’ देख रहें हैं, आप?” अस्मिता ने दिलचस्पी दर्शाते हुये पूछा था!

"पुरानी ‘मूवी’ है - दुल्हन बनूँ मैं तेरी!”

"और मैं भी थोड़ी देर पहले यह गाना सुन रही थी...”

"कौन सा?"

"तेरा मेरा रिश्ता पुराना..," अस्मिता ने जवाब में लिखा था और ‘ईमेल’ के ज़रिये उसने अकरम को गाने का 'यू ट्यूब' का 'लिंक भेज दिया था।

दो दिन बाद अस्मिता और अकरम एक बार फिर जब ‘फेस-बुक’ पर मिले तो दुआ-सलाम के बाद अकरम ने लिखा, "मैंने 'तेरा मेरा रिश्ता... ' गीत सुना और उसका ‘वीडियो’ भी देखा। मुझे गाना बड़ा दर्दनाक लगा ‘वीडियो’ देखने और सुनने के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने मेरी आत्मा और शरीर के किसी भाग को एक बहुत बड़ी चोट पहुँचाई हो... मेरा मन बहुत दुखी हुआ, आँखें भर आईं मेरी! … एक बार फिर मुझे अपनी बेबसी का भरपूर अंदाज़ा हुआ...।"

"क्यूँ 'वीडियो' में ऐसा क्या था जो..? 'वीडियो' तो 'वीडियो' के तौर पर ही देखना चाहिए...?" अस्मिता ने नादान बनते हुये अकरम को कुरेदा।

"अस्मिता!, तुमने अपने मुँह से कुछ नहीं बोला और मेरे कानों ने सब कुछ सुन लिया। तुम्हारे दिल ने कुछ नहीं कहा लेकिन मेरे दिल ने तुम्हारी सब पीड़ा को महसूस किया है!"

अकरम ने आगे फिर लिखा, "तुम ठीक कह रही हो, अस्मिता! मैं ऐसा ही करता अगर तुम्हारे संघर्ष और पीड़ा से वाकिफ़ ना होता।"

"सॉरी, आई एम वेरी सॉरी, यूँ ही आपका दिल दुखाया!" अस्मिता ने सचाई कबूल करते हुए जवाब में लिखा।

"नहीं, नहीं, तुम्हारा क्या दोष है, इसमें?”

"बहुत ही अच्छा हुआ क़ि मैं तुम्हें नहीं मिली... नहीं तो मेरे साथ तुम भी मेरे दुख सहते...," एक लंबा साँस छोड़ते हुये अस्मिता ने आगे लिखा।

"ख़ुदा के वास्ते, प्लीज़, ऐसा कुछ न कहो। मुझे ही देखो, तुमसे अलग होकर मैंने जो भुक्ता है... लेकिन आज मैं उससे भी बड़े एक नर्क में धँस गया हूँ, जैसे! मेरा घर, मेरे बच्चे, आज सब छूट गये हैं, मुझसे! अकेलेपन की मेरी इस ज़िंदगी ने मुझे एक भिखारी-सा बना कर रख दिया है। ख़ुदा के यह सितम, न जाने कब पूरे होंगे...?" निराश होकर अकरम ने अपनी मनोदशा का सही हाल बयान कर दिया था।

"अल्लाह के घर में देर है अँधेर नहीं, हम सब इंसान उसकी कठपुतलियाँ हैं। ईश्वर में विश्वास करो...," अस्मिता ने दिलासा दिलाते हुए लिखा।

‎"कितनी सयानी हो गयी है, मेरी अस्मिता,” अकरम ने जवाब में लिखा था॥

"सयानी तो पहले भी थी, मगर आपने देखा ही नहीं!"

"मैं तुमसे पूरी तरह सहमत हूँ, और मुझे आज भी इस बात पर कोई शक नहीं, इसीलिए तो तुम मेरा पहला प्यार थी!"

"शुक्रिया...और देखो... मुझे अब जाना होगा, बच्चे आते ही होंगे, मुझे उनके लिये खाना भी तैयार करना है..मैं कल आपको "मिस" काल करूँगी," बड़े सद्भाव और आत्मीयता भरे लहज़े में अस्मिता ने "शबा खैर” कहते हुये फोन यथास्थान रख दिया था।

अगले कई महीनों तक दोनों में यह आत्मिकता का सिलसिला बढ़ता चला गया। कई बार तो दोनों की आपसी बातें घंटों चलती रहतीं। बीते 22 वर्षों ने जहाँ एक तरफ दोनों को एक दूसरे के लिए अजनबी बना दिया था वहीं पिछले कुछ महीनों ने दोनों को एक दूसरे के बहुत करीब ला दिया था। दोनों आपस में निस्संकोच, किसी भी विषय पर एक दूसरे से बात कर और पूछ सकते थे।

कुछ दिनों बाद अकरम ने फोन करके अस्मिता को जब यह इतलाह दी, "अस्मिता, मैं अगले महीने की ११ तारीख को भारत आ रहा हूँ।"

यह सुनकर अस्मिता को बिल्कुल भी यक़ीन नहीं हो रहा था। वह बोली – "क्या? सच? मुझे यक़ीन नहीं हो रहा। झूठे कहीं के?"

"तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?”

"नहीं, पता नहीं, क्या-क्या कहते रहते हो, करते रहते हो...?" बिना कुछ सोचे समझे अस्मिता ने कहा।

"इस बार मेरी बात का यक़ीन करना और अपने-आप पर भरोसा रखना। अपने इरादे और हिम्मत का साथ ना छोड़ना...और हाँ, इस बार तुम्हें मेरा लंबा इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा!"

"लेकिन, अब ऐसा कैसे संभव हो सकता है, बहुत देर हो चुकी है अब...तुम तो अच्छी तरह से जानते हो कि मैं किस तरह से घर-गृहस्थी और सांसारिक बन्धनों से जकड़ी हुयी हूँ ...," अस्मिता ने चुस्की लेते हुए, शरारत भरे अंदाज़ में कहा और अकरम को छेड़ा। उसे थोड़ा और सताने के बहाने, गंभीरता भरे लहज़े मैं उसने पुनः कहा, "अकरम, तुम तो जानते ही हो कि मैं घर गृहस्थी और सांसारिक जंजालों में बुरी तरह किस कदर जकड़ी हुई हूँ और मेरी हालत पिंजरे में बंद उस एक पंछी जैसी है जिसे किसी दूसरे व्यक्ति ने उसे पालने का नाम देकर अपनी क़ैद में रखा हुआ है। मेरे या किसी दूसरे की लाख कोशिशें भी मुझे इस नरक से मुक्त नहीं कर सकेंगी। मुझे समझने की ज़रा कोशिश करो, प्लीज़!" कहते-कहते अस्मिता का गला रुँध गया और आँखें नम हो गयीं, उसकी! दो बड़े-बड़े आँसू उसकी गाल से फिसल कर उसकी झोली मैं टपक पड़े।

वातावरण में कुछ पल ख़ामोशी छा गयी। इस पल की नज़ाकत और अकरम के मन की बढ़ती हुई व्याकुलता को समझते हुये, बिना किसी विलम्ब के, अस्मिता ने बिना झिझक कहा, "मैं तुम्हें हवाई अड्डे पर लेने आऊँगी, मुझे अपने प्रोग्राम के बारे में निजी ईमेल से सूचित करना...।"

"तुम शैतान की नानी, कितना तंग करती हो, आने पर ही तुम्हारी ख़बर लूँगा, ज़रा कुछ दिन और ठहरो," हँसते-हँसते, दोनों की आवाज़ से माहौल गूँज उठा।

आकाश पर घनघोर बादल छाए हुए थे। मौसम की ख़राबी की वज़ह से अकरम के हवाई-जहाज़ की उड़ान दो घंटे 'लेट' चल रही थी। एक नई उमंग के साथ अकरम ने अपना सामान बटोरना शुरू कर दिया था। ‘कस्टम-चेकिंग’ के बाद जब अकरम 'एयरपोर्ट' से बाहर निकला तो उसकी नज़रें चारों तरफ अस्मिता को ढूँढ रही थी लेकिन वह उसे कहीं नहीं मिली। अपनी जेब से 'फोन' निकाल कर उसने अस्मिता का नंबर मिलाया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। एक बार फिर उसने फोन पर अस्मिता से संपर्क करने के लिये नंबर 'डायल' किया। कोई जवाब न मिलने पर और आधा घंटा और इंतज़ार करने के बाद वह 'टैक्सी' लेकर अस्मिता के शहर की तरफ रवाना हो गया। ज्यों-ज्यों उसकी गाड़ी अस्मिता के शहर की और बढ़ रही थी त्यों-त्यों उसके मन में उसका दिल दहलाने वाले, बुरे-बुरे ख़याल आ रहे थे। एक लंबा साँस लेते हुये अकरम ने अपनी नज़र कलाई पर बँधी घड़ी पर दौड़ायी। घड़ी दोपहर के डेढ़ बजा रही थी। कार की खिड़की से बाहर देखते हुये अकरम ने बाकी की दूरी तह करने के समय का अनुमान लगाया। अपने सही अनुमान के मुताबिक़ अकरम पूरे दो बजे अस्मिता के घर के बाहर पहुँच गया था।

हिम्मत करके उसने अस्मिता के घर के मुख्य-द्वार पर दस्तक दी। भीतर से कोई जवाब न मिलने पर अकरम ने पड़ोसियों से अस्मिता के बारे में पूछा। उसे जो ख़बर मिली उसे सुनकर उसका माथा चकरा-कर रह गया। ज़मीन उसके पावों तले से सरक गयी। उसे पता चला कि अस्मिता पिछले सप्ताह अचानक बीमार पड़ गयी थी। उसे इलाज के लिये अस्पताल ले जाया गया था लेकिन वह वहाँ से वापिस नहीं लौटी। डॉक्टरों ने अस्मिता की मौत का कारण उसे एक बहुत बड़े सदमे का लगना बताया। ख़बर सुनकर अकरम बड़ा मायूस हुआ। उसे बहुत अफ़सोस हुआ।

अपना सामान पड़ोसियों के यहाँ रखकर उन्हीं ही कदमों अकरम कब्रिस्तान की और रवाना हो गया। अकरम अपने हाथों में फूल और आँखों में आँसू लिये, अस्मिता की मज़ार के सामने गुमसुम सा खड़ा था!

सहसा, अकरम चिल्ला उठा- "अल्लहा, यह कैसा तेरा इंसाफ़ है?"

सुबकते-सुबकते अकरम ने अपने हाथों पकड़ा फूलों का गुलदस्ता अस्मिता की मज़ार पर भेंट किया और अगले ही क्षण वह भी वहीं लुढ़ककर ढेर हो गया।

लोगों ने मिलकर, अस्मिता की बगल में अकरम की कब्र खुदवा दी थी। किस्मत और हालातों ने तो शायद उन्हें अलग कर दिया था, लेंकिन अब वह दोनों इस तरह मिले थे कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें अलग नहीं कर सकेगी!

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