अंधी मोहब्बत

15-09-2022

अंधी मोहब्बत

अशोक परुथी 'मतवाला' (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

सुनीता ड्योढ़ी में पड़ी चारपाई पर औंधी पड़ी थी। सोकर जब उठी तो उसने चारपाई पर पड़े दर्पण में ख़ुद को निहारा। उसे अपनी आँखें लाल सुर्ख़ और थकी-हारी सी लगी। कुछ पल यूँ ही वह दर्पण को पथराई दृष्टि से तकती रही। 

मेहरा साहिब का तेरहवाँ पिछले बुध को था! 

पति का साथ छूटने के बाद उसके सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था। अचानक ऐसा हादसा होने की सम्भावना तक नहीं थी, उसे! 

“अब क्या होगा, कैसे सँभाल पाऊँगी सब कुछ अकेले, मैं? मेहरा साहिब थे तो सब कुछ ख़ुद ही सँभालते थे,” अनगिनत सवाल सुनीता के दिमाग़ को उथल-पुथल कर रहे थे। बेवश, फफक पड़ी वह! 

सहसा, बेटे प्रतीक की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, “मम्मा, उठो, कुछ खाने को दे दो, प्लीज़। ज़ोरों से भूख लगी है . . . और ख़ुद तुम भी कुछ खा लो . . . मम्मा, तुम सुबह कह तो रही थी खाऊँगी, मगर पता नहीं अभी तक तुमने कुछ खाया भी है या नहीं?” 

“तुम भीतर चलो, मैं मुँह धोकर आती हूँ! निशा को भी खाने के लिए बुलाले, बेटा, खाने का टाइम तो हो गया है, वह भी गर्म-गर्म खा लेगी!” 

“अच्छा, मम्मा!” कहकर प्रतीक भीतर आ गया! 

खाने के बाद, सुनीता ड्राइंग रूम में आई और प्रतीक को टीवी बंद करने का इशारा कर कहने लगी, “बेटा, सुन, तू ज़िद मत कर, अब जब भी तेरा जर्मनी जाने का वीज़ा लगता है, तू बिना देर किए निशा और अपने बच्चों को लेकर चल . . . मैं भी इधर कुछ कामों को निपटाकर आती हूँ!” 

“मैंने कहा है न मम्मा, मैं तुम्हें यहाँ अकेला छोड़कर जर्मनी नहीं जाऊँगा!” 

“तू पागल मत बन, बेटा, तू इतना स्याना होता तो अभी से अपनी नौकरी छोड़ कर घर बैठ नहीं जाता और निशा की भी नौकरी ना छुड़वाता। अब जब तक तेरा वीज़ा नहीं लगता, क्या करेगा ख़ाली घर बैठ कर?” 

“मम्मा, मेरी जर्मनी जाने की बारी तो आई पड़ी थी लेकिन किसी कारणों से जर्मनी सरकार ने ‘प्रवासियों’ के ‘कोटा’ पर ‘टेंपरेरी’ रोक लगा दी है!” 

“बेटा, तूने जर्मनी जाना है तो जा, मैंने नहीं अब जाना, वहाँ!” सुनीता अनमने से कहने लगी। 

“वह क्यूँ?” 

“प्रतीक बेटा समझा कर, मैं और तेरे पापा अभी तो तुम्हारी बहिन सीमा के पास जर्मनी में चार महीने लगा कर आए हैं। बेटी सीमा की जगह अगर तुम वहाँ होते, बेटा, तो अलग बात थी लेकिन, बिटिया के घर में मेरा रहना ठीक नहीं। बेटा, सीमा के घर रहने वाली भी बात नहीं। सच कहूँ तो जर्मनी में मेरा दिल नहीं लगा . . .। वहाँ बहुत बर्फ़ और ठंड पड़ती है। बेटा, मेरे तो घुटने जुड़ जाते हैं . . . हाल ही में मैं जब वहाँ थी तो सीमा और तुम्हारे जीजा सोम तो अपने-अपने काम पर चले जाते थे और मैं या तो चूल्हे-चौके में व्यस्त रहती या उनके बच्चों के सारा दिन ‘डायपर’ बदलती! न बेटा न, मैं तो अपने घर ही अच्छी, यहाँ मेरा अपना घर है, घर में सब कुछ है . . .! ज़रूरत पड़ी तो काम के लिए मैं एक माई को भी रख सकती हूँ।” 

“मम्मा, सुनो . . . तुमने सीमा के पास थोड़ा ही रहना है . . . तुम्हें तो मेरे पास रहना है . . .।” 

“तुमने तो वही बात की बेटा जैसे कहावत है—शहर बसा नहीं और लुटेरे पहले आ गए। तू अभी जर्मनी पहुँचा नहीं, नौकरी तेरे पास नहीं, तेरे अपने रहने का जर्मनी में कोई अता पता नहीं . . . आया बड़ा मुझे अपने पास रखने वाला!” 

“इसीलिए तो कहता हूँ, मम्मा, तुम साथ चलो। मैं और निशा काम करेंगे और तुम अंशु बेटे और बिटिया सरिता का घर पर ख़्याल रखना . . . बहुत जल्दी ही हमारे पास अपने रहने का इंतज़ाम भी हो जायेगा . . . “

बेटे का जवाब सुनकर सुनीता ख़ामोश रही! 

‘देखा, तुम्हारा स्वार्थ तुम्हारे मुख पर आ ही गया कि तुम मुझे अपने पास अपने बच्चों की आया बनाकर रखोगे।’ 

मन ही मन यह कहकर सुनीता सुबक पड़ी! 

“मैं आऊँगी बेटा तेरे पास। तू ख़ुद तो जर्मनी पहले पहुँच!” कहकर सुनीता अपने सोने के कमरे की और बढ़ गई। 

कमरे में प्रवेश करने के बाद भीतर से उसने दरवाज़े की चिटखनी लगा दी और सिरहाने में अपना मुँह छिपाकर फूट-फूट कर रोने लगी थी! 

सहसा, पास रखा फोन बज उठा। अपने आँसू पोंछते हुए सुनीता ने फोन उठाया। आनंद का कैनेडा से फोन था! दोनों की अलग-अलग शादियाँ हुईं मगर दोनों एक दूसरे से ऐसे बिछड़े थे जैसे दो दोस्त बचपन में किसी मेले में कही गुम हो गए हों। 

ख़ैर, विधाता ने सुनीता और आनंद को मिलाने का एक और तरीक़ा निकाला। फ़ेसबुक के ज़रिए एक बार फिर दोनों आपस में मिल गए थे! सैकड़ों मील दूर होने पर भी दोनों एक अच्छे मित्र की तरह एक-दूसरे के नज़दीक बने रहे! समय बदलता गया . . . दोनों अपने अपने कर्म करते और भुगतते हुए ज़िन्दगी के अपने अपने सफ़र पर आगे बढ़ रहे थे! 

सुनीता आनंद को अपने पति मिस्टर मेहरा से अपनी शादी के पहले से जानती थी। 

माँ-बाप के स्तर पर एक ग़लतफ़हमी की वजह से दोनों की मंगनी होकर टूट गई थी! दोनों की राहें जुदा हो गई थीं। 

सुनीता को आज आनंद के फोन का भी इंतज़ार था! उन्होंने पहले से बात करने का समय तय कर रखा था। काफ़ी देर तक दोनों बातचीत करते रहे थे। 

दुनियादारी के डर और घर में व्यस्क बच्चों की शर्म ने जैसे सुनीता की ख़्वाहिशों का गला घोट दिया हो। उसकी रूह तक काँप उठी थी। 

“नहीं, आनंद मुझसे अब यह नहीं हो सकेगा . . . मैं ऐसा अब नहीं कर सकूँगी . . . मैं मजबूर हूँ . . . हाँ, मानती हूँ, मैं ऐसा पहले दिन से ही चाहती रही हूँ, मगर ऐसा हो न सका और हाथ से समय निकल गया, लेकिन, अब बहुत देरी हो चुकी है।” 

“हाँ, सब जानता हूँ, यह दुनियादारी, यह रीति-रिवाज़ . . . पढ़े-लिखे अनपढ़ लोगों के विरोध और प्रतिक्रिया का डर! किसी मनुष्य के चाहे कुछ भी हालात हों . . . उनके निर्णय में चाहे उनकी भलाई और ख़ुशी निहित हो, लोग किसी को जीने नहीं देते। हाँ, अपने हालातों को परखने के बाद, अगर तुम अपनी ख़ुशी और स्वाभिमान के लिए अपनी मर्ज़ी का कुछ फ़ैसला कर लोगी तो लोगों के सिर पर आसमान टूट पड़ेगा। कुछ बेवक़ूफ़ शायद इस हद तक भी गिर जाएँ और ताना देने लगें—ढूँढ़ने गई थी बेटे के लिए बहू, वापसी पर उसके लिए अब्बू ले आई . . .” आनंद ने दुनिया का मज़ाक उड़ाते हुए व्यंग्य कसा! 

“आनंद, ख़ामोश, प्लीज़!” 

“आई एम सॉरी, सुनीता . . . चलो, ऊँचा न सही कान में कह दो . . . तुम्हें अपने दिल की कहते हुए यह दुनिया सुनेगी तो क्या कहेगी . . . लेकिन, मुझे ख़्याल है इस बात का कि ‘तुम बच्चों वाली हो’ और मैं भी बच्चों वाला हूँ . . .” 

“आनंद . . . मज़ाक छोड़ो . . .” कहते हुए सुनीता ने फोन पटक दिया! 

अगले सप्ताह सुनीता की बात जब फोन पर आनंद से फिर हुई तो वह कहने लगी, “मेरी उमर देखते हो . . . इस उमर में . . .?” 

“मैं भी तो जवान नहीं हो रहा। मोहब्बत अंधी होती है, सुनीता! उमर नहीं देखती! कहते हैं, उमर सिर्फ़ एक नंबर है। इंसान तब तक जवान है जब तक ज़िंदादिल है। शादी सिर्फ़ शारीरिक मिलन का नाम नहीं बल्कि पति-पत्नी के पारस्परिक संग का आनंद लेने और सुख-दुख में भागीदारी का गठबंधन भी है!” आनंद के तर्क के आगे सुनीता कुछ न बोल पाई! 

सुबह प्रतीक को नाश्ता सर्व करते हुए सुनीता बोली, “बेटा, तू तो मुझे अपने साथ जर्मनी जाने को कहता है, लेकिन पहले यह बता कि यह भरा हुआ घर किसके हवाले कर के मैं चल दूँ, वहाँ? तुम्हें तो यहाँ का हाल पता ही है . . . क्या अपने और क्या पराये? फिर अब तेरे साथ जर्मनी चल भी पड़ूँ तो छह महीने बाद मैं कहाँ जाऊँगी। लौटना तो फिर मुझे यहीं पड़ेगा। कितनी बार जर्मनी आती–जाती रहूँगी, मैं? न, बेटा ना। मेरी तो हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो जायेगी जो न घाट का रहे न घर का। जब तक मुझे कोई जर्मनी में स्थायी रूप से रहने के लिए स्पॉन्सर नहीं करेगा, मैं जर्मनी में कैसे बस सकूँगी। छह महीने उधर और छह महीने इधर . . . ना, बेटा ना, मैं रूखी-सूखी खाकर भी अपने इधर ही सुखी रहूँगी . . . तुम बेटा अपनी फ़िक्र करो . . . भगवान तुम्हें ढेर सारी ख़ुशियाँ और तरक़्क़ी दे। मुझे यक़ीन है, मेरे ईश्वर मेरा ख़्याल रखेंगे।” 

“तुम चिंता न करो, मम्मा। जो भी होगा सब अच्छा ही होगा। अभी तो हम सब यहीं हैं। जर्मनी जाने की मेरी बारी अभी नहीं आई और तुम्हारा वीसा भी इस बार अब तक नहीं लगा!” 

“तुम, यह भी सोचो बेटा। तुम्हारा जीजा सोमनाथ मुझे किसी भी हालत में स्थायी तौर पर वहाँ स्थायी रूप से आ कर बसने का न्योता नहीं दे सकता क्योंकि ‘इमिग्रेशन’ के नियमों के मुताबिक़ उससे हमारा कोई ख़ून का रिश्ता जैसे सगे माँ-बाप, भाई, बहिन आदि, नहीं है। तुम भी जॉब वीसा पर जर्मनी जा रहे हो। पता नहीं तुम भी कब तक मुझे वहाँ बुलाने के लिए प्रार्थना पत्र भर सकोगे और फिर कौन जाने वहाँ जाने की मेरी बारी कब आयेगी? मुझे परमानेंट बुलाने के लिए तुम्हारी बहिन सीमा कोई कोशिश करे तो करे, लेकिन, उसके क्या हालात हैं, मैं जानती हूँ, बेटा! लाख चाहने पर भी वह मुझे ‘स्पॉन्सर’ नहीं कर पाएगी। मैं यह नहीं चाहती कि मुझे लेकर उसके घर में कोई क्लेश हो। क्या समझता है तू मेरी इस बात को?” 

“अच्छा, मम्मा मैं चलता हूँ, नौकरी के लिए आज एक-आध जगह प्रार्थना पत्र दे कर आता हूँ,” प्रतीक सिंक में अपनी प्लेट और चाय का ख़ाली कप रखते हुए बोला! 

“ठीक है बेटा, और सुन, मेरी बात मान ले। अपनी पुरानी कंपनी वालों से भी पूछ ले अगर वह तुम्हें काम पर वापिस रखते हों तो . . .?” 

“अच्छा, मम्मा!” कहकर प्रतीक ने अपनी कार की चाबी, चश्मा और बैग उठाया और निकल गया! 

समय बीतते पता नहीं लगता! 

सुनीता ने आनंद के साथ कोर्ट मैरिज कर ली थी। इस मौक़े पर गिनती के परिवार के सदस्य और कुछ बहुत नज़दीकी मित्र ही आमंत्रित थे! जज ने दोनों की शादी मंज़ूर करके उनके हाथों में ‘मैरिज सर्टिफ़िकेट’ थमा दिया था! 

प्रतीक इतना ख़ुश और ’एक्साइटेड’ था कि बिना किसी झिझक अपनी मम्मा के गले लग गया और बोला, “मम्मा, शादी की बधाई हो।” 

इसके बाद वह आनंद से मिला और आनंद ने उसे बड़े प्यार से अपनी बाँहों में भर लिया! निशा ने भी फिर दोनों से मिलने और बधाई देने में अपनी बारी ली! एक के बाद एक आए मेहमानों ने दोनों को बधाई दी और गिफ़्ट दिए! ख़ुशी का माहौल था। जान-पहचान और परिवार के लोग कहते सुनाई दिए . . . “जी, बहुत अच्छा हुआ। सुनीता की आगे सारी अपनी उमर पड़ी है और उसे अपनी ज़िन्दगी के सारे फ़ैसले ख़ुद करने का पूरा अधिकार है। औलाद चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, हरेक माँ-बाप तो अपनी अंतिम साँसों तक आत्मनिर्भर रहना चाहते हैं! फिर ख़ुदा का यह कमाल देखो . . . सुनीता से विवाह कर उसे अपने साथ ले जाने वाला भी आया हुआ है। सुनीता उसे आज तक दिल से चाहती आई है। आनंद बड़ा ही नेक दिल इंसान लगता है, उम्मीद है, सुनीता को ख़ुश रखेगा!” 

प्रतीक और निशा का जर्मनी जाने का वीज़ा भी आ गया था और सुनीता के पास अब जर्मनी जाने के अलावा कैनेडा जाने का भी पीआर वीसा मिल गया था! 

दो दिनों बाद प्रतीक, निशा और अपने दो बच्चों के साथ जर्मनी जाने के लिए एयरपोर्ट पर था! 

सुनीता और आनंद की कैनेडा की फ़्लाइट इसी दिन अगले सप्ताह थी! 

अपनी मम्मा को आख़िरी बार मिलने से पहले प्रतीक अपनी मम्मी से पूछने लगा, “मम्मा, मेरे पास जर्मनी में रहोगी या पापा के साथ कैनेडा में?” 

“पापा के पास . . . कैनेडा में . . .” 

“वह क्यूँ?” प्रतीक ने पूछा। 

“तेरे पापा के पास रहूँगी तो तेरे जैसे दो और आ जायेंगे . . .!” 

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