गर्मियों की एक शाम . . .
अशोक परुथी 'मतवाला'तीस साल पहले भी ‘ड्राई डे’ लागू हुआ था। मुझे अपना लेख भी याद है—‘फ्राइडे नाट ए ड्राई डे!’
जिस दिन की यह याद है उस दिन महीने की पहली तारीख़ थी और शुक्र का दिन था!
‘ड्राई डे’ का लक्ष्य नशाबंदी तो न था बल्कि यह था की तनख़ाह वाले दिन पीने वाले (शराबी) अपना चैक लेकर सीधे ठेके पर पहुँचने की बजाए पहले घर जाएँ। इस तरह तनख़ाह बीवी के हाथ में पहुँच जाया करेगी और सही इस्तेमाल हुआ करेगी।
सरकार का इरादा तो नेक था। लेकिन जनता, पुलिस और मानसिकता तो भारतीय थी।
शराब की दुकानें आगे से बंद और पीछे से खुलने लगीं! पुलिस वालों की चाँदी हो गई।
पहुँच वालों के लिए शराब हर पल आम उपलब्ध थी और दुकानें भी, समझो खुली थीं लेकिन, जनता के लिए बंद होती। शायद उन दिनों केंद्र में मोरार जी देसाई की सरकार थी। नशाबंदी तो न चली पर अगले चुनावों में मोरार जी देसाई की सरकार चली गई!
मेरे एक हिमाचली दोस्त शराब के शौक़ीन तो नहीं थे पर कभी-कभार सोमरस ले लेते थे। उन्हें ग़म के चंद लम्हों में रम का शौक़ था। उन्हें जुगाड़ करना भी ख़ूब आता था।
एक शाम हम दोनों का ‘मूड’ बन आया . . . मैंने शर्माजी को याद कराया . . . पर आज तो पहली तारीख़ है, सब ठेके बंद हैं।
जवाब में शर्मा जी कहने लगे, “तुम फ़िक्र मत करो, शिमला से चंडीगढ़ की लास्ट (आख़िरी) बस दस बजे आती है . . .”
“और दारू लाती है, क्या . . .?” उतावला मैं पूछने लगा।
“बस, दारू नहीं लाती पर उसमें हमारा हिमाचली दोस्त-ड्राइवर तो लाती है और ड्राइवर के साथ लाल परी आती है!”
“हूं,” मैं सोचने की कोशिश करता हुआ अपना सिर खुजलाने लगा।
फिर क्या था हम दोनों साइकिल लेकर ट्रिब्यून कालोनी से बस अड्डे पहुँचे।
बस अड्डे पर शिमला वाली बस आ चुकी थी और हम बस अड्डे पर पहुँच चुके थे।
ड्राइवर बंधु से दुआ सलाम के बाद हम तीनों लाल परी को लेकर बस की छत पर चढ़ गए!
समझा करो . . . गर्मियों के दिन थे न!