तक़दीर की ताली
प्रांशु वर्मा
कहाँ से शुरू करूँ, किससे कहूँ?
गाँव के गली-कूचे, गलियारों में जो नेता जी आए थे,
उनके ढोल की आवाज़ में,
जैसे सपना कोई बस पलकों में समा जाए।
कहते थे, “हमारा गाँव चमकेगा!”
ऐसा बोले जैसे हाथ में जादू की छड़ी हो उनकी,
हम सबको ‘बाहुबली’ बना जाएँगे।
अब क्या कहें!
बैठे हैं कुर्सी की पुश्त पर,
ऐसे जैसे राणा हो गाँव के, राजा हो सारे हालात के।
पर हक़ीक़त तो ये है कि रोटी के टुकड़े,
अब उनके थालियों की शोभा हैं,
हमारी थाली में तो केवल ‘वादों का नमक’ है।
सालों से जो तालाब ख़ुदवाना था,
उसकी फ़ाइलें धूल की चादर ओढ़े पड़ी हैं,
कहते हैं, “फंड में कमी है!”
पर उनके घर के बाहर की दीवारें ऐसी चमचमाती हैं,
जैसे हरियाली का सपना, हमारे गाँव का ख़ज़ाना वहीं लगा हो।
पानी की बूँद-बूँद तरसते खेत हमारे,
नहरें चुप हैं, जैसे ज़ुबान पर किसी ने ताला लगा दिया हो।
सरकारी राशन का क्या पूछते हो भाई?
ख़ाली बोरी, तोड़कर बोरा, उनके अपने बर्तनों में जाता है।
चावल का दाना हमारे हाथ से छूटकर
उनके चमचों की थाली में जाकर मिल जाता है।
पुलिस भी बड़ी चतुर!
कहने को हमारे रक्षक, पर रिश्वत का पहरा लगा बैठी है।
गाँव की बेटी की चीख, उनके कानों से गुज़र जाती है
जैसे सूखी घास में से हवा निकल जाए
बिना किसी हलचल के।
नेता जी का हाल बताएँ?
हर पाँच साल बाद ऐसे आते हैं जैसे लड्डू का थाल भरकर लाए हों,
मिठास में डूबा झूठ हमारे गले उतरता है
और हम, हम फिर से गुमराह।
अपनी तक़दीर की कश्ती उनकी बातों के दरिया में डुबा देते हैं।
अब सपनों की ये इमारत जो खड़ी की थी हमने,
उसकी हर ईंट पर लिख गया कोई क़लम “धोखा।”
प्रधान, नेता, अफसर—इनका जाल ऐसा कि
हम सब उस मकड़जाल में फँसे हुए हैं,
जैसे कोई पिंजरे का पंछी चुपचाप देखे बाहर का आसमान।
पर ये भी सच है—ये ज़ंजीरें कब तक बँधेंगी?
कब तक ये रिश्वत, ये कुर्सी, ये धोखा हमारा हक़ खाएगा?
एक दिन ज़रूर वो गूँजेगी आवाज़ हमारी
खेतों की पगडंडियों में, नहरों के किनारे,
हमारे ख़ून-पसीने से सिंचाई होगी
और तब गाँव में सचमुच की रोशनी आएगी,
काग़ज़ी वादों का नहीं, असली सूरज का उजाला।
तब देखेंगे ये प्रधान और उनके चमचे,
इनकी कुर्सी की पॉलिश उतर जाएगी,
क्योंकि अब,
हमारे गाँव की तक़दीर हम ख़ुद बनाएँगे।