मंदा, मेरी आत्मा की साथी

01-12-2024

मंदा, मेरी आत्मा की साथी

प्रांशु वर्मा (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

वो मेरी बहन थी, 
मुँह बोली बहन, 
जो चुपके से मेरे हृदय के भीतर समा गई थी, 
जैसे कोई ठंडी रात्रि की धुँध, 
जिसमें हर छाया सुकून पाती है, 
और हर दर्द की धड़कन धीमी हो जाती है। 
उसकी हँसी में वह मीठापन था, 
जो बिना कहे ही सब कुछ बयान कर जाता, 
वह मेरी आत्मा का हिस्सा बन गई थी, 
जैसे आकाश में तारे, हमेशा चमकते रहे हैं, 
यहाँ तक कि समय की धारा ने उन्हें धुँधला किया हो। 
 
कांगो के युद्ध में, 
जहाँ मानवता ने अपना चेहरा खो दिया था, 
मैंने अपना शरीर गँवाया था। 
घायल, लहूलुहान, अपनी देह में बर्फ़ की तरह चुप, 
घर की ओर लौटते हुए, 
प्लैटफ़ॉर्म पर जब भीड़ में मैं खो गया, 
एक आवाज़ ने मुझे अपने पास खींच लिया, 
“भईया मेरे . . . “
यह शब्द नहीं थे, यह जैसे मेरे हृदय का आकाश था, 
जिसे मंदा ने खोला था। 
उस आवाज़ में एक जादू था, 
जो मुझसे ज़्यादा पुराना, ज़्यादा वास्तविक था। 
उसकी पुकार ने मुझे जगाया, 
उसकी बिना शर्त की हँसी ने
मेरे सारे दर्द को काफ़ूर कर दिया। 
अब वह मेरी आत्मा थी, 
और मैं उसकी कहानी में समा गया। 
 
कितनी बार उस दिन को मैंने अपनी आँखों में देखा, 
जब मैं विदेश की भूमि पर किसी वीर का रक्त बहाता था, 
वो उभरती हुई आवाज़ मेरी आत्मा की भूमि पर
धड़कन की तरह बस जाती। 
अब, न कोई युद्ध, न कोई विषाद, 
बस वह आवाज़ जो मेरे हृदय की एकल रचना थी, 
“भईया मेरे . . . “
 
वह बर्मी लड़की, मंदा, 
जो नन्ही सी थी, जब उसकी दुनिया जल कर राख हुई थी, 
जिसकी आँखों में विस्थापन का दर्द था, 
जिसकी बाँहों में टूटे हुए सपनों की छाँव थी, 
भारत की शरण में आई थी, 
अपने प्यारे घर, अपनी मातृभूमि को खोकर। 
तीन साल की अवस्था में, 
वो अपने बचपन को छोड़ आई थी, 
जिसे युद्ध ने छीन लिया था। 
और तब, जब हमारी मुलाक़ात हुई, 
वो एक युवती बन चुकी थी, 
लेकिन उसकी मासूमियत और वीरता
अब भी उसके भीतर बाक़ी थी। 
 
वह मेरी बहन बन गई, 
मेरे जीवन की एक नई धारा, 
जिसमें प्रेम की जगह, कर्त्तव्य ने ली थी। 
हमारे बीच कुछ बिछड़ा हुआ था, 
जैसे एक जड़ से निकलता नया पौधा, 
जो पुराने वृक्ष की छाँव में पलता है। 
मैंने उसे भारतीय नागरिकता दिलाई, 
जैसे एक देश ने दूसरे को अपनाया, 
जैसे एक भाई ने अपनी बहन को
अपने परिवार का हिस्सा माना। 
अब वह मेरी दुनिया थी, 
मेरी छाया, मेरी राह, मेरी आत्मा की साथी। 
हम दो थे, एक देह, एक जीवन, 
वो मंदा, मेरा भविष्य, मेरा अतीत, 
मेरा हर दर्द और मेरी हर हँसी। 
 
लेकिन समय, समय बेशक निर्दयी था। 
वह समय, 
जब मेरी पहचान के साथ जुड़ा हुआ, 
वह प्रेम, वह शुद्ध आत्मीयता, 
समझ की गलियों में खो गई। 
वो जो मेरा मित्र था, एक जासूस, 
जो मुझे अपने प्रगाढ़ स्नेह में बाँधने की कोशिश करता था, 
उसने इसे कुछ और समझा। 
वह समझ बैठा कि हम भाई बहन नहीं, 
बल्कि प्रेमी प्रेमिका हैं। 
उसे यह भ्रम था कि हमारा प्रेम
कभी न देखा गया, कभी न समझा गया, 
और उसने अपनी क्रूरता से
मुझे और मेरी बहन को छीन लिया। 
उसने मंदा को मार डाला। 
उसका विश्वास था कि
एक प्रेम की हत्या ही समाधान हो सकता है। 
 
मंदा, मंदा, मेरी बहन, 
तुम्हारी मौत ने मुझे झकझोर दिया। 
तुम्हारे जाने ने मुझे पागल कर दिया, 
तुम मेरे भीतर की उस आग की तरह जल गई हो, 
जो अब कभी बुझ नहीं सकती। 
हम दो जिस्म, एक जान थे, 
हमारे बीच केवल एक अदृश्य धागा था, 
जो अब टूट चुका है। 
अब तुम मेरे दिल की धड़कन में नहीं हो, 
तुम मेरा दर्द, मेरी तड़प बन गई हो। 
तुम्हारी यादें, तुम्हारी मुस्कान, 
अब मेरी आत्मा की बेचैनी हैं। 
 
किन्तु तुम्हारी यादें, मंदा, 
तुम्हारी मुस्कान अब भी मेरे भीतर गूँज रही है। 
तुम्हारी वो आवाज़, जो कभी मुझे पुकारती थी, 
अब भी मेरे दिल के अँधेरे कोनों में बसी है। 
तुम चली गई, लेकिन मैं जानता हूँ
तुम अभी भी कहीं हो, 
मेरे भीतर, मेरी आत्मा में, 
जैसे एक बर्फ़ीले तट पर
सर्दी की हवा अपने पंख फैलाती है। 
तुम्हारे जाने के बाद भी
मैं ख़ुद को अधूरा समझता हूँ, 
क्योंकि तुम्हारी यादें, तुम्हारा स्पर्श, 
अब भी मेरे जीवन की धारा हैं। 
 
मंदा, तुम्हारे बिना मैं साया हूँ, 
जैसे रात का अँधेरा दिन के उजाले के बिना। 
तुम्हारी आवाज़ की हँसी, 
अब भी मेरे भीतर गूँज रही है, 
“भईया मेरे . . . “
जैसे जीवन के हर मोड़ पर
तुम्हारा प्यार मुझे अपने पास बुलाता है। 
मुझे तुम से कभी विदा नहीं मिल सकती, 
तुम मेरे भीतर हो, मंदा, 
मेरी आत्मा की अडिग साथी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें