बोलती चुप्पी
प्रांशु वर्मा
गली के मोड़ पर
खुलते हैं कुछ दरवाज़े,
जहाँ रात की थकान
पिघलती है शीशे के प्यालों में।
अँधेरा यहाँ चुपचाप
साँसें लेता है।
सूरज उगते ही,
दूध की धाराओं संग
चूल्हों में उम्मीदें उबाल खाती हैं।
चरणों से भरे मिट्टी के आँगन
प्यास बुझाने को दौड़ते हैं,
पर प्यास कौन सी?
दूध की, या समय की?
हवा से पूछो—
क्यों कुछ खिड़कियाँ खुली हैं,
और कुछ दीवारों में छिपी?
उसके उत्तर में छिपी
है एक आदिम व्यथा।
यहाँ गाने गाए जाते हैं,
पर सुर नहीं मिलते।
यहाँ कहानियाँ बताई जाती हैं,
पर अंत ग़ायब है।
जीवन की गाड़ी
दो पहियों पर टिकी है—
एक में घाव,
दूसरे में मरहम।
इस चुप्पी में
कुछ चीखें पनपती हैं,
कुछ मुस्कानें,
और दोनों का भार
समय से भारी है।