मौन की आवाज़

15-01-2025

मौन की आवाज़

प्रांशु वर्मा (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

कमरे में रखा वो फूलदान, 
फूलों का इंतज़ार करता है . . . 
जैसे मैं करता हूँ तुम्हारा। 
खिड़की से झाँकती स्मृतियाँ, 
बादलों की तरह आती हैं, 
छूती हैं तुम्हारे आँगन को, 
और मेरी छत से रूठ जाती हैं। 
 
तुमने कहा था, 
“जो टूट गया, उसे जोड़ा नहीं जा सकता,”
मैंने टूटने को अपना हुनर बना लिया। 
तुम्हारे खंडित सपनों को
हथेलियों पर रखता रहा, 
जैसे कोई मोती सँभालता है
समंदर के खारेपन में। 
 
तुम हँसी थी, 
किसी और की बात पर, 
और मैं उस हँसी को
अपने सीने में भरता गया। 
तुम्हारे आँसू, जो मेरे नहीं थे, 
उनका खारापन
अब मेरी साँसों का हिस्सा है। 
 
यह कम तो नहीं, 
कि तुम्हारे हर “कुछ मत सोचो” पर, 
मैंने अपने मौन को
तुम्हारी आवाज़ बना लिया। 
अब जब रातें लंबी हो जाएँ, 
और ख़ुशबू भी ख़ामोश लगे, 
तो मेरे मौन में झाँक लेना . . . 
वहाँ तुम हो, 
बस तुम। 

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