एक अधूरा साया

01-12-2024

एक अधूरा साया

प्रांशु वर्मा (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

हथेलियों में बंद थी रात की नमी, 
आँखों में लरज़ते कुछ टूटे हुए ख़्वाब, 
वो शख़्स जिसे दुनियाँ की हर दौलत मयस्सर थी, 
फिर भी रूह की तन्हाई में कहीं खोया जा रहा था। 
 
शहर की हर सड़क पर जैसे बेचैनी बसी थी, 
वो भीड़ में गुम मगर अपने ही अंदर मुख़्तलिफ़, 
अपनी ख़्वाहिशों की ख़ाक छूता, 
एक नयी राह पर फिर से अपने आप को आज़मा रहा था। 
 
हर रात गहराती थी और वो चुपचाप बुझता, 
सुबह की पहली किरण में उम्मीद सा जलता, 
हर रोज़ एक नयी शक्ल ओढ़ता, 
जैसे धूप में अपनी परछाईं का साया ख़ुद से बुन रहा था। 
 
तन्हाई की हर शाम में 
उसके अश्क थे जैसे सूखी मिट्टी पर बारिश, 
और सुबह का सन्नाटा, एक रेत-सा वादा, 
जिसे वक़्त की आँधी हर रोज़ बहा ले जाती थी। 
 
अँधेरे की गुफाओं में वो अपनी मंज़िल को खोजता रहा, 
रास्ते बदलते रहे, पर उस सफ़र की सरहद खो गई, 
जैसे समंदर के साहिल पे कोई निशां, 
जो हर लहर के साथ अपने अक्स को बहा गया। 
 
हर ख़्वाब के सौदे में उसने कुछ न कुछ खो दिया, 
जीने का हिसाब बेबसियों में उलझता रहा, 
और आख़िर में, बस एक साया रह गया, 
एक अधूरा अहसास बन के, 
जो रूहों में गूँजता तो है, पर किसी को सुनाई नहीं देता। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें