तात और बेटी
सुनील कुमार मिश्रा ‘मासूम’
देख कर बेटी की चहचाहट,
प्रति-तात खिल उठता पुष्पवत।
सुनकर बेटी की तुतलाहट,
घुल जाती तात-कानों में मिश्री,
भूल जाता हर छटपटाहट।
जाती जब बेटी प्रथम बार विद्यालय,
बढ़ाएगी तात गौरव
पुकारता उसका हृदयालय।
बेटी प्राप्त करती जब प्रथम सफलता,
बाँटता है तात मोदक,
ख़ुशी से पगलाया फिरता-फिरता।
मेरी बेटी पाए उसका हर मुक़ाम
करता तात प्रति-यत्न,
चाहे टूटे निज स्वाभिमान।
लाड़ली जब तोड़ती है विश्वास
सच मानो अपने तात की
छीन लेती है साँस।
स्व-इच्छा, स्व-जीवन का बेटी मत देना संताप,
तेरे दुनिया में आने का
तात करे पश्चाताप।
‘मासूम’ करे प्रणाम बेटी करना ऐसा काम,
निज-गौरव एवं अपने तात का बढ़े केवल मान॥