जगत दिखावा
सुनील कुमार मिश्रा ‘मासूम’
दुकां, ठेले-सब्ज़ियाँ हो रहे सूने
मॉल में जा कर ख़ूब लगवा रहे चूने
अपव्ययता से भीतरी ‘जी’ परेशान
फिर भी रखनी पड़ रही झूठी मुस्कान
बैंक में गिरवी है घर की पट्टा-कूँची
लेकिन पड़ोसी से लानी ‘गाड़ी’ ऊँची
दिखाता रहता सबको झूठी शान
इस हेतु करता है सारे ताम झाम
सुख में बुलाता दूर-दूर का इंसान
केवल दिखाने अपनी बनावटी शान
उसकी अंतरात्मा रखती है ज्ञान
कि दुःख में काम आने अपने और भगवान