श्री राम से सूरीनाम ‘इतिहास का खोया पन्ना’

01-04-2025

श्री राम से सूरीनाम ‘इतिहास का खोया पन्ना’

डॉ. ऋतु शर्मा (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

भारतीय इतिहास में 18वीं शताब्दी बहुत महत्त्वपूर्ण रही। उस समय जहाँ मुग़ल साम्राज्य का विघटन हो रहा था तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कई क्षेत्रीय राज्यों की स्थापना हो रही थी। इसी समय यूरोपीय कंपनियों के आगमन तथा यूरोपीय व्यापार के विस्तार का भी काल था। किन्तु इसी बीच गाँधी जी व अन्य आंदोलनात्मक गतिविधियों के चलते दास प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा समाप्त हो गई। जिसके कारण आर्थिक स्थिति भी डगमगाने लगी। अंग्रेज़ी सरकार व सभी औपनिवेशिक देशों को लगने लगा कि जो देश या लोग दास प्रथा से मुक्त हो गए हैं, वह कल को अपनी एक नई पहचान बना कर हमारे समक्ष न खड़े हो जाएँ तो उन्होंने दास प्रथा को दूसरे नाम से लोगों के समक्ष रखा और वह था कॉन्ट्रैक्ट कार्यकर्ता। ब्रिटिश सरकार जो उस समय भारत की सर्वेसर्वा थी उसने डच सरकार से एक संधि की जिसके अनुसार ब्रिटिश सरकार डच देश को भारतीय जनता पाँच वर्ष के लिए उनके खेतों में काम करने के लिए भेजेगी। भारत से पहले डच सरकार ने चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों में भी इस ‘तरक़्क़ी संधि’ के प्रस्ताव रखे थे। किन्तु जब वहाँ सफलता हाथ नहीं लगी तो उन्होंने भारत को अपना निशाना बनाया। उस समय भारत भी आर्थिक संकट से गुज़र रहा था। अंग्रेज़ी सरकार ने भारत को पहले ही धर्म और जातीयता के नाम पर बाँट रखा था और बाक़ी जो ख़ज़ाने में बचा था उसे भी यह लूट कर इंग्लैण्ड पहुँचा चुके थे। देश की हालत बहुत ख़राब हो गई थी। ऐसे में1873 से लेकर 1914 तक डच सरकार से भारत में खेत बाग़ान में काम करने का आमंत्रण पा कर कुछ लोग अपनी स्थिति सुधारने के लिए झटपट इस आमंत्रण को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए व कुछ लोगों को “श्री राम के देश” ले जाने के नाम पर भरमा कर ले जाया गया। 26 फ़रवरी को कलकत्ता के बंदरगाह से पहला पानी का जहाज़ ‘लाला रुख़’ सूरीनाम के लिए रवाना हुआ। उस समय सूरीनाम जाने के लिए भारतीय किसानों व हस्त कलाकारों को ही प्राथमिकता दी गई। इन यात्रियों को अपने साथ उनके धार्मिक प्रतीक मूर्तियाँ, पुस्तकें, रामायण, गीता, महाभारत, क़ुरान व आदी ले जाने की छूट थी। कुछ किसान लोगों को पता था कि वह पाँच साल के लिए जा रहे हैं इसलिए वह अपने साथ खेती का कुछ सामान, बीज व अन्य ज़रूरी सामान भी ले गए थे। 

5 जून 1873 को जब लाला रुख़ पानी का जहाज़ सूरीनाम पहुँचा और भारतीयों ने वहाँ की ज़मीन पर पैर रखा तो पता लगा यहाँ तो ‘श्री राम का गाँव’ तो क्या कोई साधारण गाँव भी नहीं है। चारों ओर घने जंगल, भयानक ज़हरीले, जानवर दलदल और पानी ही पानी था। भारतीयों को पता लग गया था कि उनके साथ धोखा हुआ है और अब उन्हें यह भी पता लग लग ग्या था कि अब उनके पास यहाँ रहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। क्योंकि वहाँ से भारत आने का एक ही विकल्प था ‘पानी का जहाज़’ और उस पर डच शासन कर्ताओं का अधिकार था। न्यू ऐम्सटर्डम डिपो से भारतीयों को सूरीनाम के विभिन्न बाग़ानों, खेतों में क़रार पत्र मिला। जिसमें भारतीय कामगारों का नाम, लिंग, धर्म, पता, जाति, ज़िला, विवाहित, अविवाहित, बच्चे, बिना बच्चे व किस एजेन्ट द्वारा किस जहाज़ से किस बंदरगाह से सूरीनाम आये व किस बाग़ान मालिक के पास काम करना है सब लिखा था। इस क़रार पत्र में काम करने की शर्तें, नियम व आय के बारे में भी जानकारी थी। इन शर्तों में कुछ शर्तें इस प्रकार थीं: 

  1. यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी या बच्चों सहित सूरीनाम आया है तो पूरा परिवार एक ही बाग़ान में काम करेंगे, उन्हें अलग नहीं किया जाएगा। 

  2. पुरुषों को 60 पैसे प्रतिदिन, महिलाओं को 40 पैसे प्रतिदिन व बारह साल से उम्र के बच्चों को 4 आने प्रतिदिन के हिसाब से मेहनताना मिलेगा। 

  3. वेतन प्रति दिन, प्रति सप्ताह व प्रति माह के हिसाब से दिया जा सकता है। 

  4. काम समय पर पूरा न होने पर कर्मचारी को अपराधी जान जेल की सज़ा सुनाई जाएगी, या कड़ी सज़ा भी दी जा सकती है। 

  5. यदि कोई महिला कर्मचारी अपना काम पर नहीं कर पाती तो उसे उसके परिजनों से दूर दूसरे बाग़ान में काम करना होगा। 

इन शर्तों में से कुछ का पालन तो किया गया पर तय किये गये वेतन के अनुसार कभी पैसे नहीं मिले पर सज़ा के नियमों का कड़ा पालन किया गया। असहाय भारतीय कर्मचारी दिन-रात घुटनों तक के पानी में ज़हरीले जानवरों से कटवाते और धान बोते। वह दिन बहुत ही कष्ट के दिन थे। इन कष्ट के दिनों में जो उस समय उनका सहारा बना वो था उनका आपसी भाईचारा और भारत से साथ ले गए धार्मिक ग्रंथ, भजन, कीर्तन, कहानियाँ। इन्हीं संस्कार व संस्कृति को अपनी शक्ति बना कर प्रवासी भारतीयों ने वहाँ एक नये भारत की नींव रखी। हालाँकि वहाँ डच सरकार द्वारा बच्चों को स्कूलों में पढ़ाए जानने का प्रावधान भी था किन्तु अधिकांश भारतीयों को यह डर था कि मिशनरियों के स्कूल में बच्चों को पढ़ने भेजेंगे तो वह ईसाई बन जाएँगे और यह बात सच भी थी। उस समय जब कोई बच्चा जन्म लेता था तो, जन्म के समय मदद करनी वाली मिशनरी नर्स या डॉक्टर द्वारा बच्चे को पहला ईसाई नाम ही दिया जाता था। इसलिए उस समय बच्चों के दो या तीन नाम रखे जाते थे। इसी डर से जिन भारतीयों को पढ़ना-लिखना आता था उन्होंने अपने घरों में, मंदिरों में हिन्दी भाषा की शिक्षा बच्चों को दी। 

1950 के आस-पास जो भारतीय थोड़े समृद्ध थे, उन्होंने अपने बच्चों को आगे की शिक्षा के लिए भारत व नीदरलैंड पढ़ने के लिए भेजा। 1950 में भारत से अपनी डॉक्टर की शिक्षा पूर्ण करने के बाद सूरीनाम लौटे एक प्रवासी भारतीय डॉक्टर राज नारा नंनन पांडे उस समय डच सरकार में संस्कृति मंत्री बने। उन्होंने उस समय वहाँ “हिन्दू महासभा परिषद” की स्थापना कर भारतीयों और भारतीय संस्कृति को बढ़ाने में सहायता की। वह लगभग पचास वर्षों तक इस संस्था के महासचिव के पद पर नियुक्त रहे। 1975 में जब सूरीनाम डच शासन से स्वतंत्र हो गया तब वहाँ के प्रवासियों को नीदरलैंड आने की अनुमति दी गई। उस समय बहुत से प्रवासी भारतीय अपने स्वतंत्र व उज्ज्वल भविष्य की कामनाओं के साथ नीदरलैंड आ गये। यह इनका दूसरा प्रवास था। उन्हें इस प्रवास के शुरूआती दिनों में फिर से अपना अस्तित्व बनाने के लिए मेहनत करनी पड़ी। यहाँ भी अपनी भाषा व संस्कृति को बनाए रखने के लिए उन्होंने पहले घरों में मंदिर बनाए व अपनी संस्कृति का प्रसार किया बाद में सभी भारतीयों ने मिल कर यहाँ सनातन व आर्य समाज के मंदिरों की स्थापना की साथ ही हिन्दी भाषी स्कूलों की भी स्थापना की। आज नीदरलैंड में पाँच हिन्दी भाषी प्राथमिक विद्यालय हैं तथा नीदरलैंड के बारह डिस्ट्रिक्ट में मंदिरों में नीदरलैंड हिन्दी परिषद द्वारा हिन्दी भाषा की शिक्षा दी जाती है। आज नीदरलैंड में जितने भी मंदिर हैं वह सब सूरीनामी भारतीयों के द्वारा उनके अपनी ख़ून पसीने की कमाई से निर्माण किये गए हैं। जिसमें लाल बहादुर सिंह परिवार का बहुत बड़ा योगदान है। डॉ. मोहन कांत गौतम जी ने सत्तर के दशक में अपने सूरीनामी मित्रों के साथ मिल कर हिन्दी सांस्कृतिक संस्था ‘मिलन संस्था’ की स्थापना की बाद में नीदरलैंड हिन्दी परिषद की स्थापना की आज जिसके निदेशक डॉ. नारायण मथुरा शर्मा जी हैं। डॉ. मोहन कांत गौतम जी ने यहाँ कई वर्षों तक भारतीय संस्कृति के टीवी कार्यक्रम ‘ओहम’ का भी निर्देशन व निर्माण में सहायता की। डॉ. ऋतु शर्मा पिछले कई वर्षों से यहाँ हिन्दी भाषा व संस्कृति के प्रचार प्रसार में संलग्न है। नीदरलैंड हिन्दी परिषद व सूरीनाम हिन्दी परिषद के लिए वह निःशुल्क हिन्दी पढ़ाती हैं। 

आज सूरीनाम के भारतीय प्रवासी सूरीनाम व नीदरलैंड के राजनीतिक, औद्योगिक से लेकर वाणिज्य क्षेत्र तक में अपना नाम बनाने में सफल रहे हैं। सूरीनामी भारतीय जहाँ गये उन्होंने वहाँ एक नया भारत बसाया और भारत का मान बढ़ाया। इस वर्ष 5 जून को सूरीनाम व नीदरलैंड में सूरीनाम अप्रवासी दिवस के 150 साल पूरे होने पर जून महीने में यह उत्सव मनाया जा रहा है। भारत की राष्ट्रपति श्रीमती मुरमुक भी इस सूरीनाम की विशेष अतिथि बनीं। यह विडंबना ही रही कि भारत में आज भी बहुत कम लोग सूरीनाम के बारे में जानते हैं। भारतीय प्रवासियों पर शोध कार्य किया जाता है किन्तु उनके बारे में कहीं पढ़ाया नहीं जाता। भारत की इतिहास की पुस्तकों से आज भी यह गौरवशाली पन्ना ग़ायब है। 

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