नीदरलैंड में प्रवासी भारतीयों की धरोहर हिन्दी 

15-09-2024

नीदरलैंड में प्रवासी भारतीयों की धरोहर हिन्दी 

डॉ. ऋतु शर्मा (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

नीदरलैंड की भोगौलिक पृष्ठभूमि 

नीदरलैंड में हिन्दी की जड़ों से पहचान करने के लिए नीदरलैंड के बारे में जानना आवश्यक है। नीदरलैंड जिसे हॉलैंड के नाम से भी जाना जाता है। हॉलैंड नीदरलैंड का शाब्दिक अंग्रेज़ी अनुवाद है। नीदरलैंड डच भाषा के दो शब्दों: नेदर (नीचा या गहरा)+लैंड (सतह या ज़मीन) = नीदरलैंड। नीदरलैंड यूरोप महाद्वीप का एक प्रमुख देश है। यह उत्तरी-पूर्वी यूरोप में स्थित है। इसकी उत्तरी-पूर्वी तथा पश्चिमी सीमा पर उत्तरी समुद्र है। इसके दक्षिण में बेल्जियम तथा पूर्व में जर्मनी है। ऐम्सटर्डम इस देश की राजधानी है। देनहाग़ शहर को प्रशासनिक राजधानी माना जाता है। यहाँ की भाषा डच है। यहाँ पर डच लोगों के अतिरिक्त विभिन्न देशों के लोग जैसे-सरनामी हिन्दुस्तानी, भारतीय, तुर्क, मोरक्को, यूरोपीयन, चीनी, इंडोनेशियन, अंतलियान, कैरेबियंस लोग निवास करते हैं। 

हिन्दी भाषा का आगमन 

नीदरलैंड में हिन्दी भाषा के आगमन को हम अलग-अलग भागों में बाँट सकते हैं। पहला चरण 1873 से 1914 का काल जब ब्रिटिश शासन काल में भारत से पानी के जहाज़ लालारूख द्वारा सूरीनाम ले जाने वाले अनुबंध या कॉन्ट्रैक्ट भारतीय। यह भारतीय बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे। किन्तु अपनी भाषा, संस्कार व संस्कृति को भली-भाँति समझने वाले ज़रूर थे। इस तरह से डच संस्कृति में हिन्दी ने भारतीयों आगमन के साथ ही वहाँ अपना पाँव रखा। दूसरे देशों में जाने वाले अनुबंध कामगारों की तरह यह लोग भी अपने साथ रामायण, गीता, व अन्य पुस्तकें अपने साथ ले गए थे। जिसके सहारे उन्होंनें अक्षर ज्ञान बोली के साथ-साथ अपनी संस्कृति को भी जीवित रखा। हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए वहाँ के भारतीयों ने अनेक प्रयास किये। उस समय क्योंकि मुद्रण की कोई व्यवस्था नहीं थी इसलिए उस समय का साहित्य हस्तलिखित है। जिसमें मुंशी रहमान की दिनचर्या की डायरी विशेष है। जिसमें हिन्दी-उर्दू के शब्दों का समावेश है। शुरूआत के कुछ सालों बाद सूरीनाम में शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत कुली स्कूलों की शुरूआत कि गई। जहाँ डच के साथ-साथ एक विषय के रूप में हिन्दी भाषा की शिक्षा दी जाती थी। 1929 से सूरीनाम के सरकारी विद्यालयों में हिन्दी शिक्षण को बंद कर दिया गया। भारतीयों ने अपनी भाषा व संस्कृति को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए धार्मिक स्थलों में हिन्दी की शिक्षा देनी आरंभ कर दी थी क्योंकि भारतीयों के लिए उनकी भाषा व संस्कृति उनके जीवन का अभिन्न अंग था। हिन्दी भाषा का सही विकास 1960 में भारतीय सरकार की ओर से हिन्दी भाषा के शिक्षण के लिए बाबू महात्मा सिंह को सूरीनाम भेजने के बाद से ही हुआ। उनके द्वारा शिक्षित छात्र-छात्राओं ने हिन्दी भाषा की इस शृंखला को आगे बढ़ाया। 1977 में वहाँ सूरीनाम हिन्दी परिषद की स्थापना की गई। धार्मिक स्थलों पर व कुछ सरकारी विद्यालयों में एक विषय के रूप में नियमित रूप से हिन्दी की शिक्षा दी जाने लगी। इस तरह सूरीनाम में हिन्दी का विकास हुआ। 

दूसरा चरण 1975-1980

सूरीनाम डच सरकार नीदरलैंड की कॉलोनी था। वहाँ पर भी आधिकारिक रूप में बोली पढ़ी जाने वाली डच भाषा ही थी। 1975 में सूरीनाम डच शासकों से स्वतंत्र हो गया। लोग अपने उज्जवल भविष्य की खोज में सूरीनाम से नीदरलैंड आ गए। यहाँ आना उनके लिए सरल था। किन्तु यहाँ आकर उन्हें फिर से अपनी भाषा, संस्कृति की लड़ाई लड़नी पड़ी। वैसे तो नीदरलैंड में हिन्दी भाषा की सुंगध 16वीं शताब्दी में ही आने लगी थी। 1659 में नीदरलैंड में जन्मे व्यापारी (1659-718) “यॉन येशुआ कतलर” व्यापार के लिए भारत आए। व्यापार के सिलसिले में उन्हें पूरे भारत में भ्रमण करना पड़ता था। इस कारण उन्होंने हिन्दी भाषा सीखी और बाद में अपने देश के लोगों के लिए डच भाषा में हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण लिखा। इसके बाद एक और नीदरलैंड निवासी ने इसकी नक़ल “इसाक फन दर हुफन” ने भी सोलहवीं शताब्दी में की थी। इसका अनुवाद “दाविद मिल” ने लैटिन भाषा में भी किया। नीदरलैंड के शहर लाईदन से 1743 ईसवी में यह पुस्तक प्रकाशित की गई। इसकी एक प्रति कोलकाता के पुस्तकालय में सुरक्षित है। ज्याँन फिल्लिप (1871-1958) ने ऐम्स्टेडर्म में पढ़ाई करते समय अपनी प्राध्यापिका ‘क्रिस्टियानुस कर्नेलिस उल्हेंनबेक’ से संस्कृत भाषा की शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वह 1914 में नीदरलैंड के “लाईदन विश्वविद्यालय” में ही संस्कृत व हिन्दी भाषा के प्राध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। 1925 में इन्होंने नीदरलैंड के लाईदन विश्वविद्यालय में केर्न इंस्टिट्यूट की स्थापना की जहाँ संस्कृत, हिन्दी व्याकरण के विषय की शिक्षा दी जाती थी। उस समय इन्होंने कई पुस्तकों का हिन्दी भाषा से डच भाषा में अनुवाद भी किया जिनमें: ‘संस्कृत ऐन प्राकृत’, ‘नागास इन हिन्दू’, आदि। इस तरह से नीदरलैंड में हिन्दी भाषा के फूल खिलने शुरू तो हो गये थे, किन्तु कालान्तर में वह पुष्प मुरझा से गये थे। 

1975 में सूरीनामी प्रवासी भारतीय जब नीदरलैंड आए तो उन्होंने फिर से हिन्दी की मशाल जलाई। धार्मिक स्थलों में हिन्दी की शिक्षा से शुरू हो कर यह मशाल प्राथमिक विद्यालय तक पहुँची। 1960 में भारत से एक नौजवान मोहन कांत गौतम पढ़ाई करने के लिए नीदरलैंड आये और नीदरलैंड की ‘लाईदन विश्वविद्यालय’ में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वह वहीं पढ़ाने लगे और बाद में प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने सूरीनामी प्रवासी भारतीयों को एक नई राह दिखाई और उनके साथ मिलकर ‘मिलन’ नाम की एक संस्था हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए बनाई गई। किन्तु आपसी मतभेदों के चलते यह संस्था कुछ ही समय में बंद हो गई। 1983 में फिर से प्रोफ़ेसर मोहन कांत गौतम के मार्गदर्शन में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए एक नई समिति का गठन किया गया। इस समिति में प्रोफ़ेसर मोहन कांत गौतम के अतिरिक्त रामेश्वर रामअवतार सिंह, रबीन्द्र बलदेव सिंह, सूर्य प्रसाद बीरे व नारायण मथुरा शर्मा आदि शामिल थे। इस समिति का नाम रखा गया “नीदरलैंड हिन्दी परिषद” रामेश्वर रामअवतार सिंह सूरीनाम में बाबू महातम के अंतर्गत हिन्दी भाषा की उच्च शिक्षा प्राप्त कर सूरीनाम में कई वर्षों तक हिन्दी भाषा के शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे। 1960 में वह नीदरलैंड आ गए और तब से लेकर अब तक 95 वर्ष की आयु में भी वह आज तक ऑनलाइन हिन्दी भाषा की शिक्षा दे रहे है। 

नीदरलैंड हिन्दी परिषद ने बाबू महातम सिंह का 1962 में भारत की “राजभाषा समिति वर्धा” के पाठ्यक्रम व हिन्दी भाषा की अलग-अलग स्तर की परीक्षाएँ निर्धारित कीं जिसमें: प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा, परिचय, व कोविद की छह परीक्षाएँ स्थानीय परीक्षा व राष्ट्रभाषा रत्न की परीक्षा भारत में देनी होती है। हर वर्ष नीदरलैंड में 1200 से अधिक छात्र-छात्राएँ हिन्दी की परीक्षा देते हैं। वर्तमान समय तक यहाँ से हज़ारों की संख्या में विद्यार्थी हिन्दी की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। किन्तु कोविड काल के बाद इसकी संख्या में कुछ कमी आई है। नीदरलैंड हिन्दी परिषद के बाद डच सरकार की अनुमति से यहाँ पर पाँच सरनामी हिन्दुस्तानी प्राथमिक विद्यालय आरंभ किए गए। इन प्राथमिक विद्यालयों में भारतीय संस्कृति, धर्म व एक विषय के रूप में हिन्दी भाषा की शिक्षा दी जाती है। भारत से आने वाली पाठ्यक्रम की पुस्तकें या भारतीय दूतावास के सांस्कृतिक केंद्र से मिलने वाली हिन्दी की पाठ्यक्रम की पुस्तकें यहाँ हिन्दी भाषा की शिक्षा प्राप्त करने वालों के लिए कठिन थीं। इसलिए यहाँ के सरनामी प्रवासी भारतीयों ने अपनी सुविधा के अनुसार हिन्दी-डच भाषा में पुस्तकें तैयार करवाईं। फ़्रांक कन्हाई, व नीदरलैंड हिन्दी परिषद के अध्यक्ष नारायण मथुरा शर्मा ने प्रारंभिक अक्षर ज्ञान की हिन्दी-डच पुस्तकें तैयार कीं। हिन्दी परिषद नीदरलैंड के अतिरिक्त सनातन धर्म महासभा व आर्य समाज जैसे धार्मिक संस्थानों ने हिन्दी शिक्षण व उसके प्रचार-प्रसार में बहुत महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। 

हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में संचार के साधनों व रंगमंच ने भी अपनी प्रशंसनीय भूमिका निभाई है। सूरीनामी प्रवासी भारतीय घरों व आपस में सरनामी भाषा का उपयोग करते है जो भोजपुरी भाषा के निकट है। यहाँ पर कई सरनामी हिन्दी के रेडियो जैसे—रेडियो आमोर, रेडियो सितारा, रेडियो एस.बी.एस., रेडियो उजाला स्थापित किए गए जिसमें कार्यक्रम की उद्घोषणा, समाचार सरनामी, हिन्दी और डच भाषा द्वारा कि जाती है। भारतीय सिनेमा के हिन्दी गीतों का प्रसारण किया जाता है। सन्‌ 1980 में सूरीनामी प्रवासी भारतीयों द्वारा डच टेलिविज़न पर “ओहम” नाम का कार्यक्रम शुरू किया गया। जिसकी नींव रखने में भी प्रोफ़ेसर मोहन कांत गौतम जी की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह एक साप्ताहिक कार्यक्रम के रूप में शुरू किया गया। जिसमें भारतीय व सूरीनामी संस्कृति व भाषा से संबंधित जानकारी दी जाती थी। इस कार्यक्रम की मासिक पत्रिका भी निकलती थी। जिसमें अन्य जानकारियों के साथ-साथ हिन्दी भाषा का अक्षरज्ञान भी दिया जाता था। लगभग 25 वर्षों बाद यह पत्रिका व कार्यक्रम बंद हो गया। यहाँ बैठक गाना, रंगमंच के द्वारा गाये जाने वाले गीत, आज भी ज़्यादातर सरनामी हिन्दी व हिन्दी में ही होते है। रंगमंच के क्षेत्र में अमर सिंह रमण और रामदेव रघुवीर जैसे लोग अग्रणी है। राम लीला का मंचन भी यहाँ हिन्दी भाषा में ही किया जाता है लेकिन लिखा रोमन हिन्दी में जाता है। उसके बाद इंटरनेट टेलीविज़न चैनल आने से लोगों को और अधिक सुविधाएँ प्राप्त हो गईं। भारत में निर्मित सीरियल रामायण, महाभारत, व फ़िल्मों के यहाँ आने से यहाँ के भारतीयों में हिन्दी भाषा के प्रति समझ और अनुराग और ज़्यादा बढ़ा जिसने उन्हें हिन्दी भाषा सीखने के लिए प्रेरित किया। 

यहाँ डच लोगों के साथ-साथ सूरीनामी प्रवासी भारतीयों ने भी भारतीय संस्कृति व इतिहास पर बहुत लेखन कार्य किया है। किन्तु हिन्दी भाषा में बहुत कम लेखन हुआ। सूरीनाम व नीदरलैंड दोनों की राजकीय भाषा डच होने के कारण डच भाषा में हिन्दी साहित्य अधिक लिखा गया। डॉ. मोहन कांत गौतम ने हिन्दी, डच व अंग्रेज़ी तीनों भाषाओं में प्रचुर लेखन किया है। रबीन्द्र बलदेव ने भी हिन्दी भाषा में ‘स्तीफ़ा’ (1984), ‘सुनाई कहाँ’ (1987), पं. सूर्यप्रसाद बीरे की पुस्तक ‘सूरीनाम देश तथा आप्रवासी जीवन और हिन्दी भाषा’ (1982) आदि पुस्तकें हिन्दी में लिखी गई। फ़्रांक भगवान प्रसाद कृष्णा ने हिन्दी और डच भाषा का एक छोटा सा शब्दकोश तैयार किया। 

हिन्दी भाषा का तीसरा चरण 1980 के बाद से अब तक का है जिसमें भारत से लोग यहाँ शिक्षा, व्यवसाय, नौकरी के लिए सीधे हवाई जहाज़ में बैठ कर नीदरलैंड आये। यह प्रवासी भारतीय हिन्दी भाषा से सीधा सम्बन्ध रखते थे। वह हिन्दी भाषा भली-भाँति बोल, समझ व पढ़ सकते थे। इसलिए इन भारतीयों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के बारे में अधिक ध्यान नहीं दिया। क्योंकि उनकी प्राथमिकता यहाँ रह कर डच भाषा व संस्कृति को सीखना रहा। इन्हीं प्रवासी भारतीयों में से एक नाम ‘रामा तक्षक’ जी का भी है। उन्होंने हिन्दी भाषा में कविता संग्रह व उपन्यास लिखे। बहुत समय पहले नीदरलैंड से हिन्दी भाषा की एक पत्रिका “अमस्टेल गंगा” निकाली जाती थी किन्तु कुछ समय बाद वह भी बंद हो गई। भारत से आये भारतीयों ने यहाँ रह कर हिन्दी साहित्य लिखा किन्तु उसे यहाँ नीदरलैंड में हिन्दी सिखा कर हिन्दी पढ़ने वाले पाठक तैयार करने में असफल रहे। 

2003 में डॉ. ऋतु शर्मा एक गिरमिटिया परिवार में विवाह उपरांत नीदरलैंड आईं। उस समय उन्हें यहाँ बहुत कम हिन्दी भाषा बोलने और पढ़ने वाले लोग मिले। लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग मिले जो हिन्दी पढ़ना-लिखना सीखना चाहते थे। जब उन्हें यहाँ के पुस्तकालयों में हिन्दी भाषा की पुस्तकें पढ़ने को नहीं मिलीं तो उन्होंने अपने बच्चों के डच प्राथमिक विद्यालय में, उस विद्यालय के निदेशक के साथ मिलकर विद्यालय के पुस्तकालय में हिन्दी वर्णमाला की पुस्तक स्थापित की। बाद में उन्होंने बहुत सारी डच बाल कहानियों का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया जो विश्व की अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और हो रही हैं। 2016 में डच बाल साहित्यकार क्रिस फ़ेख्तर के बाल उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद किया। जिसे नीदरलैंड में हिन्दी पढ़ने वालों ने बहुत सराहा। इस उपन्यास का दूसरा संस्करण 2023 में प्रकाशित हुआ। इस संस्करण कि विशेषता यह रही कि यह संस्करण देवनागरी लिपि व रोमन हिन्दी लिपि दोनों में प्रकाशित किया गया। जिन लोगों को हिन्दी समझ आती थी किन्तु लेख पढ़ नहीं सकते थे उनके लिए भी यह उपयोगी सिद्ध हुई। नीदरलैंड की संस्कृति की भारत में पहचान कराने के लिए इनकी “नीदरलैंड की लोककथाएँ” 2024 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के लिए उन्होंने नीदरलैंड की लोककथाओं का डच से सीधा अनुवाद किया। इस पुस्तक को गीना देवी शोध केंद्र हिसार व श्री नगर विश्वविद्यालय से ‘अनुवाद भूषण’ का सम्मान भी प्राप्त हुआ। लगभग दो दशकों से यह नीदरलैंड में रह कर अपने कार्य (टाउन हॉल आसन की परामर्श समिति की सदस्या) के साथ-साथ हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में संलग्न हैं। नीदरलैंड हिन्दी परिषद व सूरीनाम हिन्दी परिषद के लिए यह कई वर्षों से निःशुल्क हिन्दी भाषा के शिक्षण का कार्य कर रही हैं। साथ ही अपने छात्रों को वेबिनार, काव्य गोष्ठियों, व पत्रिकाओं में उनके लेख, कविताएँ प्रकाशित करवा हिन्दी भाषा के प्रति उनका उत्साह और प्रेम भी बढ़ा रही हैं। हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के पूर्व निदेशक स्वर्गीय संजीव निगम जी व आदरणीय राकेश कुमार तिवारी जी ने करोना काल में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी संगठन शाखा नीदरलैंड का गठन किया था। जिसका उद्देश्य दूर-सुदूर देशों में हिन्दी के प्रति लगाव रखने वाले लोगों से परस्पर सम्बन्ध स्थापित किया जा सके तथा हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार किया सके। स्वर्गीय संजीव निगम जी द्वारा स्थापित इस संस्थान के लिए डॉ. ऋतु शर्मा नंनन पांडे हर माह एक ऑनलाइन मासिक कार्यक्रम का आयोजन करती हैं। जिसमें साहित्य की अलग-अलग विषयों पर देश विदेश के हिन्दी साहित्यकार अपने अपने विचार व्यक्त करते हैं। 

हम कह सकते हैं कि नीदरलैंड में हिन्दी भाषा का पौधा प्रवासी सूरीनामी भारतीयों के ख़ून पसीने से सिंच कर बड़ा हुआ है। इन्हीं के कारण हमारी भारतीय भाषा, संस्कृति व सोलह संस्कार आज जीवित हैं। भारतीय सरकार द्वारा ओ.सी.आई. कार्ड की सुविधा ने नीदरलैंड के भारतीय प्रवासियों को भारत के और समीप ला दिया है। वर्तमान में यहाँ से बहुत सारे युवा हिन्दी भाषा की उच्च शिक्षा के लिए भारत जाते हैं। वैसे भी प्रवासी भारतीयों के लिए विशेषकर सूरीनामी प्रवासी भारतीयों के लिए भारत किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है जहाँ वह जीवन में एक बार ज़रूर जाना चाहते हैं। भारत ने चाहे कितनी भी उन्नति क्यों न कर ली हो, पर उनका भारत अभी भी वही है जिसके बारे में उन्होंने अपने पूर्वजों से सुना और जाना है। आप आज भी यहाँ सरनामी समाज में, सोहर (बच्चे के जन्म के बाद का समय), थाटी (थाली), चिन्हा (पहचान), दुल्हनियाँ, बहूँरानी, पतोहू (बेटे की पत्नी), कटलिस (हँसिया) अंजौर (उजाला), घाम (धूप), बिहान (कल), माँड़ो (मंडप), मटकोडवा (विवाह से पहले कुम्हार की मिटती पूजने जाना) आदि शब्दों को रोज़मर्रा की बोल-चाल में सुन सकते हैं। कुछ शब्द डच भाषा के साथ मिल गये हैं जैसे गंदा के लिए (डच भाषा का मॉर्सू शब्द), कूकरू (डच शब्द keuken), ओटोवा (auto कार), टफरवा (डच भाषा टेबल) आदि। इस वर्ष मेरा भारत में हिन्दुस्तानी प्रचार सभा मुंबई के ट्रस्टी आदरणीय फ़िरोज़ पेज जी व संस्था की विशेष अधिकारी डॉ, रीता कुमार जी से मिलना हुआ। जिनसे मुझे आश्वासन मिला कि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा नीदरलैंड व सूरीनाम के लिए प्राथमिक स्तर की पुस्तकें हमें उपलब्ध करवाएँगे। यदि भविष्य में ऐसा होता है तो निश्चय ही यह हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। नीदरलैंड में हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में विद्यालयों में स्थापित करने में शायद कुछ समय और लगे। किन्तु हम यह अवश्य कह सकते हैं कि नीदरलैंड में हिन्दी का भविष्य बहुत उज्ज्वल तो नहीं किन्तु निराशापूर्ण भी नहीं है। हम यह आशा कर सकते हैं कि बदलती तकनीक और बढ़ते व्यवसायिक सम्बन्धों के कारण हिन्दी भाषा का वर्चस्व यहाँ बढ़ेगा और आने वाली पीढ़ियाँ की रुचि इस ओर बढ़ेंगी। क्योंकि दुनियाँ में पहले स्थान पर सबसे अधिक जनसंख्या वाले व सबसे ज़्यादा आई.टी. शिक्षित देश को अनदेखा नहीं किया सकता। 

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