कल आज और कल 

15-05-2023

कल आज और कल 

डॉ. ऋतु शर्मा (अंक: 229, मई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

गुरुवार की सुबह क़रीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे, सूरज धीरे-धीरे अपने बिस्तर से बाहर आ रहा था। मैं पासन डच में ईस्टर को पासन कहते हैं। छुट्टियों में दो दिन के लिए दादाजी के घर ऐम्सटर्डम गई थी। आज सुबह का नाश्ता भी थोड़ी देर से किया था। नाश्ता करने के बाद दादा ने मुझसे कहा “kom meid het is mooi weer, wij gaan wandelen.” अर्थात्‌ चलो बेटी आज अच्छा मौसम है, हम बाहर टहल कर आते हैं। 

दादाजी अपना लंबा कोट पहन, हाथ में छड़ी ले झटपट तैयार हो गए। वैसे तो हमने पिछले नवंबर में दादा जी का 85 जन्मदिन मनाया था, पर फ़ुर्ती में दादा जी आज भी हमसे ज़्यादा फ़ुर्तीले हैं। मैं भी जल्दी से अपना गर्म कोट व जूते पहन दादा जी के साथ हो ली। यहाँ नीदरलैंड के मौसम का कोई भरोसा नहीं होता। इसलिए कोट हमेशा साथ रखना पड़ता है। 

हम लोग एमस्टर्डम के बाज़ार हार्लेम्मेर्दाइक पहुँचे। यह अब एक हिप्पी बाज़ार है। दादा जी के समय यानी दूसरे विश्वयुद्ध के समय यहाँ एक साधारण बाज़ार हुआ करता था। दैनिक ज़रूरतों का सभी सामान यहाँ मिल जाया करता था। उस समय यही वह जगह थी जहाँ उस समय भी विभिन्न धर्मों व समुदायों के लोग आपस में मिल कर रहा करते थे। बाज़ार में चलते-चलते दादाजी एक जूते की दुकान के सामने आ कर रुक गए। मेरा कंधा पकड़ते हुए उन्होंने मुझे एक जूते की दुकान की तरफ़ इशारा करते हुए बताया, “देखो वो जो सामने जूते की दुकान है, उसके ऊपर वाली मंज़िल पर, वहाँ दूसरे विश्वयुद्ध के समय मैं अपने माता-पिता व छोटी बहन के साथ रहा करता था। वो समय बहुत ही डरावना था। रात-दिन जर्मनी से आने वाले लड़ाकू विमान और गोला-बारी की आवाज़ें बहुत डराती थीं। मैं डर के मारे अपने कानों पर हाथ रख आँखें बंद कर अपने बिस्तर में छुप जाता था। यही पास में ही एक वायुसेना की रेजीमेंट तैनात थी जो जर्मन सेना की बारी का जवाब दिया करती थी।”

हम बात करते-करते जूते की दुकान के पास आ गये। दादाजी ने दुकान में अन्दर जा कर एक कोने की तरफ़ इशारा करते हुए बताया, “देखो यहाँ सीढ़ी के नीचे जो जगह है, वहाँ हमारा छोटा सा स्टोर हुआ करता था। जहाँ मैं और मेरी छोटी बहन अपनी साइकिल खड़ा किया करते थे। जब दूसरा विश्वयुद्ध 1940 में शुरू हो गया तब मेरा और मेरी छोटी बहन का वहाँ जाना सख़्त मना कर दिया गया। कहते हैं न, जिस काम को करने के लिए मना किया जाए, बालमन उसी काम को करने को मचलता है। मैं भी एक दिन मौक़ा पाकर नीचे स्टोर में जा पहुँचा। जब मैंने स्टोर का दरवाज़ा खोला तो वहाँ दो अजनबी लोगों को बैठा देखा। वह लोग किसी अनजानी भाषा में बात कर रहे थे। इस तरह से अचानक दो अनजान लोगों को देख, मैं डर के मारे चीखते हुई ऊपर मेरे पिताजी के पास पहुँचा। मुझे लगा जर्मन लोग हमें भी पकड़ने आए हैं। जैसा कि उस समय हो रहा था। पिताजी ने मुझे प्यार से अपनी गोद में बैठा कर पूछा, मैं इतना डरा हुआ क्यों हूँ? मैंने उन्हें बताया कि हमारे स्टोर में नीचे दो अजनबी लोग बैठे हैं। वह किसी दूसरी भाषा में बात कर रहे हैं। पिताजी ने मुझे धीरे से समझाया, “देखो बेटा नीदरलैंड में ग्यारह डिस्ट्रिक्ट हैं (दूसरे विश्वयुद्ध के समय नीदरलैंड में ग्यारह डिस्ट्रिक्ट थे। अब बारह डिस्ट्रिक्ट हैं) हर डिस्ट्रिक्ट की अपनी एक भाषा है। तुम सारी भाषा तो नहीं समझ सकते। यह लोग फ़्रिसलाँद से आए हैं और फ़्रिस भाषा में बात कर रहे हैं। इसलिए तुम्हें समझ नहीं आ रही। थोड़ी देर रुक कर यह यहाँ से चले जाएँगे। 

सबसे पीछे खड़े 
दादाजी परिवार के साथ

उस दिन पिताजी की बातों पर विश्वास कर मैं निश्चिंत हो कर सो गया। बाद में जाकर पता लगा की वह लोग यहूदी समुदाय के थे। अपनी जान बचाने के लिए हमारे स्टोर में आकर छिप गए थे। दूसरे विश्वयुद्ध के समय नीदरलैंड में किसी यहूदी समुदाय के व्यक्ति को अपने घर में शरण देने का अर्थ सीधा-सीधा मौत को गले लगाना जैसा था। पर मेरे पिताजी ने जान की परवाह न करते हुए, मानवता को प्राथमिकता देते हुए उन यहूदी समुदाय के उन दो लोगों को अपने स्टोर में शरण दी थी। 

बातें करते-करते अब हम बाज़ार के बीचों-बीच आ पहुँचे थे। बाज़ार के बीचों-बीच एक सफ़ेद रंग की बड़ी सी ऐम्सटर्डम के आर्किटेक्चर वाली बड़ी सी बिल्डिंग थी। दादा जी ने बताया की दूसरे विश्वयुद्ध के पहले से उनके दादाजी व दादी जी वहाँ रहा करते थे। 1941 के अंत में दादा जी के दादा जी का देहांत हो गया था। अब समस्या यह थी की उन्हें दफ़नाया कैसे जाए? उस समय सभी धर्मों के मृतकों को सिर्फ़ दफ़नाया जाता था। आज भी नीदरलैंड में मृतकों को या तो दफ़नाया जाता है, या फिर उन्हें बिजली की मशीनों द्वारा अग्नि को समर्पित कर उनका अंतिम संस्कार किया जाता है। 

दूसरे विश्वयुद्ध के समय नीदरलैंड बहुत ही बुरी परिस्थितियों से जूझ रहा था एक तरफ़ युद्ध की विभीषिका थी और दूसरी तरफ़ कड़ाके की ठंड से सारी फ़सल ख़राब हो जाने से खाद्य पदार्थों की कमी हो गई थी। लोग ट्यूलिप बॉल को उबाल कर खाने को मजबूर हो गये थे। उस समय को ‘Honger winter’ अर्थात्‌ ‘भूखी सर्दी’ के नाम से भी जाना गया। उस समय मृतकों को दफ़नाने के लिए लकड़ी के ताबूतों के स्थान पर गत्ते के डिब्बों में रख कर दफ़नाया जा रहा था। मेरे पिताजी मेरे दादा जी को सम्मान पूर्वक अंतिम विदाई देना चाहते थे। उन्होंने नीचे आँगन में लगी लकड़ियों से किसी तरह एक ताबूत बनाया और दादाजी को सम्मान पूर्वक दफ़नाया। यह बताते हुए दादी जी की आँखें भर आईं। गहरी साँस लेते हुए उन्होंने अपने हाथ अपनी भौहों के ऊपर फेरते हुए अपनी आँखों में भर आए आँसू की बूँदों को बड़ी सफ़ाई से पोंछा और आगे बढ़ गए। हम कुछ ओर आगे बढ़ Pits oude buurt से मुड़ कर Prinses gracht की ओर जाने वाली सड़क पर थे। 

वहाँ खड़े होकर दादाजी ने बिना मुझे देखे बताया, ”मुझे आज भी याद है फ़रवरी 1942 की वो रात जब मैं यही खड़ा अपने फ़ैमिली डॉक्टर को अपनी तीन साल की बीमार छोटी बहन को बचाने के लिए आवाज़ लगा रहा था। जर्मनी की दि- रात की गोला-बारी से सब कुछ बर्बाद हो गया था। डॉक्टर के पास दवाइयाँ भी ख़त्म हो गईं थीं। समय पर दवाई न मिलने के कारण मेरी छोटी बहन की साँसें भी ख़त्म हो गईं थीं। इस बार दादा जी अपनी मोटी-मोटी आँखों के आँसुओं को छुपा न सके और उनके आँसू उनकी आँखों से निकल उनके लाल गालों पर लुढ़क आए थे। 

मैंने दादा जी को कभी इतना भावुक नहीं देखा था। मैंने दादा जी का हाथ अपने हाथ में लिया और आगे बढ़ गई। दादा जी ने मेरे पैरों में दो अलग-अलग रंग की मोटी-मोटी जुराबें देखी तो उनको हँसी आ गई। मैंने जल्दी-जल्दी में दो अलग-अलग रंग की जुराबें पहन ली थी। उन्होंने हँसते-हँसते मुझसे पूछा, “इतनी मोटी जुराबें क्यों पहनी हैं? क्या तुमने भी इसमें कुछ छिपा रखा है? जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के समय मेरे पिता व मेरी बुआ मेरी जुराबों में कुछ छिपा दिया करते थे।”

मैंने जिज्ञासा भरी नज़रों से दादाजी को देखा। दादा जी ने बात को आगे बढ़ाते हुए बताया, “दूसरे विश्वयुद्ध के समय दादा जी के पिताजी जब उन्हें उनकी बुआ के घर भेजते थे तब वह उनकी जुराबों में कुछ काग़ज़ लगा दिया करते थे सर्दी से बचाव के लिए। जब वह अपनी बुआ के घर पहुँचते तो बुआ उन काग़ज़ों को यह कह कर निकाल लेती थी कि ‘यह ठंड से गल गए हैं, मैं नए काग़ज़ लगा देती हूँ, इसमें तुम्हें कम ठंड लगेगी’। और जब मैं घर पहुँचता तो पिताजी उन काग़ज़ों को निकाल लेते थे। मुझे हमेशा एक ही तय किए गए रास्ते से ही अपने घर से बुआ के घर और बुआ के घर से अपने घर जाना होता था। यह बात मुझे नीदरलैंड के आज़ाद होने के बाद पता लगी की जो काग़ज़ मेरे पिताजी व बुआ मेरी जुराबों में लगाते थे, वह कोई साधारण काग़ज़ नहीं थे। वह बहुत ज़रूरी संदेश होते थे। जिन्हें नीदरलैंड की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों तक मेरी बुआ व पिताजी मेरे द्वारा पहुँचाया करते थे। मैं उस समय उनका मुफ़्त का कुरीयर वाला था।” ऐसा कहते हुए दादाजी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। मुझसे भी इस बात पर हँसे बिना न रहा गया। 

अब हम दो गलियों को आपस में जोड़ने वाले छोटी नहर पर बने पुल पर खड़े थे। दादा जी ने पुल के दूसरी तरफ़ बनी एक इमारत की और उँगली से इशारा करते हुए बताया, “दूसरे विश्व युद्ध के समय मेरी बुआ का यहाँ कार्यालय हुआ करता था। मेरा भी एक बार किसी काम से वहाँ जाना हुआ। तब वहाँ फ़ैमिली फ़्रांक (एना फ़्रांक की डायरी की लेखिका ‘एना फ़्रांक’ का परिवार) भी वहाँ छुप कर रह रहा था। जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा जर्मन के बड़े-बड़े ट्रक वहाँ खड़े थे। जिनमें जर्मन सैनिक बड़ी बेरहमी से उस गली के सारे यहूदी समुदाय के लोगों को उन ट्रकों में भर रहे थे। मैं यह देख डर के सहम गया था। मेरी बुआ मेरी आँखों पर हाथ रख मुझे अंदर अपने कार्यालय में ले गई। उस समय मुझे समझ नहीं आया कि उन लोगों को किस अपराध की सज़ा दी जा रही थी, जिस कारण जर्मन लोग उन्हें इस बेरहमी से ट्रकों में जानवरों की तरह भर रहे थे। दूसरे विश्वयुद्ध के समय यहूदी समुदाय के लोगों के साथ जो हुआ वह सर्व विदित है। 

“पाँच सालों तक जर्मन सेना से लड़ने के बाद 12 सितंबर सन्‌ 1944 में नीदरलैंड का एक हिस्सा लिम्बर्ग अमेरिका की सेना की मदद से आज़ाद हो गया। इस तरह शुरू हुआ नीदरलैंड की स्वतंत्रता का सफ़र और 5 मई सन्‌ 1945 को नीदरलैंड जर्मन के वर्चस्व पूर्णतः स्वतंत्र हो गया। उस दिन एमस्टर्डम में बहुत बड़ा उत्सव मना। सैनिकों ने पैराशूट से स्वीडन की मीठी ब्रेड की बारिश की, मैं उसका स्वाद आज भी नहीं भुला सकता। जिन घरों खिड़कियों, दरवाज़ों के काँच पर युद्ध के समय काले रंग, रंग दिए गए थे, वह साफ़ हो गए थे। सब जगह नीदरलैंड का झंडा फहराया गया। मेरे पिताजी ने भी एक बड़ा सा नीदरलैंड का झंडा हमारे घर के बाहर लहराया। उसी दिन मेरे पिताजी ने मुझसे बात करते हुए बताया कि, उन्हें मुझ पर बहुत गर्व है। इस आज़ादी का मैं भी एक छोटा सा सिपाही थी। तभी उन्होंने मेरे जुराबों में काग़ज़ लगाने वाली बात का ख़ुलासा मेरे साथ किया। उन्होंने बताया, मैंने उनके संदेश बहुत ही सावधानी से एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने में उनकी मदद की थी। सच पूछो तो मैं उस दिन ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था। आज भी मैं जब यह बात याद करता हूँ तो मैं आज भी वही गर्व व ख़ुशी महसूस करता हूँ। इसी कारण मैंने बड़े हो कर नीदरलैंड की आर्मी में काम किया। जैसा कि तुमको पता है 4 मई स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले दूसरे विश्वयुद्ध के समय वीर गति को प्राप्त हुए व जो सैनिक अभी जीवित हैं सभी सैनिकों के प्रति उनके परिजनों के साथ ऐम्सटर्डम में सम्मान व श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया जाता है। मुझे भी फिर से इस साल इस सभा में बुलाया गया है। 

“तुम्हें पता है? मैं तुम्हें यहाँ क्यों लाया? मैंने यह सब तुम्हें क्यों बताया? क्योंकि मैं तुम्हारा कल हूँ तुम मेरा आज हो मैंने यह कहानी तुम्हें सुनाई मैं चाहता हूँ तुम यह कहानी अपने आने वाले कल यानी तुम अपने बच्चों तक पहुँचाओ . . . उनके स्वतंत्र देश मैं पैदा होने और स्वतंत्रता पाने के लिए संघर्ष करने का अंतर समझा, इस स्वतंत्रता के लिए वीरगति को प्राप्त हुए वीरों का सम्मान करना सिखलाओ और हमारे ‘आज, कल और आज’ की परंपरा को आगे बढ़ाओ।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें