सीपियाँ, समुंदर और सरकार

01-03-2022

सीपियाँ, समुंदर और सरकार

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“यह झुग्गियाँ और टपरियाँ और झोपड़ियाँ हट जाएँ तो ज़मीन के भाव आसमान पर। सोना उगलेगी ज़मीन और हमेशा के लिए आमदनी का स्त्रोत,” कहते हुए बिल्डर गुप्ता ने पैग का घूँट लिया। 

“और यह एरिया है लगभग 50 एकड़ और सामने ही समुंदर है। समझते हैं सी-फ़ेसिंग की वैल्यू? अंतरराष्ट्रीय स्तर की कम्पनियाँ आएँगी, बड़े माल, सिनेमा, ज़िले का विकास और रोज़गार के अवसर अलग से,” यह थे मुख्य अभियन्ता केशवानी अपने नक़्शे और ड्राफ़्ट्स के साथ। 

“परन्तु यह लोग पाँच दशकों से यहाँ रह रहे हैं, मछलियाँ पकड़ रहे हैं और इसी बस्ती के कच्चे बाज़ार में बेचते हैं। पूरे महानगर के लोग यहाँ की स्वादिष्ट मछलियों की ख़ातिर यहाँ आते हैं। यहाँ की मछुआरिनों का कोई संगठन भी है,” विधायक जी ने चश्में से झाँकती अपनी धूर्तता भरी आँखों को सिकोड़ा। 

“हो जाएगा, सब हो जाएगा, बस आप अपनी योजना को पक्का कर लो। तकनीकी युग है ज़रा सी ज़ोर ज़बरदस्ती राष्ट्रीय न्यूज़ बन जाती है, फिर रोकना मुश्किल होता है। अतः जो भी हो वह सबके भले के लिए हो,” चिकन चबाते जन की आवाज़, दैनिक अख़बार के सम्पादक बोले। 

“दे तो रहे हैं अच्छा ऑफ़र। यह झुग्गियाँ, जितने परिवार हैं सबको वन रूम का फ़्लैट। और रोज़गार के लिए दूसरे तट पर जगह। साथ में दस हज़ार रुपया।”

“बिल्डर साहब, क्या शानदार योजना है। इससे कोई इनकार कर ही नहीं सकता। जब कच्ची झोपड़ी की जगह पक्का फ़्लैट मिल रहा हो तो कौन मूर्ख इनकार करेगा,” कहते हुए मुख्य अभियंता अपना पैग दुबारा बनाने लगे। 

“इस तरह पचास में से 5 एकड़ ज़मीन इनके लिए चली जाएगी। क्योंकि 3 एकड़ पर तो 10 मंज़िली इमारतें बनेगी जिनमें यह आ जाएँगे। और बाक़ी 45 एकड़ पर मॉल, सिनेमा, हाई-फ़ाई फ़्लैट, और विला लगभग 1000 करोड़ का खेल। और इनसे ज़मीन लेने में कुल ख़र्चा 25 करोड़ से भी कम। इस तरह सब ख़ुश, कोई मानव अधिकार हनन नहीं। सबको न्याय और घर,” विधायक जी संतुष्टिपूर्ण ढंग से बोले, “और पार्टी को नाम, यश, महानगर की शान में और इज़ाफ़ा, रोज़गार और उन्नति के नए रास्ते। हाईकमान ख़ुश।” और विधायक जी मंत्री बनने के सपने देखने लगे। 

“हम यहाँ से नई जाएगा। यह जगह हमारी है और हमारी माँ बाबू भी यहीं काम करते थे। हमें यहाँ से कोई बेदखल नहीं कर सकता,” यह बात लेकर वह सारी मछुआरिनें पिछले 3 दिन से धरने पर थीं। मीडिया में ख़बर आ गई थी और कई चैनल वाले वहाँ तैनात थे। पर यह इन ग़रीबों की आवाज़ ही नहीं दिखा रहे थे। यह दिखा रहे थे बहुआयामी इमेज से भविष्य के विकास की तस्वीरें। गगनचुम्बी इमारतें, सी-फ़ेसिंग फ़्लैट्स और महानगर की शान में एक और कलगी। कुछ चैनल वाले तो दो क़दम आगे बढ़ गए थे। वह इन लोक-धरा के लोगों को ही अविकसित, अनपढ़, प्रगति विरोधी सिद्ध करने में लग गए थे। नक्सली बताना बाक़ी था। वह भी यह बिकाऊ मीडिया कर देता परन्तु न जंगल थे न खनिज तो कैसे? अपने-अपने आक़ाओं के इशारे पर वह लगे हुए थे। एक दिन, स्वयं किसान परिवार के मुख्यमंत्री के कानों तक यह मुद्दा पहुँचा। वह कुछ-कुछ समझे, क्योंकि बिल्कुल ज़मीनी स्तर पर खेती-बाड़ी और मज़दूरी करते हुए ही वह यहाँ तक आए थे। 

आंदोलन को आज 15वाँ दिन था। सोमा, उस आंदोलन की मुखिया, अपने साथियों के साथ धरने पर डटी हुई थी। “विकास क्या सिर्फ ऊँची इमारतों और अमीरों के लिए ही होता है? हम लोग जो जमीन के हैं, क्या अब तक सरकारी मदद से ही जिन्दा थे? क्या यह समंदर, मछलियाँ सरकार देती है? नहीं, यह हमारा प्रभु देता है, वह समंदर देवता देता है। हम इतने बरसों से शान्ति से गुजर-बसर कर रहे कभी यहाँ सकूल, दवाखाना नहीं बना। दूर जाकर ही इलाज कराते या बिना इलाज ही मर जाते,” सोमा धाराप्रवाह बोलती गई सभी चैनलवाले उसे लाइव दिखा रहे थे। क्योंकि उसने कल आत्मदाह का ऐलान कर दिया था। यदि यह झुग्गी हटाने का फ़रमान वापस नहीं हुआ तो। 

“लेकिन विकास, उन्नति, ख़ुशहाल जीवन? बच्चों का भविष्य?” एक स्ट्रिंगर ने अपनी समझ से बड़ा सवाल पूछ डाला। 

“यह सब हमें अब मिल रहा है। हमारे बच्चे सकूल जाते हैं। यह मेरी बड़ी बेटी नोवीं में आई है। और तुम बताओ सुगनी।?”

सुगनी धरने पर बैठी औरतों में से एक, गौरवर्ण, आँखों में चमक और हाथों में भरी-भरी सीपियों, छोटे-छोटे शंखों से बनी चूड़ियाँ। जब बोली तो समझ आ गया कि देश को आज़ादी वास्तव में मिल चुकी है। 

“हमारे बच्चे सब पढ़ते भी हैं और यहाँ हमारे बीच हमारे काम में हाथ भी बँटाते हैं। वह सुबह स्कूल जाने से पहले यहाँ रोज टपरी पर बैठते भी हैं। यही तो वह है जो प्रधानमंत्री भी कहते हैं क्या शब्द है वो . . .” कहते-कहते वह रुकी, और सामने भीड़ में खड़े बच्चों से बोली, “ऐ बोलो रे . . .”

“स्टार्ट अप, स्टार्ट अप,” सभी खिलखिलाते हुए बोले।

“हाँ वही। यह तो हमारे बच्चे बरसों से करते रहे। अपनी पढ़ाई और अपना काम। क्यों साथियो?” कहते हुए वह बैठी। ज़ोर की तालियाँ बजी। सोमा ने गर्व से कैमरों की तरफ़ देखा और बोली, “जब सबको जीने का हक है तो विकास-उकास के नाम पर हमें क्यों उजाड़ने की सोचते है सरकार? क्या हमारे से कोई दिक्कत है? क्या हम शहर के नहीं? क्या इस हवा पानी पर हमारा हक नहीं? क्या हमने कभी भी अपने लिए कुछ माँगा, हड़ताल की? जैसी जो जिंदगानी मिली उसे हम अपने हाथों से, कर्म से सँवार रहे हैं। तो क्या दिक्कत है? ए रुखसाना बता तो जरा तेरा बैंक . . . ” 

तभी सकुचाती हुई रुखसाना खड़ी हुई, हाथ जोड़ नमस्ते किया। पता चला इस मछुआरों की बस्ती की कुछ दसवीं पास लड़कियों और महिलाओं ने आपसी सहमति और विचार से बचत बैंक बनाया। 

अपने पास बच रहे कुछ पैसों से स्वयं सहायता समूह जैसा एक बचत का उपक्रम किया जो कुछ ही वर्षों में बहुत सुदृढ़ हो गया। रुखसाना बताते हुए बोली, “इस बार दीवाली पर मुनाफे में से सभी सदस्यों को 5 बर्तनों का सेट दिया जाएगा।” सुनकर सभी की तालियाँ बजीं। रिपोर्टर हैरान थे, जब बड़े-बड़े बैंक दिवाला निकाल रहे तो यह ग़रीब औरतों का बैंक मुनाफ़ा बाँट रहा? और सब ख़ुश! 

ऊपर से यह धरने का दसवाँ दिन और सारे कार्य हो रहे हैं। घर कौन देख रहा? तभी सूर्यास्त होते-होते अनगिनत डोंगियाँ समुंदर की लहरों पर दीपशिखा सी इठलाती नज़र आईं। दिन भर जाल लेकर समुंदर में गए लोग लौट रहे हैं। कुछ ही देर में मछलियों का ढेर लग गया, यह दूसरा कोना था छोटे से बाज़ार का। ग्राहकों की भीड़ की भीड़ उमड़ रही थी। साँस लेने की फ़ुरसत नहीं। 

“वाह,” दिल्ली में बैठा चैनल हेड बोला, “क्या हमें इतना बताएँगे? मैनेजमेंट यह होता है कि एक ओर ताज़ा मछलियाँ लाकर टोकरों से निकाल छँटाई बड़ी, छोटी, रोहू, मेग्नी, स्टार आदि दूसरी ओर उनको टपरी पर रखकर बेचने वाले टोकरे अलग। साथ ही बिक्री की जगह, थोड़ा ही लगभग पाँच सौ मीटर आगे। वहाँ तक टोकरों को ले जाने के लिए जुगाड़ गाड़ी यानी लकड़ी की ठेले नुमा दो पहिए की गाड़ी। अलग-अलग नंबर यह यहाँ वह वहाँ। सब कुछ सहकारिता पर आधारित व्यवस्था। कैमरे ने दिखाया और डोंगियों की भीड़ लगी किनारे। उनमें बेशुमार ताज़ी मछलियाँ और वह थोड़ा आगे बायीं ओर उतरीं। यहाँ से होटलों और मार्केट के लिए टोकरों में भरी जाएँगी। टोकरों के पास खड़ी युवा लक्ष्मी एक कॉपी में पेंसिल से कुछ लिखती जा रही। सभी टोकरे कमोबेश बड़े आकार के और भाव एक हज़ार रुपए प्रति टोकरा। जिनमें कम से कम बीस किलो मछलियाँ होंगी। और यह क्या धड़ाधड़ टोकरे बिकते जा रहे और नए भर के आते भी जा रहे। चाहे सात तारा होटल हो मछली तो वर्सोवा से ही आती है। जहाँ 250 ग्राम मछली बेक्ड, मसालों संग फ़्राई करके कम से कम चार सौ रुपए की प्लेट सर्व होती है, जीएसटी अलग से। 

सबका सुव्यवस्थित संचालन देखती लक्ष्मी और टीम। मानो प्राचीन सभ्यता की तरह विशाल सुव्यवस्थित स्त्री सत्तात्मक व्यवस्था। जहाँ कोई अनाचार, अन्याय, शोषण नहीं है। बल्कि हर एक के लिए कार्य, ज़िम्मेदारी और परिश्रम के साथ लाभ में भागीदारी है।

“सबका हिसाब हो गया या कोई रह गया?” लक्ष्मी हिसाब लिख चुकी थी आज का और अब वह रिपोर्ट करने कुछ दूरी पर बने खोखे नुमा काउन्टर पर जा रही थी। जहाँ मछलियों की आवक और बिक्री का ब्यौरा दो युवतियाँ कंप्यूटर पर सब दर्ज कर रहीं थीं। 

कैमरामैन के साथ आई रिपोर्टर बोली, “. . . यह सब दर्ज करके यहीं से सभी को हर पखवाड़े बिक्री का लाभांश दिया जाता है। और वह सब स्त्रियों को ही दिया जाता है। अर्थ व्यवस्था उन्हीं के हाथ है।”

प्रधान सेवक ने यह रिपोर्ट देखी और कुछ सोचते हुए टीवी बंद किया। 

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सोमा धरने पर अन्य औरतों के साथ डटी थी। बहुत मज़बूत इरादों के साथ। दरअसल मज़दूर, किसान, चर्मकार, कुम्हार, बैलों को यह लुभावनी घुट्टी दो कि हम तुम्हें मकान, काम के लिए मशीन, बढ़िया जूता, ठंडे पानी की मशीन, अन्न देंगे तो वह हँसेगा। और आपको ऐसे देखेगा जैसे आप बिजूका हों। क्योंकि यह तो वह ख़ुद ही कर लेता है। बिना किसी सरकारी मदद के। अन्न, सब्ज़ी उगाना, पाँव के लिए जूता, पीने खाने के बर्तन, मज़दूरी कर मकान बनाना आदि तो वह अपनी कड़ी मेहनत से ख़ुद कर लेता है। और एक दो नहीं बल्कि करोड़ों की संख्या में हैं ऐसा करने में सक्षम लोक शिल्पी। और उनकी बहुरिया, अर्धांगनी अरे बाबा रे . . . वह तो मेहनत, हुनर, हौसले और घर बाहर सब सँभालने में इनसे भी दो हाथ नहीं दो कोस आगे। व्यवहारकुशल अलग। अभी यही दिख रहा जब अँधियारा होने पर सोमा की जवान होती लड़की वृंदा उसके पास आई। साथ में सकुचाता सा, पतला-दुबला एक युवक भी। दरअसल यह प्रेम, प्यार कब दिलों में खरपतवार सा उग आता है, कोई नहीं जानता। अनुभवी लोगों की एक निगाह सब देख समझ लेती है। और कुछ संदेह रह जाता है तो वह ऐसी मुलाक़ात में दूर हो जाता है जो होने जा रही। भोजन करके टैंट के नीचे सड़क किनारे बैठी लगभग दस बारह औरतें सोमा के साथ थीं। इन्हीं के सामने प्रेम-कहानी की परतों की पड़ताल सोमा बाई, सरपंच ने प्रारम्भ की। जहाँ शहरी, पढ़े-लिखे लोग प्यार को छुपाते हैं। वहीं लोक के यह वासी उसे एक सामान्य घटना के रूप में लेकर सबके सामने ही बात करते हैं। 

“बैठो बैठो। दोनों के लिए जगह बनाओ भई,” सोमा मुस्कराई पर उसकी आँखें लड़के पर ही थीं। 

“बाई यह मैंने कहा था न, यह . . .” 

सोमा ने हाथ से रोका और कहा, “रे छोरी, इसे ही बोलने दे। यह क्या गूँगा है?” सब हँस पड़े। फिर सुगनी बोली, “लगता है बाहर गाँव का है।” लड़का साँवला सा, आँखों में चमक, सपने कुछ कर दिखाने के। बाल फ़ैशनेबल, रंगीन बुश्शर्ट, सस्ती जीन। अपनी हड़बड़ाहट को छुपाता विनम्रता से गला साफ़ करता वह बोला, “जी मैं अक्षय, आपकी बस्ती के पीछे वाली बस्ती में मेरी गुमटी है।” सोमा, सुगनी और लक्ष्मी ने देखा, “और . . . साफ साफ बोलने का। यहाँ पूरी रात अखाइच काम है हम लोगों को। माने समझा न,” लक्ष्मी का इशारा समझ गया वह। 

“प्रेस का ठेला है परली तरफ कोने पर। काम ठीक ठीक चल रहा है। वृंदा . . .” वह रुका, “और मैं शादी बनाना चाहते हैं,” एक साँस में कह गया वह। 

“हम्म, और कुछ? मतलब माँ बाप, देस?” 

“वह बिहार में है। यहाँ कुछ दिनों के लिए आए थे।”

“और वृंदा को वहाँ ले जाओगे? बिहार?” वृंदा कुछ बोलने को हुई पर सोमा की निगाह देख चुप हो गई। 

“वहाँ से तो यहाँ आया था। मुम्बई में सबके लिए रोज़गार है तो . . . “

“कबसे जानते हो इसे?” 

“छह महीनो हो गए होंगे। तभी हमने शादी का सोचा।”

“छह नहीं आठ महीने हो गए हैं। हमें भी पता है। यह सब लोग जो हैं एक परिवार है। सबके बच्चा लोगों को सब जानते हैं। मछली पकड़ते, बेचते हुए सब सबकी निगाह में रहते हैं। तुम्हारी बस्ती और प्रेस के ठिकाने को भी। यह रुखसाना वहीं जाती है टोकरी में मच्छी बेचने कई बार।”

सुनते ही अक्षय का चेहरा फक पड़ गया। फिर बोला, “जी अच्छी बात है। हो सकता है आठ महीने हुए हो।”

“कहाँ कहाँ घुमाया मेरी छोकरी को?” 

वह सकुचाया, वृंदा की ओर देखा और कुछ नहीं बोला। 

“अरे बताने का न। आई सब जानती है फिर भी पूछ रही,” वृंदा प्यार भरी नज़रों से देखती मुस्कराई। 

वह सकुचाता सा बोला, “हम दोनों न झूलों वाला बागीचा, (उसे हैंगिंग गार्डन बोलते रे), चौपाटी, सिद्धि विनायक, हाजीअली साहब की दरगाह, बागुलनाथ मन्दिर जो परिंदा पिकचर में था, गए।”

“ऐ छोरी,” सुगनी आश्चर्य से बोली, “अक्खा मुम्बई घुमली तू तो, क्या तेरी आई बाबा कभी नहीं घुमाए? यहींच पैदा हुई तू फिर भी!” एक ठहाका लगा और फिर नजमा बोली, “अरे तू क्या जाने जब कोई चाहने वाला मिलता है न उसके साथ सैंकड़ों बार देखी जगह भी जन्नत सी लगती है।”

“हाँ भई, तुझे बड़ा अनुभव है, हम तो यहीं बस्ती में पैदा हुए और यही उस खोपचे से इस गली में आ गए,” कहते हुए लक्ष्मी ने एक ठंडी आह भरी, “अब तो मोनू, सोनी के बाबू कहीं बाहर ही नहीं ले जाते।” सब हँस पड़ी। सोमा बोली, “मैं बोलेगी तेरे मर्द से कि बीवी बन गई तो क्या कभी-कभार हमारी लक्ष्मी को बाहर शहर दिखाने ले जाया कर। ख़ुद तो सारा दिन टैक्सी में घूमता ही रहता है।” एक हँसी की लहर सबको भिगोती चली गईं। 

बात की बात में लड़के से मुलाक़ात पूरी हुई। लड़का आँखों ही आँखों में पास। 

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“विकास की राह में रोड़ा हैं यह लोग। चाहते हैं कभी भी विकसित न हो। क्या किया जाए?” यह ज़िला प्रशासन के मुखिया डीएम साहब थे।
 
“मेरा ही चुनाव क्षेत्र है पर मेरी ही बात नहीं सुनते। बस एक ही रट है कि हम यहाँ से नहीं जाएँगे। अब ऐसे लोगों का क्या किया जाए जो जंगल, ज़मीन, समुंदर को ही अपना भगवान, अल्लाह मानते हों।”

“इनके वहाँ देखा मैंने कोई मन्दिर, इबादतगाह नहीं होते। क्या करें!!” डीएम निराश थे। 

“तो वहाँ स्कूल, अस्पताल भी तो नहीं। हमने भी कुछ कम लापरवाही नहीं की इनके प्रति। अब यह भगवान न अल्लाह भरोसे और न सरकार के। यह अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा से जीवनयापन करते हैं। कुछ नहीं माँगते हम आपसे। बल्कि न्यूनतम सुविधाओं में गुज़र-बसर करते हैं,” यह प्रशासन की मदद करने आए भारतीय लेखक संघ के महानगर अध्यक्ष डॉ. शुक्ल थे। जो बहुत प्रसिद्ध फिजिशियन हैं। इनके दो क्लिनिक हैं। एक कच्ची बस्ती में जहाँ से इन्होंने चालीस साल पहले प्रैक्टिस प्रारम्भ की थी। वहीं आज भी बैठते हैं दोपहर तक। और पचास रुपए प्रति मरीज़ के शुल्क में तीन दिन की दवाई भी देते हैं। दूसरा क्लिनिक पॉश इलाक़े कोलाबा की चौथी रोड पर है जहाँ गणमान्य लोगों को दवाई देते हैं। वहाँ शुल्क तीन सौ रुपए है। पहले इसका भी आधा था। जैसे ग़रीब बस्ती में मछुआरे भी इनसे दवाई लेकर ठीक हुए। वैसे ही यहाँ कई फ़िल्मी सितारे भी इनके मरीज़ हैं। बड़े ही शायराना अंदाज़ से इलाज करते हैं डॉ. शुक्ल। यही संवेदनशीलता महानगरों को कॉन्क्रीट का जंगल बनने से बचाती भी है। 

“आप क्या कहना चाहते हैं? यह सरकारी प्रोजेक्ट जिससे इस महानगर को एक नया पर्यटन स्थल मिलेगा। आसपास का सौंदर्यीकरण होगा। और नए रोज़गार के अवसर मिलेंगे। उसे हम इन जाहिलों की नाजायज़ माँग के आगे गवाँ दें?” 

डॉ. साहब धैर्य से मुस्कराए, बोले, “ऐसा है कि हमारे शास्त्रों और समाज में लिखा है कि “. . . . . . . . . . . . “ तो यदि हम मानवता का दृष्टिकोण नहीं अपनाएँगे, हम उनको भी शामिल नहीं करेंगे, सरकार की सोच से अवगत नहीं कराएँगे तो कैसे हम उन्हें उनकी ज़मीन रोज़ी रोटी से हटा सकते हैं?”  अपनी बात का असर देखने के लिए कुछ पल वह रुके, सभी को ग़ौर से सुनता पाकर संतुष्ट हुए और फिर बोले, “आपको पता है एक सिर्फ़ एक व्यक्ति या स्त्री  ने कल को कुछ आत्मदाह जैसा कर लिया न तो सरकार की पूरे मुल्क में वह बदनामी होगी की बस। और डीएम सर आपका क्या होगा आप ख़ूब अच्छी तरह समझ सकते हैं।”

डीएम कसमसाया, पहलू बदला, सबको देखा फिर हाथ मसलता बोला, “यही तो। इसीलिए तो पंद्रह दिन से प्रशासन हाथ पर हाथ रखे बैठा है। पर कब तक? जेसीबी के सामने यह लेटे, पुलिस के डंडे खाते रहे पर हटे नहीं। न ही भड़के। ऊपर से नेतृत्व महिलाओं के हाथ में! क्या करें समझ नहीं आता। तभी आपके बारे में पता लगा कि आपकी बहुत इज़्ज़त है इलाक़े में। सोमा मुखिया सहित सब लोग बहुत मानते आपको। तो अब आप ही रास्ता निकालो।”

“इतना तो नहीं जानता डीएम साहब कि यह लोग मेरा कहना मानेंगे या नहीं। परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि विकास और नए कार्य जिनके लिए किए जा रहे हैं, यदि वही उनसे सहमत न हो तो बेकार हैं। हमें सहमति बनाने के प्रयत्न करने होंगे,” डॉ. शुक्ल की बातें सुनकर ठेकेदार, जो रूलिंग एमएलए का भतीजा था, से रहा नहीं गया। 

“मुझे समझ नहीं आता कि जब पैसा सरकार का, ज़मीन का पट्टा इन लोगों के पास नहीं, शहर को इस प्रोज़ेक्ट से लाभ मिलेगा, तब इन लोगों से पूछना, सहमति लेना क्यों ज़रूरी? हटाकर बाहर करो।”

डीएम ने यूँ देखा मानो उसने कोई बहुत बेवक़ूफ़ी की बात सुन ली हो। फिर वह विधायक की तरफ़ मुख़ातिब हुआ, “कुछ मार्गदर्शन करें सर आप भी।”
विधायक थोड़ा कसमसाया, पहलू बदला फिर मरे से स्वर में बोला, “अब तो आम सहमति से ही उनका हटना बेहतर है। क्योंकि काफ़ी समय हो गया है। मछुआरों, कामगारों, मज़दूरों का यह आंदोलन पूरे प्रदेश ही नहीं देश भर में चर्चा का विषय है। कल ही प्रदेश प्रधान सेवक भी इसे सहमति से हल करो या फिर यह प्रोज़ेक्ट ड्रॉप करो, की बात कह रहे थे,” कहकर वह रुका, पानी पिया और फिर बोला, “यह औरतों के हाथ में है धरना, प्रदर्शन और यह कुछ समझती नहीं। मैंने ख़ुद नोटों के बंडल पूरी कार्यसमिति के नाम पर इन्हें देने की पेशकश की थी। बताया था कि ऐसे रोड़ा बनके मत बैठो।”

डीएम सचेत हुआ, “आप हर जगह पैसा इस्तेमाल करते हैं?” 

खिसियानी हँसी से ठेकेदार बोला, “पर हुआ कुछ नहीं। सबकी सब ईमानदार निकलीं। यह ग़रीब औरतें तो रूखी-सूखी खाने को तैयार हैं परन्तु पैसे को हाथ नहीं लगातीं। ऊपर से इनके मर्द, कुछ बेवड़े, मज़दूर हैं पर अपनी औरतों की बातों से सहमत हैं। एक भी हटने को तैयार नहीं। वह सोमा जो लीडर है इनकी, बोलती है, कि हमें नई सोच, उन्नति, विकास से कोई समस्या नहीं। परन्तु उजाड़ने से है। विकास करो लेकिन हमारी छाती पर पाँव रखकर, हमें बेघर करके नहीं।”

“वह फ़्लैट जो बनाकर तुम दे रहे थे हर घर को?” 

“बोले यह क्या है? न धूप, न रोशनी न हवा? और हम समुंदर से मच्छी लाएँगे कहाँ से? वहाँ तुम टूरिस्टों के लिए होटल, बीच बना रहे। फिर ग्राहक़ कहाँ से आएँगे?” 

“इन्होंने ज़्यादा हूल दिया तो वह सब अड़ गए कि अब तो यहीं पर काम करेंगे। पीढ़ियों से समुंदर ही हमारी रोज़ी-रोटी का ज़रिया है। पहचान है,” कहकर स्थानीय बिचौलियानुमा व्यक्ति चुप हुआ। 

“मैं कुछ कहना चाहता हूँ . . .” डॉ. शुक्ल अब तक सब बातें सुन-समझ चुके थे वह सोचते हुए बोले, “इनके मध्य से चार-पाँच लोगों को तैयार किया था आपने बात करने के लिए। तब बात नहीं बनी थी। उनसे एक बार फिर बात की जाए और इस बार उन्हें डिबिया जैसे फ़्लैट के अलावा रोज़गार की संभावनाओं के बारे में बताया जाए। साथ ही जो आप नहीं कह रहे वही वह समझ रहे हैं। उनके मन से यह भय है कि उनकी बस्ती की बस्ती ही हटाई जा रही है, दूर किया जाए।”

“कैसे? क्यों? हमारा तो यही उद्देश्य है। वहाँ इतना भव्य शॉपिंग मॉल, 4 बहुमंज़िला इमारतें और सी-बीच बनेगा कि शहर के लिए नया पर्यटन स्थल बन जाएगा। और आप चाहते हैं यह न हो?” बिल्डर भड़ककर बोला। 

डीएम, एमएलए, उपसचिव सबकी निगाह मिलीं। यही प्रश्न था कि क्या किया जाए? 

“देखिए यह सोच बदलनी होगी। मीडिया, सूचना क्रांति के दौर में हम किसी को भी अनजान बन, बेवक़ूफ़ बनाकर बेदख़ल कर दें . . . आप सभी भी थोड़ा सा बुद्ध के मध्यम मार्ग की तरफ़ भी ज़रूर देखें।”

ज़रूरी मीटिंग बिना हल के अगले कुछ दिनों के लिए स्थगित हुई। 

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अगले दिन डॉ. शुक्ल को जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। वह क्लिनिक पर मरीज़ देख रहे थे कि बस्ती से सोमा का संदेशा लेकर सुगनी आई।

”साहब, आज दोपहर कुछ लोग आ रहे हैं। सोमा बाई कही की आपको आना है और हमारी तरफ से बात करनी है।”

डॉक्टर उसे देख हैरान रह गया। वह पेट से थी और फिर भी कांतला, रोहू, मेग्नी मछलियों से भरी टोकरी सिर पर उठाए थी।

”तुमको तो घर पर आराम करना चाहिए सुगनी। तुम्हारा आदमी रोकता नहीं तुमको?” 

“अरे साहब आप भी क्या। हम इधरिच पैदा हुई, इसी समुंदर की हवा-पानी से बड़ी हुई, यही मंगल कार्यालय में ब्याह हुआ। कुछ नहीं होता हमको। हम इसी से ही बने हैं। एकदम मजबूत . . . है कि नहीं।” कहकर उसने साथ की औरत को देखा। वह बोली, “थोड़ा काम करेगी तो चार पैसा आएगा और अभी दो माह हैं। वह रामप्यारी दाई है न वह आराम से घर पर डिलीवरी कराती। मेरे दोनों मुलगी मुलगा घरिच पर हुए। वो कहती कोई चिंता की बात नहीं।”

वह मुस्कराती चली गई टोकरी में मछली बेचने। ज़िन्दगी कितनी खुरदरी, सपाट और निर्मम होने पर भी जीने के क़ाबिल तो है। अपने रसायन, कीमियागिरी से कितना उससे तालमेल बैठा सकते हैं यह हम पर निर्भर है। 

“. . . देखो, तुम्हारे हक़, अधिकार और स्वतंत्रता को कोई भी नहीं छीन सकता। चाहे सरकार हो या बड़ी कम्पनी। और यह बहुत अच्छा है कि आप सभी ने पंद्रह दिन से धरना प्रदर्शन करके इन्हें रोका हुआ है। पूरा देश और विश्व समुदाय आपके साथ है।” सफ़ेद दाढ़ी, आँखों में यह मोटा चश्मा और साथ में दो मोटी-मोटी किताबों के साथ धीर गम्भीर बुद्धिजीवी लगता, (लगता क्या, था ही वो) अपनी बात कहकर चुप हुआ। साथ में उसके तीन साथी जिनमें एक महिला थी जो खद्दर की साड़ी, बड़ा-बड़ा काजल और बालों में धूप का चश्मा फँसाए थी। ”देखो सोमा बेन, यह नेतृत्व आप महिलाओं के हाथ में होने से इसे और मज़बूती मिली है। एक इंच भी ज़मीन मत देना। हम विस्थापन, ग़रीबों की विरोधी इस सरकार को मुहतोड़ जवाब देंगे। आपको जो भी ज़रूरत पड़े हम देंगे। फ़िलहाल यह रखो,” उसने तैयार प्लेकार्ड (छोटे, बड़े बोर्ड, सफ़ेद काग़ज़ चिपके) लाने का इशारा किया। पीछे खड़ी बड़ी सी गाड़ी से एक व्यक्ति दो कार्डबोर्ड की पेटियाँ ले आया। 

“हम सब आपके साथ हैं। आप ही इस देश की अर्थव्यवस्था का आधार हैं। आपकी इस तरह से बेक़द्री बर्दाश्त नहीं।” 

“हम?” शब्द सुन साथ आई महिला चौंकी, “मतलब यह सब और इनके साथ हमारे युवा कार्यकर्ता। जो देश भर से अगले कुछ दिनों में यहाँ आ जाएँगे।” तभी बाहर से कुंडू केतली और गंदे ग्लासों में चाय ले आया। नमकीन पानी की चाय। तुरंत आए हुए अतिथियों ने चाय तो वह पीते ही नहीं, की घोषणा की। फिर कुछ आँखों ही आँखों में बात करके ड्राइवर और एक युवा ने चाय ली। 

सोमा, सुगनी, चंपा, रेहाना और डॉक्टर यह सब पिछले एक घण्टे से देख-सुन रहे थे। और यही लग रहा था जैसे घर की सास–बहू या पति–पत्नी की बातों में कोई बाहरवाला दख़लंदाज़ी करे। डॉक्टर को ही नहीं सोमा मुखिया को भी लग रहा था यह तो बात ही पूरी कहाँ से कहाँ निकलती जा रही है! यह तो तिल का ताड़ ही नहीं बल्कि विवादों का महल बनाने की तैयारी है। 

“कल से धरना प्रदर्शन और तेज़ होगा। हमारे यूथ विंग के कार्यकर्ता देश के अलग-अलग भागों में आपके पक्ष में और इस बेमुरव्वत सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करेंगे,” यह नवलखा था। 

“हमारे टीवी चैनलों को ख़बर करो कि यहाँ-यहाँ प्रदर्शन होंगे वह कवर करें। और इतना दिखाए कि यह सरकार ग़रीबों की विरोधी दिखे,” यह फ़ोन पर एक कोने में जाकर वह महिला बोल रही थी। 

सोमा ने डॉक्टर और अन्य साथियों को “काएय झाला,” के भाव से देखा। 

डॉक्टर शुक्ल सभी बातों को समझते हुए बोले, “देखिए आप सभी आए, सहयोग की बात की इसके लिए आपको धन्यवाद। परन्तु हमारी बात अब लगभग हल होने वाली है। और सरकार बराबर हमसे सम्पर्क बनाए है। तो हम नहीं समझते कि अभी फ़िलहाल इतना सब करने की ज़रूरत है।”

यह सुनकर उन चारों ने एक दूसरे को देखा। उनमें से एक तो डॉक्टर पर भड़कने को हुआ पर महिला की चेतावनी भरी निगाह से चुप हुआ। 

“आप नहीं समझते। यह एक प्रतीक है आप लोक के कामगारों को ग़ुलामी में जकड़ने का। यह प्रारम्भ है, फिर आपको भूखे प्यासे रहना पड़ेगा। यह आपको जेल में डाल देंगे। और इंच-इंच ज़मीन अपने उद्योगपति मित्रों को दे देंगे,” सोमा और महिलाओं से वह बोली। 

डॉक्टर ने कुछ बोलने चाहा तो अँग्रेज़ी में उसे दाढ़ी वाले ने फटकार दिया। 

सोमा मुखिया यह सब देख रही थी, सुन रही थी। निरीह श्रमिक, रोज़ कुआँ खोद रोज़ पानी पीने वाले लोग। जिनकी रोज़गार और बसने की फ़िक्र में ही कई पीढ़ियाँ निकल गईं और कई निकल जानी हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य कौन देखे इनके लिए? यह बस जिए जा रहे हैं जब तक इनके हाथ पाँव चल रहे। 

“तो यह कल से बड़े स्तर पर प्रदर्शन, धरना चलेगा। हमारे लोग आपकी हर सम्भव मदद करेंगे।” 

कहकर उस दाढ़ी वाले ने अर्थपूर्ण ढंग से पीछे खड़े किसी को इशारा किया। तुरन्त दो लोग आगे आए, हाथों में कार्डबोर्ड पर बने प्लेकार्ड (तख़्तियाँ) लिए। जिन पर लिखे थे रेडीमेड, बहुउद्देशीय नारे, “we want justice, ऐसा विकास नहीं चाहिए, काला क़ानून वापस लो, न झुके है न झुकेंगे” आदि आदि। 

सभी मछुआरिन कसमसा रही थीं यह सब देखकर। सुगनी, सोमा, रेहाना, डॉक्टर कुछ कहना चाहते थे कि उन लोगों ने फिर कुछ रखा। देखा नोटों का बंडल।

”यह आंदोलन को नई दिशा और शक्ति देगा। बिल्कुल भी खाने-पीने की चिंता नहीं करनी,” यह मैडमजी थीं। 

“सफलतापूर्वक चलाओ, हम जीतेंगे और आपको विदेश यात्रा भी करवाएँगे अमुक कम्पनी के सौजन्य से।”

अब डॉक्टर चौंके, उन्हें सब समझ आने लगा। पहले वह सिर्फ़ भड़काओ सरकार के ख़िलाफ़ और अस्थिरता पैदा करो ही समझ रहे थे। पर जब यह नाम सामने आया तो समझ आया कि इन दक्षिण एशियाई देशों में यूरोप की बड़ी-बड़ी कम्पनियों की प्रतिस्पर्धा भी पहुँच चुकी हैं। दूसरी कम्पनी के प्रोज़ेक्ट में विवाद पैदा करके मुश्किल खड़ी करना, उसकी वैश्विक बदनामी करना, स्थानीय मुद्दों को हवा देना, श्रमिकों के हितचिंतक बनने का दिखावा करना, (बाद में बरसों बरस दुबारा झाँकना भी नहीं)  मानवधिकारों के पैरोकार बनना। बदले में अपने और परिवार के लिए विदेश यात्रा, फ़ंडिंग करोड़ों का लाभ लेना। तभी कई तथाकथित बुद्धिजीवी जिन्होंने कभी ज़िन्दगी में ऐसी बस्तियों, आदिवासियों, किसानों की शक्ल नहीं देखी इनके पैरोकार बनकर रातोंरात आ जाते हैं। डॉक्टर सब समझ गए। किसानों के मध्य पहुँच जाते हैं उनके हितचिंतक बन लेकिन रबी, खरीफ और जायद फ़सलों में अंतर तक नहीं जानते। बस भड़काकर अपने विदेशी आक़ाओं और स्वार्थ के लिए इन निर्दोष लोगों को गुमराह करना। जिससे यह उग्र हो जाएँ और सरकार इन पर कार्यवाही करे तो सरकार की बदनामी। और फिर यह लोकवासी जो कभी कोर्ट, थाने, जेल नहीं गए, की ज़िन्दगी इनमें फँसकर रह जाए। इन्हीं में से कुछ मजबूरी में, कि मैं तो बर्बाद हो गया, चलो अब इसी राह चलता हूँ, जिससे मेरा परिवार पल सके, की सोच से नक्सली, अपराधी, पारदी गिरोह बना लेते हैं। निर्दोष, कम पढ़े-लिखे, भोले-भाले लोगों को इस तरह भड़काना देशद्रोह नहीं? ऊपर से कई इनके हिमायती अपनी-अपनी जगहों से इन्हें समर्थन देते हैं, कुछ पत्र पत्रिकाएँ तो खुले तौर पर इनके समर्थन में अभियान चलाती हैं। जिससे युवा, अनजान लोग भ्रमित हो समझते हैं वास्तव में अन्याय हो रहा। जबकि यह लोकजीवन से जुड़े लोग, आम व्यक्ति, मज़दूर सभी कुशलतापूर्वक अपनी समस्याओं, उसके लिए क्या करना है इन सबसे परिचित हैं . . . 

वह लोग सोमा और साथियों के मध्य दाएँ-बाएँ मुस्कुराते हुए खड़े होकर फोटो के लिए पोज़ दे रहे थे। तभी . . . सोमा बाई बोलने को कुछ हुई फिर चिल्लाकर बोली, “अरे मैं कुछ बोलेंगी या नहीं? सभी तुम लोग तय करोगे की ऐसे-ऐसे ही होगा? यह आंदोलन हमारा है कि तुम्हारा? नहीं चाहिए यह सब। ले जाओ यह तख़्ती, पैसा और ख़ुद को भी।”

अचानक से सन्नाटा छा गया। सब फोटो खींचते रुके, ठिठके, फिर वह सफ़ेद बालों और सूरत से ही बुद्धिजीवी लगती औरत आश्चर्य से बोली, “क्या कह रही हैं आप? अरे कोई इतना अच्छा ऑफ़र मना करता है?” तभी दूसरे ने बात सँभाली, “कोई जल्दी नहीं। अभी आप सोच लो आराम से।” लेकिन सोमा, सुगनी, रेहाना, चंपा सब सोच-समझ चुकीं थीं। 

“देखो यह सब भड़काऊ बातें कीं तो कीं परन्तु अब आप यहाँ से चले जाएँ और दुबारा यहाँ न आएँ। और मुरली कहाँ गया? जो लेकर आया इनको।”

तलाश हुई मुरली दिखा उन्हीं के पीछे छुपा। सुगनी ने उसे गालियों से नवाज़ना शुरू किया। सोमा की ग़ुस्सैल छवि देख वह हाथ जोड़ बोला, “मुझे तो यह लोग बोले कि तुमसे मिलवा दूँ तो पूरी बस्ती का भला हो जाएगा।”

“अब तू ऐसे उल्टे–सीधे लोगों को लाया तो तेरी खैर नहीं।”

डॉक्टर शुक्ल ने उनकी ओर देखा और कहा, “आप सभी यही पढ़े-लिखे, ऊँचे पद पर पहुँचे फिर यह सब क्या? कौन से स्वार्थ हैं आपके जो इन जैसे निर्दोष किसानों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मज़दूरों में आग लगाते हो? लालच देते हो? अभी यही काम राजधानी में आपके साथियों ने किया कि अमुक धर्मविशेष के लोगों को ऐन आर सी क़ानून बाहर निकाल देगा। जबकि वह उन लोगों के लिए बना जो दूसरे देशों के नागरिक अपने ही मुस्लिम बाहुल्य देशों से शान्तिप्रिय, लोकतांत्रिक भारत में अवैध रूप से आ गए। क्योंकि उनका ही देश उन्हें मूलभूत सुविधाएँ नहीं दे रहा। कुछ राजनैतिक दल अपने वोटों के लिए उन्हें अपने राज्यों में बसा रहे। और ऐसे लोग आपका, हमारा जो भारतीय धर्मविशेष के लोग हैं उनका हक़, संसाधन, सुविधाएँ छीन रहे। ऊपर से हिंसा, भड़काना लोगों को क्या है यह सब?” 

डॉक्टर रुके, देखा, सभी मंत्रमुग्ध से उनकी बात सुन रहे थे। सहमत थे जबकि इन दलालों के चेहरे फक पड़ गए थे। “इस देश के लोक, सबाल्टर्न के लोग चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम वह सब सीधे-सादे अपने हाथों के हुनर और मेहनत की रोटी कमाते हैं। कुछ कम हो जाती है तो भी यह सब इस देश की तरक़्क़ी और ख़ुशहाली में आपके हमारे जैसे बराबर के हिस्सेदार हैं। और अंत में, आपने देखा ही सोमा बाई और उनके साथियों ने ख़ुद ही आपकी बातों का जवाब नकारकर दिया। तो यह लोग अब जागरूक हैं, समझ रहे हैं आपके कुचक्र को। आप कब समझेंगे? बंद कीजिए अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए इन मासूम लोगों को भड़काना। नहीं तो यह आपको ही समझा देंगे।” कहकर जैसे ही डॉक्टर चुप हुए, सभी आन्दोलनकर्मियों ने ताली बजाकर अपनी मन की बात का इजहार किया। गैंग पिटा सा मुँह लेकर विदा हुआ। 

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“देखें यह नया प्रस्ताव तैयार किया है। कल उस बस्ती के लोगों के प्रतिनिधिमण्डल से धरना स्थल पर हुई बात के जवाब में,” डीएम ने कहा। 

बिल्डर भुनभुनाया, “इसमें मेरे लिए कटौती है।”

एमएलए संतुष्ट दिखे, उन्हें वोट बढ़ते दिखे। डॉक्टर शुक्ल ने पूरा पढ़कर कहा, “इसमें एक कमी है! वह भी पूरी कर दें तो यह सबसे अच्छा प्रस्ताव ही नहीं बल्कि उन ग़रीब मछुआरों की आने वाली पीढ़ियों के लिए यादगार सिद्ध होगा।”

“अब क्या डॉक्टर साहब?” नेताजी बोले। डीएम उत्सुक दिखे। 

“इसमें एक यह बात और जोड़ें कि हर परिवार के एक व्यक्ति को इन कम्पनियों में नौकरी भी मिलेगी। कभी मुख्य धारा में आने की, इनकी भी तो शुरूआत हो।”

डीएम हँसे, “अरे भाई इतनी जगह और जॉब्स होंगी कि लोग कम पड़ेंगे। हम बाहर से भी लोगों को काम देंगे। हो जाएगा यह। अब जा रहा हूँ सीएम साहब के पास यह फ़ाइनल ड्राफ़्ट दिखाने। फिर कल इसे सबको बता देँगे।”

सीएम आवास में मुलाक़ाती कक्ष। अभी भी ऐसे लग रहा मानो सरकारी दफ़्तर में काम चल रहा। रविवार के बाद भी पीए, सचिव सहित दर्जन भर लोग। 

“हम्म, ठीक है,” देर तक मुआयना करने के बाद वह अपने गले मे पड़ा उपरणा सही करते बोले, “यह अब 21वीं सदी के भारत की सही तस्वीर पेश करता है। जिसमें विकास के नए आयाम भी हैं तो साथ में परंपरागत व्यवसायों से जुड़े लोगों का भी ख़्याल रखा है। इसमें सरकार की तरफ़ से भी कुछ नया इनके लिए होना चाहिए,” कहकर वह मुस्कराए। 

मुख्य सचिव, डीएम आदि ने उनकी ओर देखा। 

“फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट, फ़िशेस को एक्सपोर्ट करने की सुविधा। हमने देखा और पढ़ा है ऐसा रसायन जिसके लेप से मछलियाँ हफ़्तों तक डिब्बाबंद सुरक्षित, खाने योग्य बनी रहती हैं। हम सबका विकास चाहते हैं। लोक के इन तबक़ों के लिए हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा?” 

कुछ देर सन्नाटा रहा। ब्यूरोक्रेट्स ने एक दूसरे की ओर देखा, कुछ मन्त्रणा हुई। मुख्यमंत्री बोले, “क्या हुआ? चुप क्यों है मिश्र जी?” 

मुख्य सचिव, मिश्रा एक घाघ, नफ़ा–नुक़्सान समझने वाला आईएएस, “सर, इन लोगों को इतना सब नहीं देना चाहिए। यह और ज़्यादा डिमांडिंग हो जाते हैं। आप जानते ही हैं मैनेजमेंट का सिद्धांत। कभी किसी को सारे ब्रेड बटर एक साथ न दो। पेटभरा नहीं कि वह अन्य हक़ और सुविधाओं की माँग करेगा।” कहकर उन्होंने समर्थन की तरफ़ देखा तो सभी सहमति में सर हिला रहे थे। 

मुख्यमंत्री मंद-मंद मुस्कराए, बोले, “इतने दशकों से इसी पॉलिसी पर चलते हुए देश का एक बड़ा तबक़ा अभी तक अल्प विकसित ही है। हमारे गाँव, हस्तशिल्पी, कारीगर, मछली पालन, गौसेवक, आदिवासी, दुग्ध उत्पादक, स्वदेशी, कुटीर उद्योग विकसित नहीं हो पाए। क्यों? क्योंकि कई दशकों तक आप जैसे ब्यूरोक्रेट्स और नेताओं ने ऐसी ही उल्टी राय देकर इन्हें आज तक विकसित नहीं होने दिया। ऐसा करते वक़्त आप जैसे लोगों ने यह नहीं सोचा कि यह हमारे संविधान के सबको बराबरी और समानता के अधिकार के ख़िलाफ़ है? इन्हीं नीतियों और सोच की वजह से समाज में आर्थिक खाई और चौड़ी हुई है। पर हम ऐसा नहीं सोचते। और यह प्रस्ताव ऐसा ही जाएगा। हम इसे कैबनेट में मंजूरी के लिए कल ही रखवा रहे हैं।” 

दो दिन बाद डॉ. शुक्ल, सोमा मुखिया, मुख्यमंत्री ने प्रधानसेवक के साथ बेहद गरिमापूर्ण ढंग से एशिया के सबसे बड़े माल और रहवासी योजना का उद्घटान किया। साथ ही मछुआरों के लिए आवासीय कालोनी, फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट की नींव रखी। जो वहाँ से मात्र आधे घण्टे की दूरी पर समुंदर के नज़दीक ही है। जिसमें देश-विदेश के लिए मछली और उससे बनने वाले उत्पादों को पैक करके अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बिक्री के लिए ले जाया जाएगा। दो उद्योगपतियों ने अपने प्रस्ताव भी दे दिये। हर परिवार से एक को नौकरी के अलावा मछुआरिनों की सहक़ारी समिति को लाभांश में पाँच टके का हिस्सेदार भी बनाया गया। और जो अनुपम सौग़ात मिली वह यह नई बस्ती में दवाखाना, स्कूल की सुविधा भी दी जाएगी। वहीं उनके फुटकर मछली बिक्री के लिए पक्की गुमटियाँ भी बनाकर पहले दी जा रही हैं। 

नुक़्सान हुआ स्वार्थ का परन्तु विश्वास और अपनेमन का लाभ हुआ। नफ़े की मात्रा कम की जगह और बढ़ी क्योंकि सहक़ारिता की भावना बढ़ी तो अधिक अवसर मिले। और यह मॉडल बहुत सराहा गया जिसमें पुरातन और आधुनिकता का समन्वय किया गया। 

परन्तु कुछ लोग अभी भी दुखी हैं। उनकी तस्वीरें, टीवी इंटरव्यू जो नहीं आते। रसरंजन करते हुए बेरोज़गार हो चले हैं। दरअसल आप मज़दूर, किसानों, स्त्रियों, आदिवासियों आदि को बार-बार धोखे देने और प्रताड़ित करने की बहुत छोटी सी क़ीमत चुका रहे हैं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 7 Apr, 2022 10:17 AM

    समाज की सच्ची तस्वीर इस कहानी में दिखी । बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण

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