हाइवे

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

अँधेरा इतना घना था कि कुछ मीटर दूर का भी नज़र नहीं आ रहा था। ऊपर से नवंबर की सर्द रात थी। हाईवे का यह लंबा हिस्सा दो लेन ही था। आधी रात हो चुकी थी। अचानक से शाम को आभा की मम्मी के गंभीर हालात में भर्ती होने की सूचना मिलते ही वह चलने को बेचैन हो उठी थी। निकलते-निकलते भी दस बज गए थे गोरखपुर वाराणसी से काफ़ी दूर था फिर भी सुबह तक वह पहुँच जाते। घर को लॉक कर वह दोनों और दसवीं में पढ़ रही बेटी को लेकर निकल पड़े थे कार से। कुछ घण्टे बाद आधे सफ़र पर संजय ने एक मोटल पर कार रोकी थी; सभी ने चाय आदि पी थी। अब वह सब नींद से दूर फ़्रेश थे। तभी कार हिचकोले खाने लगी। 

“क्या हुआ? पेट्रोल तो है? तुम हमेशा चेक करते हो।” 

“सब ठीक-ठाक है। पता नहीं क्या हुआ?” संजय के सँभालते-सँभालते भी कार बंद होने लगी। उसने एक किनारे कार की। इतने घने जंगल में ही ख़राब होना था इसे। यह इस हाईवे का वह हिस्सा था, जहाँ काफ़ी दूर तक यही कच्ची-पक्की सब-रोड थी बस। क़रीब दो किमी बाद ही वापस सिक्स लेन से यह जुड़ जाती। पर यह . . . “इसे भी अभी ख़राब होना था,” संजय स्टेयरिंग पर हाथ पटकता बोला। 

“पापा हम कहाँ है? मुझे बहुत डर लग रहा है,” गार्गी, उनकी बेटी बोली।

“डरते नहीं बेटा, जल्द चलेंगे यहाँ से,” आभा ने बेटी को चिपकाते हुए कहा। संजय दाएँ-बाएँ देखता कार से उतरा। कोई मिस्त्री भी कहाँ होगा रात के दो बजे। क्या रात यहीं बीतेगी? यह सोचकर उसने एक बारगी कार में चिपककर बैठे आभा और गार्गी को देखा। यहाँ इस सब-रोड पर वाहन भी कम ही आते थे। बुरे फँसे, उसने सोचा। मोबाइल का नेटवर्क भी काम नहीं कर रहा था।

“अंदर आओ और बैठकर सुबह होने का इंतज़ार करो,” उसकी समझदार, ख़ूबसूरत पत्नी ने कहा। 

कार में बैठे-बैठे झपकी आने लगी, न जाने कितना समय बीता। कार के शीशों पर ठक-ठक की आवाज़ से उनकी तन्द्रा टूटी। देखा आगे एक बोलेरो खड़ी थी। और एक आदमी काँच के बाहर कुछ कह रहा था। आभा बोली, “नहीं-नहीं काँच मत खोलिए, यह लोग ठीक नहीं लगते।” 

उसके हाथ काँच नीचे करते रुक गए। उसने बाहर देखा, अँधेरे में एक आदमी काँच के पास था और दो सामने। बोलेरो कार के आगे तिरछी थी। काँच वाला कुछ कह रहा था। आभा धीरे से बोली, “मुझे यह सही आदमी नहीं लगते। रुको, बाहर मत जाओ।”

“पापा, मुझे भी यह सही नहीं लगते।” 

नींद का असर, सर्दी, कार ख़राब, और यह मददगार। वह कार का काँच नीचे करने ही वाला था कि टॉर्च की तेज़ रोशनी पीछे की सीट पर पड़ी। देर तक टार्च दोनों को देखती रही। कभी-कभी रोशनी भी कितनी चुभती है। वह उनको देखता कुछ चिल्लाया। और हाथ से इशारा किया। दोनों लोग कार पर झपटे और दरवाज़ों के हैंडल खोलने लगे। सेंट्रल लॉक था, नहीं खुलना था नहीं खुले। भेड़ियों की तरह वह तीनों मुँह पर कपड़ा बाँधे कार के चारों ओर घूमने लगे। पीछे आभा और गार्गी और सिमट गईं। उसने कार के इग्नीशन को फिर कोशिश की। घर्र-घर्र की आवाज़ आई। 

“भगाने की कोशिश कर रहा है यह तो,” कोई बाहर से चिल्लाया। 

फिर हँसने की आवाज़ आई, “कर  ले कितनी भी कोशिश, पर बचेगा नहीं।” 

वह तीनों भेड़ियों ने कुछ सोचा। उधर आभा को लग गया था कि यह लुटेरे कुछ भी कर सकते हैं। वह कोस रही थी अपने आपको कि क्यों उसने तुरंत चल पड़ने की ज़िद की? माँ को भाई ने भर्ती करवा दिया था। तो वह कल दिन में भी चल सकती थी। उधर संजय कुछ करने की सोच रहा था। तभी एक ज़ोरदार लात दरवाज़े पर पड़ी। लेकिन मज़बूत गाड़ी थी। कुछ नहीं हुआ। फिर उसने दोनों हाथों का दुहत्थड़ कार के काँच पर मारा। पर मज़बूत काँच हिले भी नहीं। क्या वह सेफ़ थे? आभा ने एक पल सोचा, फिर पर्स से मोबाइल निकाला। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस भाग में नेटवर्क नहीं था। 

“कुछ नहीं होगा उस्ताद इससे। रुको कुछ करता हूँ। आसपास पत्थर भी नहीं है।” 

“जल्दी कर, अबेर हो रही है,” वह बोलेरो की तरफ़ लपका। आभा और गार्गी की चीख निकल गई। उसने बोलेरो से लोहे की एक मोटी छड़ निकाली थी। वह उसे लेकर कार के पीछे जाने लगा कि दूर किसी वाहन की हेडलाइट चमकी। वह ठिठक गए। छड़ वाला सड़क किनारे खेतों में छिप गया। 

‘क्या हमें मदद के लिए आवाज़ लगानी चाहिए? पर काँच नीचे नहीं कर सकते। फिर?’ उसने कार के पार्किंग सिग्नल ऑन किए। तेज़ हॉर्न बजाना प्रारम्भ किया। तभी एक तेज़ आवाज़ हुई। डंडे की चोट से लाइट टूटकर एक ओर लटक गई। उसकी आँखें सामने खड़े, विंडस्क्रीन के पार खड़े, कपड़ा बाँधे व्यक्ति, जो उनका सरगना लगता था, की लाल लाल भेड़िए जैसी आँखों से टकराईं। बायीं आँख के ऊपर एक मस्सा था। उसे कुछ स्ट्राइक हुआ। यह मस्सा . . . अरे हाँ, अभी जब वह मोटल पर रुके थे तो यह तीन लोग उनके आगे आकर बैठे थे और . . . और वह सब बातें समझ गया। उसकी आँखों के सामने हाईवे के लुटेरे थे। न जाने कितनी घटनाएँ उसने पढ़ीं थीं अख़बारों में, वह आँखों के सामने घूम गईं। मारकर लाशें नहर में फेंक देते हैं। महिलाओं के साथ . . . वह सोच नहीं सका। आपादमस्तक काँप उठा। गर आभा ने ज़िद की थी उसी वक़्त चलने की तो वह मना कर देता। उसे समझदारी दिखानी थी। ऊपर से बेटी को इतना लाड़ करता है वो कि उसे भी घुमाने के बहाने साथ ले आया। जबकि वह बेचारी मना कर रही थी कि पापा मैं यहीं रह लूँगी। सर्दी में भी उसके माथे और कनपटियों से पसीना बह उठा।

तभी नज़दीक आती कार तेज़ रफ़्तार से गुज़री। कार वाले ने दो पल भी नहीं देखा की कोई मुसीबत में था। वह तो हवा हो गया। 

टॉर्च इस बार चमकी इतने नज़दीक से मानो आभा और गार्गी को निगल जाना चाहती हो। घटाटोप अँधेरा हाईवे पर ख़राब की गई कार और यह तीन भेड़िए। इतने नज़दीक पीछे वाले काँच पर वह था कि उसकी मुँह के तम्बाखू भरे पीले दाँत तक दिख रहे थे। वह समूचा ही आभा और गार्गी को निगल रहा था मानो।

”हरामज़ादे, कुत्ते दूर हट,” संजय चिल्लाया। हाथों को लहराता। तभी सामने वाले ने स्क्रीन पर हाथ चलाया। एक छेद हो गया। कुल्हाड़ी की तीखी फलक उसे अपने गले में फँसती लगी।

”यह सही है उस्ताद। पर साइड के काँच पर चलाओ। इससे तो देर लगेगी और दरवाज़ा नहीं खुलेगा। और काँच चुभेगा।” 

विंड स्क्रीन के छेद होते ही गार्गी कसकर माँ से लिपट गई। 

“मम्मा, मम्मा, क्या होगा? यह मार डालेंगे हमें।” 

“नहीं मेरी बेटी, आपको कुछ नहीं होगा। आप बिलकुल मत डरो। कुछ करते हैं हम बेटे,” कहकर व्याकुल हो उसने कार के पीछे वाले काँच से बाहर देखा। उफ़, काँप गई वह। वहाँ काँच पर चेहरा लगाए वह मुँह ढके आदमी उसे ही देख रहा था। बेटी को और चिपका लिया उसने। तभी दूर किसी वाहन की लाइट चमकी। कुल्हाड़ी की जगह सब्बल से काँच तोड़ने को आमादा वह रुके, देखा, “यार, यह इबकी बार कोई आए, मैं काँच तोड़ दूँगा।” 

“अरे रुक तो सही, कोई गाड़ी है, निकलने दे। वैसे भी यह शहरी लोग इतने बेवक़ूफ़ होते हैं कि कोई भी मर रहा हो, इनकी बला से।” 

दूसरा वाला हँसकर बोला, “बाऊ के पास माल मोटा होना चाहिए। कार काफी महँगी लग रही मन्नै।” 

“मुझे तो पीछे वाला माल चाहिए,” यह लाल आँखों वाला, जो नशे में भी था, बोला। 

तभी वह गाड़ी पास आती धीमी हुई और साइड में रुकी। 

“क्या हो रहा है? अभी तक क्यों रुके हो?” संजय ने देखा, यह तो पुलिस जीप थी। एक वर्दीधारी मोटा कुछ कह रहा था उनसे। उसकी जान में जान आई। वह कार खोलकर बाहर निकलने को हुआ।

“रुको, देखो पापा,” पीछे से गार्गी ने इशारा किया। वह पीछे देखने मुड़ा और . . .  हैरान रह गया। दूसरा पुलिस वाला जीप बंद करके न जाने कब कार की साइड से टॉर्च डालकर अंदर देख रहा था। और उन दोनों से हँस-हँसकर बात कर रहा था।

“अब तक क्यों नहीं किया काम सूबेदार? 4 बजने लगे हैं। काम करना बंद करवा दूँगा इस रोड पर।” 

“अरे साहब, कर ही रहे थे कि आप आ गए। अभी रुको, करते हैं आपके सामने ही।” 

“न यह सब मेरे जाने के बाद करियो। हिस्सा कल चौकी पहुँच जाए,” ताकीद कर वह दोनों पुलिस जीप में निकल लिए। अंदर आभा सन्न रह गई। संजय को काटो तो ख़ून नहीं। गार्गी नहीं टोकती तो वह कार से बाहर आ रहा था उन पुलिस वालों को देख, मदद के लिए। ‘इस धरती पर जिसे जो काम मिला है वह उसे पूरी ईमानदारी से क्यों नहीं करता?’ उन्हें बचने की अब कोई राह नज़र नहीं आई। 

अब वह सब और ख़ूँख़ार हो गए। एक ने कहा, “इसे समझाते हैं, उस्ताद, शायद समझ जाए अब तो।”

“न इब समझावे को टाइम गयो ताऊ। इब तो यह . . .” कुल्हाड़ी का तीखा फल क्षण भर चमका और ड्राइवर सीट के काँच में जा धँसा। दो चोटे और वे उसकी गिरफ़्त में। उसने तेज़ हॉर्न बजाना प्रारंभ किया। लगातार। ब्लिंकर्स टूट चुके थे। तभी फिर किसी गाड़ी की लाइट चमकी। 

“रुक . . . इसे निकलने दे।”

“जल्दी करो उस्ताद अब सब्र नहीं हो रहा। पीछे वाली को पहले मैं ले जाऊँगा खेतन में। छोकरी ते ले लेना,” कहकर उसकी नशे से लाल आँखों में डोरे चमके। 

तभी वह कार नज़दीक आती धीमी हुई। उन्होंने शायद हॉर्न की तीव्र आवाज़ सुनकर मुसीबत का अंदाज़ा लगा लिया था। उन तीनों की आँखों में आशा की किरण चमकी। अब शायद बच जाएँगे। वह धीमी होते-होते फिर तेज़ होकर निकल गई पास से। 

शायद कुल्हाड़ी और चेहरों पर कपड़ा बाँधे इन लुटेरों को देख लिया था उस कार वाले ने। लुटेरों ने भी देखा।

“उस्ताद जो करना है जल्दी कर लो। वरना दिक़्क़त हो सकती है।” 

“अरे क्या दिक़्क़त, जब अभी थानेदार चक्कर लगाकर गया है,” गैंग लीडर बोला और फिर कुल्हाड़ी को तैयार करने लगा। आभा और गार्गी आने वाली विपत्ति से घबराकर ऐसे हो गए थे कि अब बेहोश हुए। संजय ने पीछे मुड़कर देखा और सामने काँच पर कुल्हाड़ी चलाने को तैयार आतंक को देखा। यक़ीनन कुछ मिनटों में काँच टूटने वाला था और फिर . . . जो होता है बहुत भयानक होता।

“तुम सावधान रहना और मौक़ा देखकर भाग जाना। मैं बाहर जा रहा हूँ। कब तक डरे, सहमे रहेंगे। सामना करना ही अच्छा होगा। इन्हें बातों में लगाता हूँ। अपना पर्स लाओ।” तीखा, छुरे-सा समय गले पर धार-सा चल रहा था। 

“पापा . . .” कहते हुए गार्गी रोने लगी, “मत जाओ पापा।” 

धड़ाम की आवाज़ हुई। देखा कुल्हाड़ी का फलक निकल गया था। और वह उसे नीचे तलाश रहा था। दो पल मिल गए थे। 

“अच्छा जैसा कहा है वैसा करना यह बायीं ओर ध्यान रखेंगे। तुम्हें दाईं ओर सड़क के पार भागना है।” 

“और तुम? जब हम भाग जाएँगे तो तुम्हारा क्या हाल करेंगे यह जानते हो?” कहते-कहते आभा की आँखें भर आईं। 

कुछ पल उसे देखता रहा वह। फिर दृढ़ता से बोला, “ईश्वर ने चाहा तो ज़रूर फिर मुलाक़ात होगी। और कोई रास्ता नहीं। यह काँच टूटेगा, कार खुलेगी फिर हम सब . . . अभी मैं उतरकर कार का सेंट्रल लॉक कर दूँगा। तुम पीछे से जब मौक़ा लगे दरवाज़े खोलकर भाग जाना। 

तभी गार्गी, जिसके आँसू सूखे नहीं थे, वह बिटिया बोली, “पापा, दोनों दरवाज़े खोलकर भागेंगे तो यह तय नहीं कर पाएँगे कि किसे पकड़ें? और हम आगे निकल जाएँगे।” 

संजय ने सोचा और आभा की ओर देखा। 

“नहीं, बेटी को साथ लिए ही जाऊँगी। चाहे जो हो जाए, बेटी पर आँच नहीं आने दूँगी,” आभा के चेहरे पर अजीब से भाव थे। उसने पर्स में से फल काटने वाला चाकू निकाल कर अपने सूट की जेब में छुपा लिया था। 

फलक मिल गया था और उसे वह सड़क पर ठोक कर ठीक कर रहा था। एक सामने था और एक ठीक पीछे। 

“ठीक है फिर मैं निकलता हूँ,” और संजय ने कार लॉक को चुपके से अनलॉक किया और तेज़ी से बाहर आया। आते ही सामने वाला झपटा पर उसने कार गेट का सेंट्रल लॉक दबाकर उसे फ़ुर्ती से बंद कर दिया। और हाथ उठाकर सामने बढ़ा। लुटेरे हतप्रभ रह गए।

“आप लोग यह सब ले लो पर हमें शान्ति से जाने दो। आपकी बहुत मेहरबानी होगी,” संजय ने दोनों हाथों से अपना पर्स और आभा का पर्स सामने किया। तब तक कुल्हाड़ी तैयार कर्त्ता और पीछे वाले ने उसे घेर लिया था।

“उस्ताद, यह तो . . .” फिर उसने बैग झपट लिया। खोलकर देखा। आभा के पर्स में 500 के नए नोटों की गड्डी देख उसकी आँखें चमकीं। फिर उसने संजय की ओर देखा, “श्यामू कवर रखियो।”

“उस्ताद कहीं नहीं जाने दूँगो इसे। तुम फ़िक्र मत करो।” उसके पर्स को खोला, वह भी नोटों से ठसाठस भरा था। जल्दी-जल्दी में संजय बीस हज़ार ही ला पाया था। कपड़े बँधे चेहरे में उनकी आँखें चमकीं। फिर चेन, अँगूठी, मोबाइल का नंबर आया।

“यह मोबाइल तो मैं लूँगा। उस्ताद पिछली बार का इसने लिया था।” 

“अरे पकड़ा जाएगा,” उस्ताद समझदार था। 

“नहीं उस्ताद, वह मुन्ना मोबाइल वाला है न; वह इसका लॉक तोड़ लेता है। और फिर कोई चिंता की बात नहीं।” 

“अच्छा, ऐसा है तो ले लियो तू। अब ऐसा है बाबू . . . अरे अरे . . . भाग रही है, पकड़ो उन्हें . . .” कहते-कहते वह लपका। लेकिन संजय ने उसे अपने हाथों में पकड़ लिया। 

“उन्हें जाने दो, वह निर्दोष हैं। उन्होंने कुछ नहीं बिगाड़ा तुम्हारा,” तभी पीछे से एक ने कुल्हाड़ी से संजय पर वार किया। ऐसा लगा मानो, शरीर में आग लग गई हो। शिथिल होकर गिरते-गिरते उसने देखा बायीं ओर की झाड़ियों में आभा और गार्गी घुस रही हैं। वह राहत की साँस लेने ही वाला था कि एक ने हाथ में पकड़ा डंडा फेंका। सनसनाता डंडा जाकर खेत में आधी घुस चुकी गार्गी के पैरों पर जाकर लगा। वह लड़खड़ाई, सँभलने को हुई . . . और फिर गिर पड़ी। 

“श्यामू भाग, पकड़ छोरी को।” 

आभा अँधेरे में दूर निकल गई थी। पर गार्गी . . .

कुछ मिनटों बाद ही चाकू संजय के गले पर था, गार्गी को कस के एक ने पकड़ा हुआ था। और तीसरा कार से दोनों सूटकेसों को अपनी गाड़ी की डिक्की में रख चुका था। फिर वह संजय पास आया। कुछ पल उसे देखा, और फिर उसके लोहे जैसे सख़्त हाथ संजय के मुँह और शरीर पर पड़ने लगे। गालियाँ बकता वह उसे पीटता रहा।

“साले, हमसे होशियारी दिखाएगा। हम्म। और अब देख तुम्हारी लाशों के भी पता नहीं चलेगा।” 

संजय ख़ामोशी से पिटता सोच रहा था कोई रास्ता।

“बेटी को जाने दे। बच्ची ने तेरा क्या बिगाड़ा है? तुम्हें जो चाहिए था मिल गया।” 

“उस्ताद, कुछ करो। बहुत दिन हो गए। मैं इसे लेकर जा रहा हूँ,” श्यामू की भूखी निगाहें गार्गी को कस के जकड़े थीं।

“पापा . . .” गार्गी चीखी।

“हरामज़ादे, बच्ची को छोड़ दे।” 

उसने दो पल संजय को देखा और उसके पेट पर ज़ोर से लात जमाई। चुप, अब बोला तो काट के फेंक दूँगा। 

“क्या श्यामू, जाने दे इसे? काम तो हो गया, माल भी आ गया।”

“अरे उस्ताद, इतने दिनों बाद तो मिली कोई . . .  और वह तो भाग गई जो जमी थी।” 

“हाँ, ठीक है तेरी बात पर देख वह अँधेरे में यहीं कहीं होगी। अभी बुलाते हैं उसको,” कहकर वह गार्गी के पास आया। गार्गी सिकुड़कर अपना विरोध दर्ज कराती रही पर उसके दोनों हाथों को वह जकड़े हुए था। तभी उसने गले पर चाकू रख दिया। पंद्रह साल की गार्गी, जिसने अभी दुनिया ढंग से देखी भी नहीं थी। और अपने पापा के सामने वह उस तरह मौत के इतनी नज़दीक।

“पापा, मम्मी बचाओ!” उसकी मासूम आवाज़ रात के अँधेरे में दूर तक गूँजी।

“अभी देखो क्या होता है . . .” कहकर उसने लड़की के बालों को सहलाया और अचानक कस के खींचा। पीड़ा से गार्गी की आँखों में आँसू आ गए। वह उसे खींचता हुआ आगे खेत के सामने ले आया, “श्यामू टॉर्च दिखा।” 

वह क्या करना चाहता था? शायद . . . और संजय तड़पा, बेटी चीखने लगी। संजय ने कोशिश की, “छोड़ दो मेरी बेटी को, तुम जो कहोगे मैं करूँगा। रहम करो उस पर।” उसने कपड़ा बँधे चेहरे से संजय को देखा, मुस्कराया, कुछ बोला नहीं। 

तब तक पुरवइया चलने लगी थी, वह मुड़ा और ज़ोर से बोला, “देख, तेरी छोरी की गर्दन चाकू पर हैे मेरे। तू मुझे सुन रही है, देख रही है। जहाँ भी छुपी है बाहर आजा। वरना इसका क्या अंजाम होगा, तेरे से छुपा नहीं है।”

कहकर उसने गार्गी के बालों को खींचा, गार्गी चिल्लाई, “मम्मी मत आना बाहर। यह लोग बहुत ख़राब हैं।” 

सारा खेल स्पष्ट था। बहुत ही ख़तरनाक, मक्कार लोग थे। संजय को डर लगने लगा कि कहीं आभा आ न जाए वापस। और उसके आगे क्या होगा यह छुपा हुआ नहीं था। कुछ देर तक वह कान लगाए आहट लेता रहा, फिर बोला, “देख तेरी छोरी को छोड़ दूँगा, अगर तू आ जाती है। बोल, या छोरी को ही . . .” 

संजय की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। इरादे साफ़ थे। बड़ी देर से कोई गाड़ी भी नहीं निकली थी।

“तू मत आ फिर। आज चलो इसी की बलि चढ़ेगी,” वह मुड़ा ही था कि सामने खेत में आहट हुई। कुछ झाड़-झंखाड़ चरमराया।

“मैं आती हूँ बाहर, पर मेरी बेटी को छोड़ दो। उसे जाने दो।” दूर से आती आभा की आवाज़ में माँ की ममता ही नहीं, औरत की मजबूरी और बेबसी थी। 

वह रुका, ठिठका, अपने दोनों साथियों को विजयी भाव से देखा, मेरी ओर देखा फिर बोला, “तू बाहर आजा इसे छोड़ता हूँ।” 

संजय ने देख लिया अब कुछ नहीं किया तो भी जान जानी ही है। जान की बाज़ी लगानी ही होगी। एक संजय पर कुल्हाड़ी ताने था। दो वहाँ आगे थे। लेकिन गार्गी उनके क़ब्ज़े में थी। संजय कुछ करता तो वह उसे मार देते। यह इतने धूर्त होंगे, संजय ने सोचा न था।

”बाहर आने के बाद तुमने नहीं छोड़ा तो? और वैसे भी मेरे पति तुम्हारे क़ब्ज़े में हैं। तो मेरी बेटी को जाने दो, मैं बाहर आती हूँ। वरना कुछ ही देर में सवेरा होने वाला है।” 

वह ठिठका, रुका, सोचा और बोला, “चल तेरी ही बात सही।” 

“अरे उस्ताद, यह क्या कर रहे हो?” श्यामू ने भागकर खेत में जाती गार्गी को देख हड़बड़ी में कहा।

“चिंता मत कर रे, वह आएगी, ज़रूर आएगी, नहीं आई तो . . .” उसका स्वर क्रूर हुआ, “विधवा बनकर रहेगी।” यही अवसर देख संजय ने अपने को छुड़ाने के लिए ज़ोर लगाया।

“बाबू, यह पहलवान की पकड़ है। ऐसे ना छूटेगी। और हिलडुल मत करियो, वरना मेरा दिमाग चल गया न, तो यहीं मरा मिलेगा।” 

“तुम्हारा क्या बिगाड़ा है हमने? सारा माल ले लिया तुमने। अब हमें छोड़ दो। क्या तुम्हारे घर में बहू-बेटियाँ नहीं हैं? वैसे ही हम हैं। रहम करो। चाहे तो कार भी ले जाओ।” 

उनका लीडर कुछ देर अँधेरे में देखता रहा, “जल्दी आती है बाहर कि मैं आऊँ अंदर?” फिर घूमा और बोला, “देखो बाउजी, हम हैं हालात के मारे। हमें भरोसा नहीं कब तक जिन्दे रहेंगे? घरों में खाने को नहीं। भूखे पेट रह रहकर दिमाग कुंद हो गया। मजूरी, हमाली सब की। पर . . .” कहकर रुका, ठिठका, फिर गहरी साँस ली, “सब जगह पैसे की माया। तुम लोगों की दुनिया इतनी क्रूर है कि हमारे जैसे लोगों को इंसान ही नहीं मानती। मदद माँगते हैं तो पहले शक करते हो हम पर कि यह झूठ बोल रहा है। मेरी घरवाली बीमार पड़ी और सरकारी अस्पताल में तड़प-तड़प कर मर गई। डॉक्टर पाँच हजार रुपए के बिना आपरेशन नहीं कर रहा था। मैंने पाँव पकड़े, हाथ जोड़े उसके कहा कि पाई-पाई दे जाऊँगा, कर दे ऑपेरशन बच जाएगी। तुझे दुआएँ मिलेगी। पर साहब नहीं माना वो। घर से आया ही नहीं। मर गई और साथ में उसके पेट में नन्ही सी जान भी चली गई,” कहकर वह रुका, इशारा किया, “यह दोनों तब वहीं बाहर खड़े थे, जब मैं एम्बुलेंस के पैसे नहीं होने पर घरवाली को साईकल पर लेकर धीरे-धीरे सिर झुकाए जा रहा था। और उसकी लाश कभी टिककर ही नहीं बैठ रही थी। कभी यहाँ तो कभी वहाँ से झूल रही थी। बहुत चुलबुली थी न, हमेशा हँसती रहती थी। घर में कुछ नहीं होता तो भी हँसके कहती—आज मुन्नी के बापू हम हवा खाकर सोएँगे।” 

कहकर वह हँसा, मानो वह सामने ही हो। फिर आँखें पोंछता बोला, “इन दोनों ने मुझे तब सँभाला, हाथ बँटाया। क्रियाकर्म तक साथ रहे। और तब से साथ हैं।” 

गार्गी ज़रूर आभा के पास पहुँच गई थी। संजय ने देखा, अँधेरा घना था, ज़रूर तड़के का वक़्त हो रहा था।

“पहला नंबर उसी डॉक्टर का लाग्या,” श्यामू बोला, “उसे उस पल्ले वाले हाईवे पर घेरा और तड़पा-तड़पाकर मारा। जो सामान था लूट लिया, ताकि मामला लूट का लगे। तब, जब कुछ माल मिला तो घरों में रोशनी आई, पेट में अन्न गया। पर यह पंडित नहीं माना। बोले कि गलत है। बदला हो गया अब बंद करो। हम बैठे रहे कुछ समय। पर करते क्या? वही नरक और रास्ते बंद। जो लम्बरदार कहे उसी को सरकारी योजना में काम मिले। हमें नहीं। 

“पंडित कुछ किताब-विताब पढ़कर आया और बोला कि यह शोषण चलता रहेगा। हमें इसे कम करना है तो ताकत का इस्तेमाल करना होगा। इन सभी अमीरों को मारना होगा।” . . . पंडित बोला। “तब से यह हम काम कर रहे हैं भैया। और एकाध बार पकड़े गए तो फिर तीन की जगह चार हिस्से होने लगे। अभी गया न वह चौथा हिस्सेदार,” कहकर उसने गुटखा सड़क पर फेंका। 

“अगर मेरी कार ख़राब न होती तो?” संजय तड़पकर बोला।

“क्या?” फिर श्यामू ठहाका मारकर हँसा, “तुम जब चाय पी रहे थे तो साइड में खड़ी तुम्हारी कार के एग्जास्ट पाइप को मैंने ही लकड़ी के टुकड़े से ब्लॉक किया था। यह देखो . . .” वह पीछे गया और झुककर पाइप में से लकड़ी के टुकड़े को खींचकर दिखाता बोला, “अब तुम्हारी गाड़ी एकदम सही है।” 

संजय क्षोभ और बेबसी से दाँत भींचता रह गया।

“वह तो कार ढाबे के साइड में नहीं थी, वरना कार के नीचे घुसकर पेट्रोल नली काटने में यह भी माहिर है, फिर मुश्किल से 1 किमी बाद पेट्रोल ख़त्म तो कार बंद। तो तुम अपनी लापरवाही की क़ीमत चुका रहे हो।” उसने कुल निष्कर्ष बताया। 

तभी, “उस्ताद, वह देखो . . .” खेत के पीछे खुले हिस्से से कोई आ रहा था। टॉर्च की रोशनी उस तरफ़ घूमी। आभा, उसकी पत्नी आ रही थी। चेहरे पर अजीब से भाव लिए वह एक माँ थी, पत्नी थी। सीता थी, द्रोपदी थी, जो फिर दाँव पर थी। सैंकड़ों साल से हर ताक़तवर, आतताई की जीत स्त्री को कुचले बिना पूरा नहीं होती। वह जो नारी है, धरा है, सृष्टि का आधार है। वह शायद इन आतताइयों को जन्म देने के अपराध का ऋण हर सदी में, हर दिन चुकाती है। चुका रही है। 

उस्ताद के इशारे पर आभा को लेकर श्यामू उसी खेत के अंदर जा रहा है। 

♦     ♦     ♦

कार हाइवे पर आ गई थी। दूर सूर्य की लालिमा दिखाई दे रही थी। नए दिन के आगमन में आसमान धीरे-धीरे सज रहा था। संजय ने कार को फ़ास्ट लेन में डाला और अस्सी के ऊपर कार उड़ती हुई जाने लगी। 

उधर खेत के पिछले हिस्से में तीन लाशें पड़ीं, मानो बता रही थीं, कभी भी कुछ भी, किसी के भी साथ हो सकता है। 

“उसको धन्यवाद तो दे देती!”

“समय ही कहाँ था? बस जल्द निकलने को ही वह कह रही थी,” आभा पीछे की सीट पर बेटी को चिपकाए सुकून से बैठी थीं। 

सारा घटनाक्रम मानो उसके साथ हुआ ही नहीं, वह एक बुरा सपना था। जिसमें नारी की पीड़ा दैवीय शक्ति से हर ली गई थी। 

श्यामू जब और अंदर गया खेत के पिछले हिस्से में उसे लेकर तो मानो उस पर बिजली गिरी। हंसिये के एक ही वार से उस ग्रामीण महिला ने उसके दिल को छिन्न-भिन्न कर दिया। ज़मीन पर गिरने से पहले वह मर चुका था। कुछ देर के बाद जब सब्र नहीं हुआ तो उस्ताद अंदर आया। आने से पहले वह हाथ मुँह बाँधकर संजय और गार्गी को कार में पटक आया। इस बार घायल सिंहनी की तरह वार आभा ने किया। आवाज़ निकलने से पहले गला आधा कट गया था। तीसरा बाहर था भोर बस होने वाली थी। उसे स्त्री स्वर की पुकार सुनाई दी। अपनी बारी की ख़ुशी में वह अंदर बढ़ चला। 

दिशा-मैदान को आई वह महिला आभा को हाथ पकड़कर सड़क पर लाई। 

“जा जल्दी से चली जा यहाँ से। भूल जा यह सड़क, यह मोड़। कभी मत आना यहाँ।” कह के वह मुड़ी और खेत के पास के रास्ते पर चलती हुई अंधकार में विलीन हो गई। 

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  • सुंदर कथानक..आम जीवन की सच्चाई से रूबरू. बधाई लेखक को और साहित्य कुंज प्रकाशन को.

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