आलोचना: सांस्कृतिक प्रदूषण करता मनोरंजन उद्योग

01-05-2022

आलोचना: सांस्कृतिक प्रदूषण करता मनोरंजन उद्योग

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

बीज शब्द: मनोरंजन, संस्कृति, परिवार, फ़िल्में, दुष्प्रभाव, भटकन। 

 

शोधसार

प्रस्तुत आलेख में यह बताया गया है की किस तरह हमारे घरों से लेकर सेलफोन तक आने वाला मनोरंजन मानसिक रुग्णता, प्रदूषण और अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रहा है। फ़िल्म, टीवी वालों को अपने मुनाफ़े से मतलब है। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं की मूल्य आधारित, गहरी सांकृतिक पहचान के हमारे देश में सदैव स्त्री, बुज़ुर्ग सम्मानीय रहेंगे। और परिवार का अर्थ बुज़ुर्गों से दूर जाना नहीं बल्कि सबके साथ तालमेल बिठाकर हर सुख दुख को साझा करना होता है। यह लेख मनोरंजन उद्योग की इन्हीं विचलन, विसंगतियों को सामने रखता है। 

मानव स्वभाव से उत्सवधर्मी, रचनात्मक, ख़ुशी और उल्लास को बढ़ाने वाला होता है। आज से ही नहीं प्राचीन काल से यह चली आ रही रीत है। इसके लिए वह विभिन्न यत्न भी करता रहा है। प्राचीन भारत में जानवरों की दौड़, खेल (आज भी है), चौसर, पतंगें उड़ाना, नृत्य, संगीत, गायन, लोक नाट्य, चित्रकारी (अजंता एलोरा, कंदरिया महादेव, मध्यप्रदेश के चित्रों को कौन भूल सकता है) मनोरंजन, जीवन के उल्लास और जोश का प्रतीक है। वहीं यह भी बताता है कि सब सही चल रहा है। फिर समय बदला और मनोरंजन के नए नए माध्यम आए। फ़िल्में, टीवी हो या आज के ओटीटी, नेटफ़्लिक्स, अमेज़ॉन प्राइम, सोनी लिव, वूट, से लेकर सोशल मीडिया। यह धीरे धीरे एक विशाल उद्योग बन गया। जब बन गया तो उसके सिद्धांत भी बदलकर वही उद्योग वाले हो गए। यानी मुनाफ़ा, मुनाफ़ा और किसी भी क़ीमत पर मुनाफ़ा। भले ही इसके लिए देश के क़ानून की पतली गलियों से बचकर हिंसा, योनदृष्य, खुलापन और वैमनस्य ही क्यों नहीं दिखाया जाए!! बस उद्देश्य बन गया मुनाफ़ा कमाना। 

मानव का अवचेतन हमेशा से अंधकार या छुपे पक्ष की तरफ़ अधिक आकर्षित होता है। ब्रटेंड रसेल (1872–1970, ब्रिटेन के चिंतक) कहते हैं, “मनुष्य जाति ऐसी अवस्था में पहुँच गई है जैसे एक मनुष्य कठिन व ख़तरनाक ऊँचाई पर चल रहा है। इसके अंतिम छोर पर प्यारी वादियों से भरा एक हिस्सा है। प्रत्येक क़दम के साथ उसका गिरना, यदि वह गिरता है तो, अधिक भयंकर होता जाता है। हर पग पर उसकी थकान बढ़ती जाती है और चढ़ाई और कठिन होती जाती है। अंत में एक ही पग रह जाता है।” यह वही अंधी दौड़ और चढ़ाई है और अब एक ही पग रह गया है जो बचे हैं। बाक़ी तो हर क़दम के साथ लुढ़कते हुए गर्त में समा गए हैं। बढ़ते अपराध, हिंसा, नशे की प्रवृति, देश का अपमान आदि आदि क्या नहीं है हमारे समाज में। ऊपर से कोई सही बात कहे, समझाए तो उसे बिल्कुल भी नहीं मानना। कुतर्क, ज़िद, आँख पर पट्टी बाँधकर चलना। 

आज के समय में सही और ग़लत का भेद मिट गया है। झूट नए, आकर्षक और आपके मन के अनुरूप उपलब्ध है। आपकी सहूलियत के अनुसार वह रंग रूप बदल बदलकर आता है। मानव मन की कमज़ोरियों, इड़ा से लेकर नो रसों तक सब में वह पैठ कर चुका। अचानक नहीं बल्कि लंबे वक़्त से यह सांस्कृतिक प्रदूषण चल रहा है। और नतीजा समाज और विशेषकर महिलाएँ, बच्चे इसके शिकार हो रहे हैं। इस प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार कौन कौन हैं, कैसे यह हो रहा है और सबसे बढ़कर क्या बहुत कुछ जो बचा है उसे अब हम कैसे सँभाल सकते हैं? इन बिन्दुओं पर व्यवहारिक और वर्तमान समय को देखते हुए विमर्श ही नहीं बल्कि आवश्यक उपाय भी होने चाहिएँ।

संस्कृति क्या है? 

“संस्कृति के चार अध्याय” में दिनकर कहते हैं, “किसी राष्ट्र की प्रगति, जीवंतता और धड़कने यदि किसी चीज़ से नापनी हो तो वह है संस्कृति। यही हमें हर लोक और काल में जीने का ज़रिया बनती है। संस्कृति विहीन मनुष्य निरा शिला समान है।” संस्कृति हमारी थाती ही नहीं वरन्‌ हमारे साथ हमारी साँसों में धड़कती जीती जागती है। भाषा, बोली, रीति वाणी, साहित्य, मनोरंजन, जीवन मूल्यों और संस्कारों से एक मनुष्य (स्त्री और पुरुष) निर्मित होता है। आप उसके बोलने, व्यवहार से उसके संस्कारों, स्तर और समझदारी को भाँप सकते हैं। प्राचीन काल की बात नहीं करते लेकिन हम अपनी धरोहरों को, मूल्यों को विशेषकर आज़ादी के बाद तो अपने आपको समझ और जान सकते हैं। उसके लिए शिक्षा, समाज, विद्वान हैं। परन्तु एक सशक्त माध्यम है मनोरंजन जगत और उसके विविध आयाम। जो चीज़ें लाख पढ़ने या बोलने से समझ नहीं आती वह दृश्य के रूप में देखने से जल्द समझ में आती हैं। विशेषकर जब हम 21वी सदी में पूरी गति और त्वरा के साथ बढ़ रहे हैं। यही माध्यम जिसमें फ़िल्म, टेलिविज़न, ओटीटी आदि आते हैं पूरी तरह से गुमराह करने में लग जाएँ तो? जिन्हें करोड़ों लोग देखते हैं वह कुछ भी, ऐसे ही जो उन्हें लाभ पहुँचाए, भले ही समाज, देश का नुक़्सान हो, दिखाने लग जाए तो? और सांस्कृतिक प्रदूषण से पूरा माहौल ही ख़राब कर दे तो क्या करेंगें हम लोग? लेकिन संस्कृति क्या इतनी कमज़ोर है कि वह बाह्य दबावों और थोड़े से लालच से टूट जाती है? क्या हमें इस देश, मिट्टी और यहाँ के जीवन-मूल्यों से लगाव नहीं? इन प्रश्नों का यही उत्तर है कि यह संस्कृति नहीं टूटती बल्कि वह तो समय, देशकाल के साथ चलती है और चलती रहेगी। लेकिन जो कुछ व्यक्ति हैं, विशेषकर कम संस्कारी, अवसरवादी, लोभी, स्वार्थी वह बदलते हैं। वह सांस्कृतिक प्रदूषण करते हैं। वही तोड़-मरोड़ कर अपशिष्ट, वितंडा रचते और फैलाते हैं। चूँकि मानव स्वभाव नकारात्मकता की तरफ़ जल्दी आकर्षित होता है, ख़ासकर जब वह चमक दमक से युक्त हो। तो ऐसे में हमारी अच्छाइयाँ, लचीलापन और सर्वग्राह्य, अडोल स्वभाव कहीं दब जाता है। जिससे यह नकारात्मक शक्तियाँ, जो बहुत कम होते हुए भी सब तरफ़ नज़र आती हैं। इनसे बचने का उपाय सही ढंग से हम नहींं कर पाते। हम जितना प्रतिबंध लगाकर रोकते हैं, नई पीढ़ी, स्त्रियाँ उतना ही उनकी तरफ़ आकर्षित होती हैं। फ्रायड का मनोविज्ञान कहता है कि “मनुष्य हमेशा से गोपन को जानना चाहता है।” दूसरी ग़लती यह करते हैं कि उस तरफ़ उन लोगों को जाने देते हैं कि यह अपने आप लौट आएगा परन्तु हम साथ नहीं जाते। और वैसे भी युवा आपको अब साथ ले भी नहीं जाते। नतीजतन वह लौटते नहीं और इस तरह पूरी की पूरी पीढ़ी बर्बाद हो जाती है, हो रही है। तीसरे हममें से अधिकांश न जाने क्यों ज़िम्मेदारी से बचने की, उसकी ग़लती है, तुम ख़ुद ज़िम्मेदार हो, हमने तो पहले ही कहा था, जैसी बातें बोलकर पल्ला झाड़ लेते हैं। 

परिणामतः सांस्कृतिक वातावरण प्रदूषित करने वाले “जो समाज में होता है हम वही दिखाते हैं”, “ज़माना बदल रहा है। सेंसरशिप नहीं होनी चाहिए।”, “यह देश को पीछे ले जा रहे हैं” आदि बातें कहकर और अधिक ख़राब, खुला कन्टेन्ट बनाते जाते हैं, सिर्फ़ अपना लाभ कमाने के लिए। देश, भावी पीढ़ी और समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी यह महसूस नहीं करते। तो क्या हो ऐसे हालात मेंं? 

यह सब बाज़ारवाद, नवः अपसंस्कृति और तीव्र तकनीकी विकास के लिए तैयार नहीं होने के दुष्प्रभाव हैं। जैसे देहात या शहर मेंं भी किसी व्यक्ति के पास कोई चीज़ (उसकी हैसियत से बढ़कर) आ जाए तो वह उसे सबको दिखाता है और ख़ुश होता है। बाक़ी लोग उसे देखकर प्रभावित होते हैं और अधिकांश वैसा ही करते हैं। दूसरा पहलू यह भी है कि वह मनोरंजन, समस्याओं से छुपाव और सबसे बढ़कर अपने हालातों से बचने के लिए यह सब करता है। इसमेंं बेबसी, लाचारी, कुंठाएँ और उसके घर की तंगहाली और बदहाली और जोड़ दिए जाएँ तो समझ आता है कि समस्या एक तरफा नहीं बल्कि चौतरफ़ा है। 

हमारी संस्कृति और उसकी विभिन्न सह धाराएँ सक्षम तो हैं परन्तु उन तक पहुँचना और उनका उपयुक्त इस्तेमाल से तनाव मुक्त, प्रसन्न होने का ज़रिया हमने कहीं खो दिया है। जबकि उसके बरक्स यह सिनेमा, टीवी, मोबाइल फ़ोन, ओटीटी आदि नियमित और सहज उसके मन मस्तिष्क पर पहुँच रहे हैं। इसमें यह भी ग़ौरतलब है कि यह हर वर्ग मेंं फैला हुआ प्रदूषण है। चाहे ग़रीब, अति सामान्य जन हो या अमीर और पब्लिक स्कूलों के बच्चे भी सभी इसकी गिरफ़्त मेंं है। संस्कृति के स्थान पर छद्म वेश धरे अपसंस्कृति आ विराजी है हमारे घरों और भावी पीढ़ी में। यह स्मार्ट फ़ोन, तेज़ इंटरनेट, परिवार से दूर होते युवा, अपरिपक्व मस्तिष्क को मिल रहा खुलापन, फ़िल्मों और धारावाहिकों मेंं उन्मुक्तता और वर्जनाओं के टूटने का चित्रण इन सबसे हालात बिगड़े हैं। मोलकी, नीना देंजोगप्पा (सोनी के धारावाहिक, जनवरी 2022), अनुपमा, (कलर्स वही समय) आदि हों सब मेंं बेहद सामान्य ढंग से दो या तीन प्रेम सम्बन्ध (!! प्रेम या . . .) होना सामान्य बताया है। यह बार-बार देखने से अवचेतन पर असर पड़ता है। एक दिन कब और कैसे देखने वाला भी यही सब करने लगता है यह वह भी नहीं जानता। 

मनोरंजन जगत के विचलन (पैराडॉक्स) और वितण्डा 

अब कुछ उद्धरण देखे जो इस पैराडॉक्स को और स्पष्ट करते हैं। बताते हैं कि किस तरह हम जो नहीं करना चाहिए वह करने के दृश्य अदृश्य दबाब में हैं। 

  1. अभी ऊपर कहा उसमें यह भी है कि तमाम स्थितियाँ बताई जाती हैं कि कार्य क्षेत्र हो या घर, बाज़ार, बस आदि सभी जगह आपको बस प्यार नाम के जिन्न की गिरफ़्त में आना है, और उससे जुड़कर ज़िन्दगी में उन्नति ही उन्नति है। यह झूठ और मिथ्यात्व करोड़ों भोले भाले दर्शकों के मन मस्तिष्क पर गहरा असर डालता है। वह बाहर, अपने आसपास देखता है तो पाता है कि हालात और लोग वेसे नहीं कुछ और हैं। यह टीवी और फ़िल्मों की दुनिया जैसे नहीं हैं। 

  2. ख़ुशी हो, कोई परीक्षा में बच्चा पास हुआ हो, पर्व हो तो उसे भव्यता और धूमधाम से मनाएँ आम आदमी। या साफ़-साफ़ कहें कि अभावग्रस्त आदमी भी ख़र्चा करे। जिससे उसकी पत्नी उस पर बलिहारी जाएगी (सच है कितना मुश्किल है पर्दे पर करोड़ों रुपए लेने वाली हीरोइन, एक अभावग्रस्त पत्नी का अभिनय करती, हर शॉट के बाद एसी में जा बैठती)। बच्चे भी नए नए उपहार पाकर ख़ुश होंगे। जबकि हक़ीक़त नितांत खुरदरी ही नहीं लोमहर्षक है। अनिश्चित नौकरी, सीमित आय, जो चार लोगों के परिवार के लिए भी पूरी नहीं। इसमें कैसे वह हज़ारों रुपए ख़र्च करेगा? कौन देगा? यहाँ जो लाखों लोग इस चकाचौंध में आ गए उनकेे अंतहीन दुखों का सिलसिला चल पड़ता है जो अक़्सर किसी न किसी के आत्महत्या या अपराध पर ख़त्म होता है। 
    जबकी वास्तविकता में आप और हम जन्मदिन, पर्व, उपलब्धियों को मनाते हैं वर्षों से भारतीय परंपरा से घर में ही थोड़ी सी खीर या पुए या कुछ ख़ास सब्ज़ी बनाकर और अपने ही बक्से में रखे अच्छे कपड़ों को पहनकर। हमने ऐसे लोग देखे होंगे बस, गलियों, मोहल्लों या क़स्बों, गाँव की यात्राओं में जो शुद्ध तेल लगाए बाल, पुराने पर साफ़ कपड़े, घर पर बना काजल आँखों में और लाल, पीले, नील भड़कीले रंगों के पुराने कट के कपड़ों को पहने ख़ुशी से दमकते चेहरों को। 
    तो इन पर हँसिए मत बल्कि इनके साथ शामिल होइए क्योंकि यही हैं नितांत भारतीय, बाज़ारवाद की अपसंस्कृति से बचे लोग। 

  3. तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण वितण्डा है मनोरंजन जगत का कि वह आपको ही आगे कर देता है। फ़ैसले लेने, ख़र्च करने आदि में आप स्वयं करो। देखने में छोटे और बड़े पर्दे पर यह हर जगह दिख जाएगा। जहाँ घर में अव्वल तो कोई बुज़ुर्ग है नहीं। और जो हैं तो वह केवल दिखावे की वस्तु की तरह युवा, नए नए युवा हुए लड़के या लड़की, बहू की हाँ में हाँ मिलाते हैं . . . और अक़्सर उन्हें ही ग़लत और नई ज़माने की, अनुभवहीन, लापरवाह पीढ़ी को सही बताते हैं। (क्या अजीब लॉजिक है!!) 
    वह हालात और पात्र सब बनावटी (अतिशयोक्तिपूर्ण बनावटी, ऐसे की उबकाई आए) घड़े गए, नक़ली लगते हैं। जो ऊपर से घर के सामान्य दिनों में भी ऐसे सजे-धजे दिखाए जाते हैं मानो मेले में या शादी में जा रहे हों। हर सोचने समझने वाला इंसान इस पर हँसता ही नहीं सिर पीटता है। 
    जबकि वास्तविकता में यथार्थ कुछ और है। हर भारतीय घर में बड़ों का सम्मान और उनके अनुभव से ही कार्य निष्पादित होते हैं। 

  4. और सबसे बड़ी इस विचलन की बात है तर्करहित, अवैज्ञानिक और बाज़ारवाद की ग़ुलामी।
    छोटे पर्दे पर नागिन, काल्पनिक धारावाहिक तो बड़े पर्दे पर गे से शादी, लिवइन, परिवार से अलग रहना, चीज़ें छुपाना और सबसे बढ़कर वर्जनाओं को तोड़ना। यह शर्मनाक है कि वर्जिन होना युवाओं में हास्य का विषय बना दिया (फ़िल्म प्यार का पंचनामा, दिल तो बच्चा है जी)। और यह सब भावी पीढ़ी तक बाक़ायदा रोज़ पहुँच रहा है। इसमें नीली फ़िल्मों का ज़हर और जोड़ें तो हालात बेक़ाबू हैं। गाँव, क़स्बों तक में जो आप स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध और कुछ स्त्रियों द्वारा भी किए अपराध आप रोज़ घटित होते देख रहे हैं। 

जब युवा पीढ़ी और स्त्रियाँ इस बहुत बड़े माध्यम की चकाचौंध से प्रभावित होकर बाहर निकलती हैं तो सामना होता है कटु और निर्मम यथार्थ से। वह घर वालों पर भरोसा नहीं कर बाहर भरोसा ढूँढ़ते हैं, जो अक़्सर नहीं मिलता। 

तो यहाँ से घुटन, सपनों का टूटना प्रारम्भ होता है। क्योंकि वह जिन्हें अपना समझकर आगे बढ़ता (बढ़ती) है वह उसे इस्तेमाल करके, निचोड़कर छोड़ देते हैं और वह ठगा सा रह जाता है। फिर अवसाद, तलाक़, अकेलापन और ख़ुदकुशी के रास्तों पर चल पड़ता है जीवन।

"हम विषपाई जन्म के सहे अबोल कुबोल
मानव नेकु न अनख हम, जानत अपनों मोल” 

हजारी प्रसाद द्विवेदी (दूसरी परम्परा की खोज, पृष्ठ 30) 

यह जो तकलीफ़ है, कि योग्य होते हुए भी भटका दिए गए। जिन पर ज़िम्मेदारी थी राह दिखाने की वही ग़लत राह चला दिए। पर इससे पूरा जीवन बर्बाद नहीं हो सकता। क्योंकि मानव को ईश्वर हमेशा दूसरा अवसर देता है और उस पर बिना देरी किए उसे चलना चाहिए; अपनों को साथ रखते हुए। प्रश्न यह है कि भटके हुए को सही राह कैसे और कौन दिखाएगा? क्योंकि ख़ुद हमने संस्कृति और किताबों के रास्ते बंद कर रखे हैं। इंटरनेट पर जो है वह राह दिखाता कम और कुएँ मेंं धकेलता है। 

अक़्सर बोहेमियन, बाज़ारवाद की चकाचौंध से भरमाए तथाकथित लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार इसके पक्ष में ही बोलते हैं। वह यह समझते हैं कि उन्हें यह अधिकार मिल गया है कि वह पाठकों और श्रोताओं को इन उत्तर आधुनिक आपदाओं की तरफ़ आकर्षित करें। वह यह नहीं जानते कि ऐसा करके वह बाज़ारवाद के ही हाथों खेल रहे हैं। वह भ्रम का शिकार होकर अपने ही देश, समाज के लोगों को ख़तरे से आगाह करने की जगह ख़तरे की तरफ़ ही मोड़ रहे हैं। चालाक क़िस्म के लोग घिसे-पिटे मुहावरे या तर्क देते हुए यह कहते हैं, “जो लोग देखना चाहते हैं वह हम (यह माध्यम) दिखाते हैं। चुनाव की स्वतंत्रता है उसके पास। स्विच, रिमोट, बटन व्यक्ति के पास है वह न देखे।" और आगे बेशर्मी की हद यह कि सीधे-सीधे प्रहार करते हैं हमारी सोच और नैतिकता पर। “यह गन्दगी, अपराध, अश्लीलता, नफ़रत, हिंसा हमारे ही अंदर, मन में होती है।” अर्द्धसत्य है पूर्ण सत्य यह कि कोई नैतिक ज़िम्मदारी नहीं इस बाज़ारवाद की। बेलगाम पूँजी, ताक़त और अकूत लाभ का क्षेत्र है। जिसमेंं नुक़्सान तो है ही नहीं। और ऊपर से अन्य लाभ ताक़तवरों से दोस्ती, व्यापार विस्तार शामिल है। ख़ुद के स्वार्थ के लिए कई पीढ़ियों को अंधकार में धकेल दिया गया। 

उपसंहार

बुद्ध, गार्गी, जाबाला, मैत्रयी, भारती, मंडन मिश्र, आदि शंकराचार्य, चाणक्य, कालिदास, कल्हण, जयनक, राणा कुम्भा, सवाई जयसिंह, राजा नागरीदास, दादूदयाल, मीरा से लेकर विवेकानंद, गाँधी, टैगोर, एस. राधाकृष्ण, शास्त्री, अरविंदो, दिनकर, माँ निर्मलादेवी, दीनदयाल उपाध्याय आदि के देश मेंं जीवन मूल्यों, संस्कृति और आपसी समझदारी को ख़त्म नहीं किया जा सकता। लेकिन उसकी पुनर्स्थापना, नए युग के नए आयाम और सबसे बढ़कर नई पीढ़ी को उससे जोड़ने की ज़रूरत है। पर क्या हम मनोरंजन, उसके माध्यमों का बॉयकॉट करके और उसके बिना रह सकते हैं? 

सम्भव नहीं है। यह उचित और समीचीन है कि इस प्रदूषण की पहचान हो गई है। भावी पीढ़ी इसे कम देखती है, इसकी बातों पर यक़ीन नहीं करती। मनोरंजन के उसके अपने नए साधन यथा यात्राएँ, मित्रता, किताबें (काफी हैं जो किताबें पढ़ते हैं) और अपनी संस्कृति परम्पराओं से जुड़ाव भी है। 

फिर भी मनोरंजन जगत द्वारा यह सब वितण्डा हमारे चारों ओर फैलायी जा रही है। इसमेंं प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी इनका ही साथ दे रहा है। क्योंकि उसके विज्ञापन, ख़र्चा (ब्रेड और बटर) और उससे बढ़कर अपार समूह को अपने चैनल, फ़िल्मों से जोड़कर अकूत धन कमाने की प्रवृत्ति सांस्कृतिक प्रदूषण को बढ़ावा देती है। 

मानव स्वभाव से ही लोकधर्मी, उत्सवप्रिय है। प्राचीन काल से ही मनोरंजन के कई आयाम रहे हैं। यथा आखेट, विहार, नृत्य, संगीत, खेल। लोक देवताओं के लिए गबरी, ख़्याल, गम्मत, लावणी जैसी अनेक नृत्य नाटिकाएँ प्रचलित हुई। जिससे जनमानस हृदय से जुड़ें, नाचे, झूमें, गाए कही कोई अश्लीलता, अपसंस्कृति नहीं। बिल्कुल स्पष्ट मन को छू लेने वाली कलाएँ, साहित्य, गीत, नाटक, सब कुछ मनमोहक था। लेकिन जैसे ही उद्योग शब्द आया और उसके साथ दबे पाँव अपसंस्कृति चली आई। तो क्या यह सदा रहेगा? विकास और उन्नति के साथ परिवर्तन आएँगे ही। प्रगति की यही निशानी है। ठीक है परन्तु वह परिवर्तन ऐसे तो न हो कि जो चीज़ें नगरवधुएँ, सोमरस, जुआ, लोभ, हिंसा, अश्लीलता आदि व्यसन जो ढके छुपे और बाहर थे, वह घर मेंं आ जाएँ? उसकी कोई सीमा ही न रहे? कोई भी, कभी भी उसकी गिरफ़्त मेंं आ जाए? ख़ासकर अपरिपक्व युवा, बच्चे। यह तो तर्कसंगत नहीं। हम बड़े ही व्यावहारिक और तटस्थ भाव से कहें तो यह सब पूर्वकाल था और वर्तमान, अत्याधुनिक युग और उसकी चुनौतियाँ भी अलग हैं। तो फिर क्या हम समझौता करें? क्या हम समय सापेक्ष होने के नाम पर मूल्यों को छोड़ दें? या जो परम्परा है उसे त्यागकर उत्तर आधुनिकता की दौड़ मेंं शामिल हो जाएँ? 

यह उचित नहीं और अंधाधुंध होड़ मेंं लगे रहना भी युक्तिसंगत नहीं। मनोरंजन उद्योग जगत है तो वह तो अथाह मुनाफ़ा ही देखेगा। अब ओटीटी, अमेज़न प्राइम, नेटफ़्लिक्स, डिज़्नीप्लस हॉटस्टार, ज़ी फ़ाइव आदि भी जम गए हैं। जहाँ कोई पाबंदी नहीं है। मिर्जापुर से लेकर पाताललोक या फिर ब्लैक विडो, फ़ोर मोर शॉट्स खुलापन, हिंसा बढ़ रही है पर्दे पर। और वहाँ से हमारे आपके जीवन मेंं भी। ठीक है आप और आपका परिवार न देखे, बचे रहें लेकिन घर से बाहर की दुनिया तो इस ज़हर की गिरफ़्त मेंं है। जो मनोरोगी और हिंसक बन चुकी है। जिनसे आपकी, वह जो सात्विक, जीवनमूल्यों के पैरोकार हैं, से मुठभेड़, आमना सामना अक़्सर होगा। तो यह दो दुनिया समांतर हैं। एक प्रदूषित हो चुकी और दूसरे चन्द लोग जो इससे बचे हुए हैं, की दुनिया। जागरूकता, सावधानी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ मदद करना ही राह है। जिसमेंं अच्छे लोग, अच्छाई और विमर्श हमारे साथी हैं। बेहतरीन किताबें, उन पर मंथन और ग़लत बातों का विरोध करना ही इसका उपाय है। यह अपेक्षा करना कि आज नई सदी के तीसरे दशक मेंं मनोरंजन जगत बदलेगा, सिर्फ़ वितण्डा है। प्रयास यह करना है कि इससे नुक़्सान कम हो और हम मनोरंजन के अन्य साधन यथा आपस में मिलना, नृत्य, संगीत, नाटक, पढ़ना और यात्राएँ करना निरन्तर कर सकें। आइए, हम सभी इस तरफ़ चलें। 

सन्दर्भ:

  1. जोशी ज्योतिष, साहित्य अकादमी नेमीचंद जैन पर मोनोग्राफ, पृष्ठ 37, दिल्ली, 2008

  2. बर्ट्रेंड रसेल, युगदृष्टा, विश्व चिंतन, पृष्ठ 7, 15, 45, हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 2006, सं.

  3. सिंह नामवर, दूसरी परम्परा की खोज, राजकमल पेपरबैक, पृष्ठ 26, 56 पाँचवां सं. 2020

  4. दैनिक भास्कर, रविवारीय पृष्ठ, 15 अगस्त, 22 अगस्त 21, कॉलम पंकज राग। 

  5. प्रभात, पालतू बोहेमियन, 2019 संस्करण राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 11, 27

  6. चौकसे, नीले फीते का ज़हर, दैनिक भास्कर, तीन सितम्बर, इक्कीस, कॉलम। 

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