कौन ठगवा नगरिया लुटल बा
डॉ. संदीप अवस्थी
आजकल ठगी करना आसान नहीं है। जब से तकनीक ख़ुद ठग बन गई और क़िस्मत पैदल चल रही तब से ठगी करना आसान नहीं। वरना पहले बड़ा आसान था, यह सोने की ईंट, चूड़ियाँ ले लो कौड़ियों के दाम। औरतें कम आदमी झाँसे में तुरंत आते। उसे ईंट दिखाई जाती जो क़ायदे से सिर पर मारनी चाहिए। उस वक़्त की बीस लाख की ईंट स्पेशल ज़रूरत में वह मात्र एक लाख में दे रहा। घर में इतने न निकले तो यार दोस्तों से उधार के लिए पूछा भी तो कोई न दिया। सबसे ले चुके थे और ईंट के सहारे पार होने की सोच रहे थे। उधर आँगन में बैठा हरा चोग़ा पहने बैठा बाबा अपने शिष्य से आँखों ही आँखों मंत्रणा कर रहा कि, यह फक्कड़ था तो फँसा है पर अपने काम का नहीं। वह सामने कोठी है, वहाँ चक्कर चला। शिष्य बोला, “महाराज वह अपने से भी बड़े ठग हैं। दुनिया भर में गंजे सिर पर बाल उगाने का तेल बेच बेचकर के नई कोठी बनाई है। बाल आए या नहीं लेकिन धन बहुत आ गया। ज़रा सी शीशी दो हज़ार की और छूट के बाद नौ सौ रुपए की।”
“बाल आएँ तो दिखेंगे यह तो झूठ हाल पकड़ा जाता होगा?”
शिष्य बोला, “जनता इतनी भोली है कि ठगे जाने को तब तक नहीं मानती जब तक कोई ख़ुद न बताए। वरना ठग को तो वह सिद्ध बाबा ही मानती है। तो यह उसे कहते तेल कम लगाया है। दो बोतलें और लो पंद्रह सौ में ही दे देंगे। तो यह दो बार नहीं बल्कि जब तक भेड़ ख़ुद चली न जाए तब तक उसे मूँडते हैं।”
“बाबा का आशीर्वाद है यह सोना तुझे मालामाल कर देगा,” बाबा ने कामचोर, लालची भक्त द्वारा बीवी के दो चार गहने और नोट पोटली में देखते हुए कहा।
शिष्य ने सब समेटा और कहा, “एक ईंट कल और बाबा बनाएँगे भक्तों का कष्ट दूर करने। कोई ज़रूरतमंद हो तो बताओ।” अक़्ल के अंधे भक्त को अपनी बहन-बहनोई याद आए जो कच्ची बस्ती के पास ठेला लगाते। नहीं पैसा न है उस पर। फिर ख़्याल आया अपना दोस्त रहमान जो पुलिस में हवलदार है पर बड़ा ग़रीब है। अभी तक एक मकान, एक दुकान और एक गाड़ी ही बना पाया है। उसे ज़रूर ज़रूरत होगी।
“बाबा, यह मित्र है मेरा। इसे ज़रूरत है आप चले जाओ।”
पता लेकर बाबा शिष्य चलते-चलते बोले, “और कुछ भी सोचना मत। आज से चौथे दिन इस ईंट को खड्डे से निकालना यह तुझे मालामाल कर देगी।”
राह चलते-चलते दोनोंं को एक सुनार की दुकान दिखी, शिष्य से बोले, “यह धंधा सदा ही फलता-फूलता है। यह ससुरे चोरी भी करते हैं सोने को कम करके। और ऊपर से अपनी इस कलाकारी का मेकिंग चार्ज भी वसूलते हैं। ऐसा ही कोई धंधा सेट हो जाए तो यूँ गली गली, नगर नगर भटकना न पड़े।”
बाबा, शिष्य दिए पते पर फोन किए, तो आवाज़ आई, “अच्छा, अच्छा बताया है आपके बारे में। आ जाओ पर देखो कोई गड़बड़ी निकली तो वापस नहीं जाने दूँगा। पुलिस में हूँ।” सुनकर शिष्य की हालत पतली, लगा कि अभी निकल लो शहर से। पर बाबा ने कई मज़ारों और योग्य महाठगों की शागिर्दी बचपन से की थी, वह चैलेंज लेते थे। ऐसे व्यक्ति को भी ठगो जिसे ठगना असंभव हो तो वह है कला। ठगी भी एक कला है। सामने वाला जानता है दस हज़ार में बीस लाख का सोना? पर वह ठगा जाता है क्योंकि अंदर से आवाज़ आती है क्या पता सच हो? नक़ली नोट चलाना भी ऐसा है जैसे रोज़ शॉपिंग करना। कहीं भी जाओ डेढ़ दो सौ का सामान लो और पाँच सौ का नक़ली नोट चलाओ। बाक़ी पैसे असली आपके। वह जो सामने से दो उजड्ड से दूधवाले दिखते आ रहे हैं, यह बाबा के गुरु भाई हैं। दोनों ने चाय वाले बाबा की दस साल चिलम भरते हुए यह कला सीखी थी। आज भी गुरु वचन कानों में गूँजते हैं, “तुम सबकी अलग-अलग विधाएँ हैं। कई बार मिलोगे, सामना भी होगा पर कभी भी एक दूसरे की पोल नहीं खोलनी। न ही कभी वफ़ादारी छोड़नी। चोर ठग हमेशा एक दूसरे के प्रति वफ़ादार होते हैं। देख लो, कोई भी बड़े से बड़ा नेता एक दूसरे की पोल खोलता है? कभी ऊँचे अफ़सर तो छोड़ो हवलदार, हवलदार की कभी शिकायत या घूँस खोलता है? सब एक हैं।”
दो तरह के ही लोग हैं संसार में। एक सीधे-सादे और दूसरे इन जैसे कलाकार।
नोट बस ढंग के काग़ज़ पर अच्छे इंकजेट प्रिंटर द्वारा आजकल गली-गली छप रहे। क्या करें ज़माना आगे जा रहा। आर बी आई का काम आउटसोर्स हो गया, ख़ुद ही। स्कैन करने पर सारे पंच मार्क, थ्रेड सब हू-ब-हू आ जाते हैं।
बाबा चेला जब पहुँचे कोठी के अंदर तो उन्हें आदर से बिठाकर माताजी ने पानी पिलाया। श्रद्धा भाव से पंखा झलने लगी। बाबा इतने मान सम्मान से समझ गए कुछ समस्या है इसकी।
”बोल, क्या दिक़्क़त है माई?”
अम्मा सामने ग्लास में पानी लेकर आ रही बहू को देखती रही। बहू ने घूँघट की आड़ से बाबा के चरण स्पर्श किए। पानी दिया और अंदर चली गई। अम्मा बोली, “सुशील, संस्कारी है, बेटा भी अच्छा कमाता है। पर क्या फ़ायदा जब घर में कोई खेलने वाला ही नहीं? सारी धन सम्पत्ति बेकार। हमारी यह समस्या इतने तीर्थ कर आए पर दूर न हुई। अब आप आए हो तो कोई उपाय निकालो।”
बाबा ने आकाश की तरफ़ देखा। एक हाथ से ग्लास के जल को चारों ओर छिड़का फिर कुछ देर आँखें बंद की, मनन किया। दअरसल हर घर में इतनी समस्याएँ हैं कि कोई संतुष्ट नहीं। या यूँ कहो कि हमारा मन ही हमेशा समस्याओं से घिरा रहना चाहता है। नौकरी, व्यापार, विवाह, घर, बच्चे, गाड़ी सब हो गया तो नई समस्याएँ। दो घर, दो गाड़ी और पूँजी और तरक़्क़ी हो जाए। कितनी तरक़्क़ी? क्या आसमान में चढ़कर अल्लाह मियाँ से हाथ मिलाओगे? दान पुण्य या दीन दुखियों की सेवा बिल्कुल नहीं। कोई दिक़्क़त हो मजबूरी हो तो ही दान पुण्य। वरना तो . . . यह ऐसा ही अवसर लग रहा था बाबा और शिष्य को।
अम्मा शुरू थीं, “. . . बच्चे होने के लिए तावीज़ और मंत्र फुँकवाए बहू के। हर देहरी मत्था टेका पर सब बेकार। दस साल से एक चिड़िया भी पैदा नहीं हुई।” कहकर बहू की निंदा पुराण सुनते हुए शिष्य को लगा यहाँ दूसरी ठगी के भी अच्छे आसार हैं। पर दो बार आना पड़ेगा।
“माताजी, बाबा ने तो पचपन साल की औरतों तक की गोद हरी कर दी। इनसे किसीका दुख देखा नहीं जाता। इन्हें सिद्धि प्राप्त है।”
बाबा ने आँख के इशारे से मना किया कि ज़्यादा नहीं बोलना। शिष्य जोश में था, “बाबा एकादशी से अमावस्या के मध्य को विशेष साधना करते हैं। फिर विशेष अनुष्ठान से संतान प्राप्ति। उससे अनेक घरों में चिराग़ जल रहे।”
सास हाथ जोड़े सब बातें सुनती हुई हृष्ट-पुष्ट बाबा का मुआयना भी करती गई। चौड़ा ललाट, घुँघराले बाल, चेहरे पर विशेष भाव, हालाँकि यह संघर्ष, चालाकी नहीं आने की खीज और धोखा दूँ या नहीं दूँ कि आत्म नियंत्रण से उपजा भाव था। जो ईमानदारी और बेइमानी के मध्य, सदाचारी और भोगी के मध्य, अच्छे होने से बुरे की सीमा में जाने से हिचक रहे क़दमों का प्रताप था। कइयों के चेहरे पर आप देख सकते हो। इधर माताजी संतुष्ट होंऊँ या नहीं में फँसी थी। इस अवसर पर हर बाबा, फ़क़ीर के पास होता है तरीक़ा। बाबा ने आँखें आकाश की ओर हाथ किए और तेज़ी से नीचे लाए और मुट्ठी अम्मा के सामने खोली। अम्मा इसी चमत्कार के इंतज़ार में थी। उसमें एक तावीज़, भभूत थी। “लो, इसे बहू के दाईं तरफ़ बाँधना। भभूत को दूध में घोलकर बेटे को पिला देना।”
“बाबा अब वह चालीस पार कर गया है। कहता है संतान होना न होना सब भगवान की देन है। अरे तो मनुष्य के काम करने भी कोई भगवान आएगा? आप ही कुछ कहना उसे।”
बाबा ने फिर हाथ ऊपर से नीचे झटका तो इस बार एक ताज़ा सेब प्रकट हुआ। क्या करें? प्रातः यही ठेले वाले के पास से मिला था।
“लो माता, अभी यह रखो। अगली बार हम आएँगे तो कुछ करेंगे। इस बार जल्दी है हमें।”
अम्मा धक से रह गई। फल श्रद्धा से आँखों से लगाया और बाँध लिया। सोचा था कि चलो पुत्र का वंश बढ़ेगा और नासपीटे बहू भी समझेगी की औलाद को पालना क्या होता है! पर बाबा तो जा रहे आज ही।
“बाबा, आपको आज तो हमारे यहाँ ही प्रवास करना होगा। क्योंकि यह शुभ मुहूर्त फिर नहीं आता,” कहते-कहते वह बाबा के चरणों में। जाने नहीं देगी उन्हें आज। इतने सिद्ध पुरुष ईश्वर की कृपा से ही मिलते हैं।
बाबा कुपित थे। क्योंकि प्लान था कि ईंट टिका कर शाम की ही गाड़ी से रफ़ू-चक्कर होना है। वरना पकड़े जाने का ख़तरा। कोई कलमाड़ी, माल्या, नीरव, ललित मोदी तो हैं नहीं जो करोड़ों खाने के बाद क़ायदे से बाय बाय करके जाएँ। ग़रीब, ठगी की लोक कला से जीवन पालते। गाँव में बीवी, बच्चे, माता-पिता सभी होते। कोई सीधे गूगल से डाउन लोड तो होते नहीं ठग और चोर। तभी आवाज़ आई, “दिखाइए महाराज, आपका असली सोना?” कहते हुए वर्दीधारी, स्नान किया पुलिसिया सामने।
“यही, छोरा है म्हारा,” कहते हुए माताजी अंदर गईं।
बाबा और शिष्य का आधा दम बाहर, आधा भी निकलने को आतुर। प्राण पखेरू मचल रहा। कोई रोको उसे उड़ने से। अब क्या हो सकता? पुलिस, साक्षात् सामने!
बाबा ने निकल आई बड़ी-बड़ी आँखें और दाढ़ी में छुपी हवाइयाँ क़ाबू में कीं और मुश्किल से बोलना चाहा, तो बोल नहीं निकले। शिष्य चतुर था जल्दी सँभल गया, “भक्त, बाबा कह रहे कि उन्हें जल्दी है, यात्रा पर जाना है। अगली बार आएँगे तब सोना ही सोना बनाकर लाएँगे। इन्हें सिद्धि प्राप्त है मिट्टी से सोना बनाने की।”
पुलिसिया, हवलदार था और पिछले वाले का गाँव का दोस्त, बोला, “पर बाबाजी, मुझे तो रमेश बताया कि एक ईंट तो है अभी तुम्हारे पास। दे दो। बस पहले जाँच करूँगा असल है कि नहीं।”
बाबा फँसते लगे पर इसका उपाय हर ठग रखता है। प्रतिकूल हालातों में ही ठगी विद्या और ठग का असली कौशल सामने आता है। गला साफ़ कर, शिष्य को मौन रहने का संकेत कर बोले, “देखो बच्चा, यह साधना से बना असली सोना है। इसे सुयोग्य को ही देते हैं वह भी मजबूरी में। जिससे हमारा वर्ष भर का खाने-पीने का ख़र्चा निकल आए। तुम क्या करोगे लेकर?”
“अरे बाबा जी, आप के लाख रुपए यह धरे और चाहिए तो बता देना,” पुलिसिये ने लालच से चमकती आँखों से देखते हुए कहा, “अब ईंट दिखाओ मने। और यह सुयोग्य हाथों ही में जाएगी।”
बाबा शिष्य समझ गए कि यह वह है जिसके पास अच्छी तगड़ी कमाई है, हराम की। संतान सुख से वंचित है और प्रभु के सहारे गाड़ी चला रहा। थोड़ी देर की आनाकानी के बाद, बाबा ने झोले में हाथ डाला। कुछ मंत्र पढ़े और चमचमाती, किसी अज्ञात धातु की ईंट निकाली। ईंट पर सूर्य की रश्मियाँ पड़ रही थी और वह चमचम कर रही थी। पुलिसिये की आँखें चौंधिया गई। उसने श्रद्धा से हाथ में ईंट ली, आँखों से लगाई।
”जय हो बाबा की।”
“रुको, पहले इसकी जाँच कराओ,” बाबा कुपित हुए, “फिर सही लगे तो बात करेंगे।” कहकर बाबा ने ईंट पर एक कोने हाथ लगाया और चोगे से चालाकी से कुछ स्वर्ण चूर्ण निकालकर हाथ में दिखाया।
“यह ले जाकर जाँच कराके लाओ।”
“नहीं बाबा, कोई ज़रूरत नहीं। आप तो अंतर्यामी हो। मुझे पूर्ण विश्वास है आप पर।”
“नहीं, नहीं, जाओ पहले मन साफ़ करो। जहाँ संदेह हो वहाँ हम नहीं रुकते।”
वह उठा और प्रणाम कर बाहर गया। बाबा, शिष्य जानते थे क्या नतीजा आएगा। पर वह थोड़े भ्रमित थे। इसे कितना लूटें और छोड़ें या क्या करें? मौन मशवरा चल रहा था।
उधर अम्मा फिर आ गई थी इस बार हलवा, मिठाई और गर्मागर्म पूरियाँ और आलू की तरकारी के साथ।
“भोजन का समय हो रहा है। संत के क़दम पड़े हैं तो यह अवसर कैसे हाथ से जाने दूँ? यह सभी बहू ने बनाया है,” कुछ हो सके तो अभी कर दो के अनुरोध के साथ।
शिष्य इच्छुक था रुकने का जबकि बाबा काम ख़त्म कर निकलना चाहते थे। पुलिस वाले के घर में ही ठगी का यह पहला अनुभव था। कोई नटवरलाल या शातिर फ़िल्मी बाबा तो थे नहीं जो कहकर लूटते। यह वह थे जो गुमनामी में और चेहरा छुपाकर रखने में ही भलाई समझते थे। बड़ी दाढ़ी, बढ़े बाल सभी इसी बहूरूप का हिस्सा थे। इसके पीछे जो असली सूरत थी वह ख़ुद बाबा भी नहीं पहचानते थे। दस वर्ष हो गए थे उन्हें इस धंधे में उतरे। काम सही चल रहा था। ज़मीन, घर सब बन गया था। दोनों बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ रहे थे। घरवालों को कह रखा था कि दूसरे शहर में काम करता हूँ। शिष्य अभी तीन साल से साथ था। जेब काटते पकड़ा गया था और भीड़ जान लेने पर उतारू थी। यह सामने दुकान से पान सिगरेट ले रहे थे। भीड़ इतने ग़ुस्से में होती है कि बिना बात के कोई भी आकर इस पर हाथ साफ़ कर रहा था। कुछ देर देखते रहे फिर आगे बढ़े और चिमटा ज़ोर से बजाते हुए जयघोष किया। भीड़ थमी, देखा इसने भी बाबा की आँखों में देखा, भाव था बचा लो मुझे आज, वरना मार डालेंगे यह। हाथ जोड़ पाँव पकड़ लिए, ग़लती हो गई अब कभी नहीं करूँगा।
“ग़लती मान ली है उसने। अब उसे मारोगे तो पाप लगेगा। छोड़ दो उसे।”
कहते हुए उन्होंने चारों तरफ़ हाथ लहराए। भीड़ जितनी हिंसक होती है उतनी ही धर्मांध भी। वह आईएएस, कलेक्टर का कहना नहीं मानेगी लेकिन बाबा, साधु जिस राह चलने को कह दें, उस राह चल पड़ेगी lबिना एक भी सवाल किए। आस्था सदैव तर्क से भारी है। साथ ही कुछ रहस्यपूर्ण, क्योंकि हर कोई साधु नहीं बन सकता, हरे, पीले वस्त्र, चोग़ा नहीं पहन सकता। बस बाबा की बातों का और कुछ लहूलुहान पड़े व्यक्ति का असर हुआ और भीड़ छँट गई। तबसे यह बाबा की शरण में ऐसे आए कि आज तक पक्के चेले बने हैं और जन्म भर रहेंगे। बाबा को भी धजा ज़माने के लिए एक वफ़ादार चेला चाहिए था। पिछला वाला बिहारी था जो दो साल साथ रहा पर आख़िर में सब सीख कर ख़ुद बाबा बनने निकल पड़ा। कमबख़्त में यह अक़्ल नहीं थी कि गुरु से कुछ और सीखता, अनुमति लेता। बाबा जैसा गुरु वैसे भी कहाँ सब कुछ ऐसे ही बता देता? कुछ राज़ थे जो वह किसी चेले के सामने नहीं बताते। उनके गुरु ने यही सिखाया था, वह भी अपनी मृत्यु से चंद दिन पहले। जब लग गया अब जाना तय है तो सिखा गए उन्हें, जो पिछले दस साल से एकनिष्ठ और ईमानदार थे उनके प्रति। साथ ही यह भी कि यह बातें किसी और से साझा मत करना। इसमें कुछ ज़रूरी मंत्रों की पुस्तिकाएँ, कुछ रुद्राक्ष और कुछ तावीज़ आदि थे। बोले, सब तो नहीं पर कुछ तो अवश्य ही असर करेंगे और तुम्हारी धाक जम जाएगी। लेकिन किसी भी दिन अधिक नहीं रुकना और जो जगह छोड़ दो तो उधर अगले पाँच साल तक दुबारा देखना भी मत।
वह चेला जल्दबाज़ी में धोखा देकर निकल पड़ा बाबा बनने की राह। कुछ महीने बाद ही पता चला गिरफ़्तार हो गया और अभी तक जेल में है। बाबा फोन जैसी भौतिक सुविधाएँ कभी नहीं रखते। क्या काम? जो है आज है। जो है कर्म है। गुरु जी ने सिखाया भी था कि यह आधुनिक यंत्रों से जितना दूर रहोगे उतने ही सुरक्षित रहोगे। लेकिन आजकल उसके बिना काम नहीं चलता। फिर भी हर शहर बदलते ही सिम तोड़ देते हैं।
गुरुजी अपनी कुल जमा पूँजी लाख रुपया, कुछ कम्बल, बिस्तर, बरतन सब यहीं छोड़ गए। जाते-जाते कह गए कि अमुक गाँव में पत्नी और बहनें रहतीं हैं, तेरा मन करे तो उन्हें कुछ पैसे दे आना। बता आना कि राम ओतार चला गया। वह गए थे पूरी ईमानदारी के साथ सारी पूँजी लेकर, हालाँकि कम क्यों थी यह रहस्य भी उनके गाँव जाकर खुला। अच्छा-ख़ासा पक्का घर था, गाड़ी और गाय भी थी। पता लगा बाबा अनेक शिष्यों के द्वारा समय-समय पर धन राशि भेजते रहते थे। बच्चे बड़े हो गए थे और एक नौकरी तो एक दुकान कर रहा था। उनके जाने का समाचार सुन परिवार पर कोई असर हुआ हुआ हो ऐसा उन्हें नहीं लगा। जो व्यक्ति परिवार छोड़ आया उसकी चिंता परिवार क्यों करे? भले ही बाद में वह धन से मदद करके अपने गुनाह माफ़ करवाता रहा हो। पर ऐसे ही तो गौतम बुद्ध भी महल, पत्नी, बच्चे सब कुछ छोड़कर चले गए थे पर क्या उन्होंने कभी वापस सुध ली अपनी पत्नी और बच्चे की? बुद्ध तो तथागत बन गए, नाम, भगवान हो गए पर उस राजकुमारी पत्नी का क्या? जो न सुहागन रही न विधवा? बड़े लोगों को बड़ी बातें अपन सिर कहाँ खपाएँ? सोचते हुए धन राशि उनके हवाले कर शिष्य निकल पड़े गुरु के दिखाए मार्ग पर।
यह नया शिष्य कुछ ही दिनों में बाबा की सेवा करते हुए धीरे-धीरे सीखता और समझ गया। उसे जेब काटने से अधिक लाभदायक और सुरक्षित यह काम लगा। यहाँ तो व्यक्ति, परिवार और समुदाय ख़ुद ही हाथ जोड़, प्रार्थना कर बुलाते हैं कि आओ और हमें अल्लाह के नाम पर, भगवान के नाम पर ठगो। ऊपर से ठगे जाने पर चीखते भी नहीं बस ख़ामोश हो जाते हैं। कुछ दिनों बाद कोई नए बाबा, गुरु मिल जाते तो वही सिलसिला फिर प्रारंभ। देश में कोई कमी नहीं है लुटने वालों की बस ज़रा सलीक़े से, हुनरमंद तरीक़े से। नेताओं की तरह सीना ठोककर नहीं जो जनता को धोखा देते और पीछे से जी भर के उनकी सात पुश्तों को जनता गरियाती। बाबा को सब हुनर आते थे। उतना ही निकलवाते जितना देने पर किसी को अखरे नहीं। कुछ चमत्कार हो गए थे। किसी की भभूत से बीमारी ठीक हो गई तो कोई तावीज़ के बल ओर रोग मुक्त ही नहीं हुआ काम पर लग गया। कुछ के संतानें हो गईं, नियोग पद्धति और जड़ी बूटी का प्रयोग गुरुदेव सिखा गए थे। भले आदमी थे, बोलते थे कि मेरे गुरु ने कहा की यह विद्या तभी काम करेगी जब आगे तुम किसी और को सिखाओगे, तो तू भी सीखने के बाद आगे योग्य शिष्य को सिखाना।
तो ऐसे ही गाड़ी चल रही थी। धन सम्पत्ति माँगते नहीं थे जो भक्तों ने दे दिया सर आँखों पर। भक्त भी ऐसे कि डॉक्टरों को लाखों दे देंगे भय से परन्तु जो बाबा, फ़क़ीर देसी विद्या से समस्या हल कर रहा उसे सौ रुपये भी ऐसे देंगे मानो अहसान कर रहे। अब आज सौ रुपये में एक चप्पल भी न आती। बाबा क्या इंसान नहीं होते? क्या उनके पेट नहीं होते? कपड़े न पहनें वह? बीमार पड़ जाएँ तो और मुसीबत। कभी आपने देखा किसी सरकारी अथवा प्राइवेट क्लिनिक में किसी भी पीर फ़क़ीर, बाबा को इलाज कराते? यह वह हज़ारों बाबा, संन्यासी हैं जो संकोच करते कुछ माँगने से। सच में, साधना भी करते और आपके दुखों को दूर करने का उपाय भी।
वह अलग होते जो आश्रम में आने, जाने, यह पूजा, वह उर्स, यह पर्व के नाम पर हज़ारों रुपये पहले ही धरवा लेते। और ठाट से गाड़ियों के क़ाफ़िले और बड़े-बड़े आश्रमों और इबादतगाहों में राज करते। किसी ने कहा है की दूसरों के दुख दूर करने से बड़ा पुण्य कोई नहीं। लेकिन मनुष्य असली और नक़ली के प्रपंच में नहीं पड़ता। वह तो सभी को श्रद्धा से देखता हर मज़ार, पीर से लेकर बाबाओं तक मत्था टेकता। क्या पता, कहाँ से कृपा हो जाए?
बाबा ने सुस्वादु भोजन का आनंद लेते हुए शिष्य की ओर देखा। शिष्य इत्मीनान से पकवान उदरस्थ करता हुआ कह रहा था, “बहुत अच्छा भोजन बनाती है आपकी पुत्रवधू। बाबा की कृपा हो जाए तो समझो इस आँगन में किलकारियाँ गूँजेगी। तर जाओगी अम्मा आप . . . तर जाओगी।”
शिष्य के शब्द मानों अम्मा की आँखों के सामने दृश्य बनकर नाच रहे थे। उसने हसरत भरी निगाह से आँगन को देखा तो उसे नन्हे-नन्हे पग चलते हुए दिखाई दिए। हाथ जोड़ अम्मा बाबा के सामने बैठी रहीं। बाबा ने भोजन कर हाथ धोए और निकलने को झोला उठाया की अम्मा साक्षात् चरणों में गिर पड़ी।
“नहीं बाबा मुझ दुखीयारी के कष्ट दूर किये बिना नहीं जाने दूँगी। मेरा उद्धार करके ही जाओ,” बाबा धर्मसंकट में। कार्य हो चुका था। धन जितना चाहिए था मिल चुका था। अब निकलना ही बनता था। ऊपर से इकलौता पुत्र अम्मा का पुलिस में था। दो दिन दौरे पर उत्तरप्रदेश से बाहर गया था। पर आता तो और फिर कुछ दिनों बाद मालूम पड़ जाता। वह पीछे लगता और खोद निकालता बाबा और इस मूर्ख शिष्य को जो ज़रा से आराम के लिए कहीं भी पसर जाता है।
“नहीं माते, अब हमें निकलना ही होगा। संझा हो रही है और बहुत दूर जाना है,” तभी अंदर से अम्मा की बहू भी आ गई। साड़ी का पल्लू सर पर लेकर सीधे चरणों में झुकी। जब बोली तो ऐसा दर्द था आवाज़ में कि बाबा हिल गए। हाथ जोड़, आँखों में आँखेंं डाल बोली, “आप ही मुझसे यह अभिशाप हटा सकते हो कि मैं माँ नहीं बन सकती। शादी के सात साल हो गए। अब मैं जान दे दूँगी यदि इस आँगन में किलकारी नहीं गूँजी।” बाबा, गौरवर्ण, प्रभावशाली व्यक्तितव, आँखों में ख़ास गहराई और चेहरे पर संतोष और गुरुसेवा का तेज, धर्म संकट में। सोचा, आज के कार्यक्रम को एक दिन टालकार देखा, कल जाएँ तो क्या पकड़ सकता है पुलिस वाला इसका पुत्र? फोन तो था ही नहीं। तो ट्रैक होगा नहीं परन्तु हुलिया पकड़ लेगा। ऊपर से यह महामूर्ख शिष्य जो हर बार सोने के एक अंडे से संतुष्ट नहीं होता और दूसरे अंडे के इंतज़ार में एक-दो दिन जानकर रुक जाता है। इसे इतना समझाया कि तू तो मार खाकर बच जाएगा पर बाबा का पुलिस जहाज़ बना देती है। कुछ थानों में तो कोई मंत्र, तंत्र काम नहीं आता। साले, डरते ही नहीं कितने ही श्राप दे दो। कहते हैं हम ही काल हैं। वह तो थोड़ी बहुत साधना और चतुराई गुरुजी सिखा गए तो उस विद्या का प्रयोग कर बच लेते हैं। पिछली बार देर हो जाती तो आज तक जेल में ही होते।
शिष्य आँखों से ही रुकने का इशारा कर रहा था।
♦ ♦ ♦
संध्या वंदन करने से पूर्व बाबा ने स्नान किया। अंदर आँगन में चापकल लगा था, अम्मा ख़ुद दो बाल्टी भरने लगी तो शिष्य ने टोक दिया, “अम्मा जी, आप मति करो। पाप लगेगो। जाने कृपा चाहिए बई को भेजो। इतने साल हो गए कब तक छुई मुई की नाइ बनी रहेगी बहुरिया?”
अम्मा ने सहमति में सर हिलाया और अंदर गई। कुछ देर बाद मध्यम क़द, देहयष्टि की युवती घूँघट काढ़े बाहर निकली। कुर्सी पर बैठे बाबा को चरणस्पर्श किया। फिर चापाकल से जो उसने दनादन पानी निकाला है दो क्या दस बाल्टी भर जाएँ। अम्मा के कहने पर आँगन में रखी टंकी में शिष्य बाल्टी डालता रहा और बहुरिया भरती रही। टंकी ऊपर से दिखने में छोटी पर इतनी बाल्टी पानी पी गई फिर भी भरने का नाम न ले। शिष्य थक गया बोला, “बस काफ़ी है। क्या पूरे महीने का पानी भरवा लोगी अम्मा? रहने दो बहनजी बहुत हो गया।”
उधर बहू अभी भी तैयार, बिना थके। न जाने कब का और किस-किस पर आक्रोश था जो निकल रहा था। उसकी घूँघट से झाँकती आँखों में हँसी छलक आई। मीठी, सुरीली आवाज़ आई, “अच्छा, बाबा जी की दो बाल्टी भर देती हूँ।” उसने दो बाल्टी हाल भरी और उसमें अपनी कलाई डुबोकर पानी का ठंडापन परखा। मौसम ठंडा था न गरम। बाबा आँगन में विराजे। शिष्य ने सारी बातें पहले ही समझा दी थीं की बाबा बड़ी मुश्किल से आज रुकेंगे और कल चले जाएँगे। अतएव यह सारी पूजन, हवन की सामग्री और फल, मिष्ठान मँगवा लेना। थानेदार का जलवा था कि लिखवाने के घंटे भर में सामान आ गया। अब शिष्य और अम्मा अंदर के कमरे में पूजा की तैयारी कर रहे थे। बाबा आँगन में स्नान, बहू रसोई में। गौरवर्ण, अच्छी क़दकाठी, हृष्ट पुष्ट बाबा जब स्नान कर रहे थे तो उन्हें लगा कोई उन्हें देख रहा है। रुके, चारों तरफ़ देखा, कोई नहीं। सब व्यस्त। वह लम्बे बालों को खोलकर आगे किये और अच्छे, ख़ुशबूदार साबुन से ख़ूब धोए। फिर लगा कोई देख रहा है पर तब तक नहाने में वह डूब चुके थे। कुछ देर बाद उठे और बदन पोंछते हुए निगाह गई तो रसोई की खिड़की आधी खुली थी और उसकी ओट में से दो आँखेंं उन्हीं की ओर देख रही थीं।
वह पीठ करके मंत्रोच्चारण करते हुए तैयार होने अपने कमरे में चले गए।
शिष्य ने संतान उत्तप्ति यज्ञ की सारी तैयारी अंदर वाले कमरे में कर ली थीं। सुस्वादु भोजन चल रहा था। अम्मा बैठी हुई थी। बहू ने स्नान आदि कर लाल रंग की साड़ी पहन सारी रसोई स्वयं बनाई थी। सिर्फ़ तीन सब्ज़ियाँ और कचौरी पूरी बाबा के आदेश पर अम्मा ने बनाए थे। दही बड़े और चार मिठाइयाँ, राजभोग, मालपुए, अखरोट का हलवा और देसी घी की सुगंध फैलाती इमरती मशहूर गंगाराम हलवाई का आदमी ख़ुद देकर गया था। शिष्य दबाकर खा रहा था। महीनों बाद को इतनी अच्छी पार्टी क़ब्ज़े में आई थी, जो मना करने के बाद भी वही काम करवाने को उत्सुक थी। शिष्य ने हर सम्भव शर्त मनवा ली थी। अच्छे वस्त्र, अच्छी दक्षिणा और कल शाम की गाड़ी की दो टिकिट भी बुक हो गईं थी। शिष्य ने बताया था अम्मा को कि बाबा चमत्कारी हैं। और कई वंश आगे बढ़ा चुके हैं। पीछे खड़ी बहू सारी बात सुन रही थी। सुन्दर, स्नातक तक पढ़ी थी पर इस बड़े घर के कारण सारे अरमान ख़त्म थे। फिर जब दस वर्षोंं तक गोद नहीं भरी तो सास तो सास उसके घरवाले भी उसे कोसते थे। पति हर तरह से सहयोग करता परन्तु वह भी संतान न होने से आलोचना सुन रहा था। भले ही पुलिस की वर्दी के सामने कोई न बोले पर पीछे सब उसका मज़ाक़ उड़ाते थे। पता नहीं कहाँ कृपा अटकी थी। दाम्पत्य जीवन ठीक-ठाक था जो शादी के दस वर्षोंं बाद होता है। पत्नी के पास जाने का मन नहीं करता था।
बड़े मुश्किल हालातों से पूरा घर घिरा था।
“बाबाजी, यह खीर तो लेनी ही पड़ेगी। बहू ने ख़ास अपने हाथ से बनाई है,”अम्मा ने बहू को आवाज़ देकर खीर लाने को कहा। बाबा बेहद सोच समझकर और संतुलित ढंग से भोजन ग्रहण कर रहे थे। बहू आई और उसने चाँदी की थाली में रखी कटोरी में खीर डाली। पूरी कटोरी भर गई तो बाबा ने ऊपर निगाह उठाई और सीधे बड़ी-बड़ी बोलती हुई आँखों से टकराई। आँखों के भावों को पढ़ा उनमें एक उत्सुकता और विश्वास था की उसकी दस वर्षों की यातना अब ख़त्म हो जाएगी।
“यह बरतन साफ़ करके बैग में रखवा देना, और यह दोनों चाँदी के लोटे भी,” बाबा शिष्य की इस चिन्दीगिरी से बड़े कुपित रहते थे। जब भरपूर दक्षिणा मिल रही तो फिर यह सब क्यों? लेकिन शिष्य आगे की सोचता था और सारा हिसाब ईमानदारी से देता था, तो उसे कुछ कहने की जगह बाबा हाथ धोने उठ खड़े हुए।
♦ ♦ ♦
रात्रि के बारह बजे थे। सर्वत्र इत्र की ख़ुश्बू, हवन की सुगंधि और शीतलता व्याप्त थी। हवन की पूर्ण आहुति के बाद बहू को लेकर बाबा पीछे लगे बग़ीचे में एक वृक्ष के नीचे दीप जलाने और वहीं दोनों नारियलों को बने खड्डे में दबवा रहे थे। पीछे शिष्य को काम पता था। अम्मा तो भाव-विभोर थी इतना मंत्र-तंत्र बाबा की गंभीर आवाज़ में सुनकर। बार-बार बाबाजी की जय कर रही थीं।
बहू ने दिये जोड़, प्रणाम किया और वृक्ष की परिक्रमा प्रारम्भ की। दूर गली की लाइट का हल्का प्रकाश आ रहा था।
तभी उसका पाँव किसी पत्थर से लगा और वह आड़ी होकर गिरने लगी, सहारे के लिए हाथ हवा में लहराए तो बाबा ने थाम लिए। अब बाबा और वह नज़दीक थे। उसकी आँखें कुछ तलाश रही थीं पर बाबा असमंजस में थे। पूरे बिगड़ने और ठीक राह चलने के मध्य की अवस्था थी। इधर हो या उधर रहे बंदा यदि यही तय नहीं कर सका तो उसे कुछ भी करे पर आस्था, धर्म, दरगाह, पीर फ़क़ीर नहीं बनना चाहिए। यदि है तो फिर जो सामने है उसी में आगे बढ़ो। कोई भ्रम की स्थिति नहीं। लेकिन कोई बुरा न कर सके तो? कोई मजबूरी से इसमें हो और वास्तव में साधना, भक्ति और तप से कष्ट दूर करना चाहे तो उसे ज़माना पत्थर मारता है। भगा देता है। यह वह दौर है जब भगवान भी आ जाए तो लोग उसे भी नहीं मानेंगे। परसाई ने इसे विकलांग श्रद्धा का दौर कहा तो ज्ञान चतुर्वेदी इसे देवताओं की ठग लाइफ़ कहकर पूरी कथा कह चुके।
वापस हवन हॉल में आए दोनों, बहू लाज से दोहरी सर झुकाए। अंदर अलग ही माहौल था। अम्मा बेसुध सी गहरी नींद में थी। शिष्य बाहर जा चुका था।
बाबा कक्ष में गए, बैठे। कुछ देर में बहू ट्रे में दूध के ग्लास लिए हाज़िर हुई। बाबा सामने बैठी बहू को गहरी दृष्टि से देखते रहे और दूध पीते रहे।
“तुम्हारी क्या मर्ज़ी है? जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब आगे बढ़ने के लिये कठोर फ़ैसले लेने पड़ते हैं। अनुष्ठान पूर्ण हुआ है। पति जब आ जाए तो यह . . .” कहकर बाबा रुके, एक रुद्राक्ष निकाला, “केसर वाले दूध में इसे डालकर उबालना और छान कर पिलाना। उसी रात्रि तुम गर्भ धारण कर लोगी।” बहू सर झुकाए सुनती हुई अचानक सर उठाती है और सीधे उनकी आँखों में देखती है, “क्या आपको लगता है ज़िन्दगी मेरे साथ इतनी दयालु है? क़तई नहीं। यह सभी लोग चाहते हैं मेरे संतान हो। अन्यथा यह तलाक़ देकर दूसरी शादी करेंगे।” वह रुकी, कुछ सोचा और फिर बोली, “अम्मा जी चाहती हैं मुझे, पर पुलिस वाले बेटे के सामने बेबस हैं। आपके व्यवहार और ज्ञान से प्रभावित हुई तो पहली बार किसी साधु को घर में अनुष्ठान के लिए रोका। मैं पूछती हूँ आपसे कि इससे भी,” . . . वह रुकी और वह रुद्राक्ष आँचल से निकाला, उसे देखती मुस्कुराती बोली, “यह भी यदि संतान नहीं दे सका तो मेरे पास क्या विकल्प होगा? इसी घर के कोने में पड़े रहने या फिर आत्महत्या करने के अलावा?” कहते हुए उसने बाबा के दोनों हाथ पकड़ लिए, “बताइये, क्या करूँ मैं जिससे यह ग्रहण हट जाए मुझसे, बताइये न?”
बाबा ने उसकी आँखों में देखा पर कुछ नहीं बोले। सहसा उसकी आँखें भर आईं और उसने लाल साड़ी का पल्ला नीचे गिरा दिया। बाबा ने चेहरा दूसरी ओर घुमाया। उसने उनका हाथ पकड़ा ओर घूमी। पीठ पर हाथ ले जाकर उसने डोरी खोली। बाबा ने आँखें नीची कर लीं। उसने कहा, “ऊपर देखो . . . देखो ऊपर।” वह नहीं देखे तो उसने कहा, “मैं कह रही हूँ ऊपर देखो . . .” उन्होंने झिझकते हुए आँखें ऊपर पीठ की तरफ़ कीं।
“उफ़, अरे . . .,” वह सिहर गए। यह सब? पूरी पीठ पर काँटेनुमा निशान कोमल खाल में बने हुए थे। मानो किसी ने नुकीली चीज़ से बार-बार और बहुत ज़ोर से मारा हो। “यह पिछले ही दिनों पति ने किया जब वह अपनी कमी पर क़ाबू नहीं कर पाए। तो उन्होंने सारा ग़ुस्सा मुझ पर उतारा,” . . . वह घूमी और दूर अँधेरे में देखती धीरे से बोली, “मुझे नहीं लगता मैं और ज़्यादा ज़िन्दा रह पाऊँगी . . . कुछ कर सकें तो आपका यह उपकार होगा मुझ पर।” कहते हुए वह प्रणाम करती झुकी।
बाबा ने दो पल सोचा, हालात समझे, “तो छोड़ क्यों नहीं देतीं? अपने घर चली जाओ। जब समझ आए उसे तब आ जाना।”
इस बात को सुनने मात्र से वह स्त्री काँप उठी। फिर आँखों में आँखें डाल बोली, “आप नहीं जानते क्या पुलिस वाले कैसे होते हैं? कभी एक भी केस पढ़ा अख़बार में जो इनकी बीवी ने कभी किया हो इन पर? और अपनी फ़िक्र न भी करूँ पर मेरे मम्मी-पापा, छोटे भाई, बहनों का जीना हराम कर देंगे। इसीलिए ऐसा क़दम नहीं उठा सकती। तो बस अक्सर यही होता है मेरे साथ।” कहकर उसने पीठ उनकी तरफ़ कर दी। बाबा व्यथा से भर उठे। कोई मनुष्य कैसा जानवर भी हो सकता है और जानवर फिर भी मानवीय होता है। कुछ पल उन्होंने सोचा, फिर उसकी पीठ के ज़ख़्म पर धीरे से अपनी हथेली रखी। शीतलता और भरोसे की एक लहर से उतरती चली गई उसके अंदर।
“जैसी श्री प्रभु की इच्छा। समझो तुम अपने कष्ट से निकल आई हो,” कहकर वह अविचल, सधे क़दमों से आगे बढ़े।
शिष्य अपनी कोठरी में जाकर कब का सो गया था।
अम्मा कक्ष के बंद दरवाज़े पर कान लगाए कुछ देर खड़ी रही। फिर धीरे-धीरे सोचते हुए वह दो क़दम पीछे हटी, फिर आगे बढ़ी। सामने लीलाधर बाँसुरी हाथों में लिए मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे, मानो लीला करने का उनका वक़्त आ गया था। अम्मा का हाथ दरवाज़े की ओर बढ़ा, रुका फिर कुछ सोचा . . .। फिर दोनों हाथ आगे बढ़े, वह घूमी और लीलाधारी को प्रणाम किया।
शीतल पवन बह रही थी। हरसिंगार की ख़ुश्बू सब तरफ़ बिखरी हुई थी। भोर हो चली है, इसकी सूचना पंछी ख़ुशी से चहचहाकर और कोयल अपनी कूक से दे रहे हैं। रात कब बीती पता ही नहीं चला। दुख, कष्ट, अवसाद के बादल छँट गए थे। उम्मीद की किरणें निकलने ही वाली हैं।
बहू ने सुबह ही स्नान कर पूजा ध्यान कर चाय बनाई और सासु माँ को उठाया। अम्मा वेदी के पास से उठी। मन शांत था, सामने ठाकुरजी थे। प्रणाम किया उनको। बहू को जी भर देखा। बहू शांत, मधुर और मीठी आवाज़ में बोली, “बाबा जी तो प्रातःस्नान कर टहलने निकल गए हैं। आते ही होंगे।” अम्मा ने चाय पीते हुए चारों तरफ़ देखा। शिष्य चापाकल के पास बैठ मंत्र के स्नान कर रहा था।
कुछ देर बाद बाबा आए, अम्मा ने चरण छुए और हाथ जोड़ खड़ी हो गईं।
बाबा मुस्कुराते हुए अपने कक्ष में चले गए। कुछ देर बाद पूर्ण तैयारी कर, सफ़ेद धोती और गहरे भूरे चोगे में बाहर आए और आसन पर विराज बोले, “अम्मा, कुछ विशेष बाधा थी, उपाय कर दिया है। परन्तु विशेष सावधानी रखनी होगी आपके पुत्र को। उसे ख़तरा है। किसी ने वंश बेल बाँध दी थी।”
अम्मा सकते में आ गई कुछ देर। फिर सिर हिला बोली, “मोए तो पहले ही शक था। क्योंकि सब कुछ है परन्तु कोई इन्हें काम में लेने वाला, आँगन में दौड़ने वाला, मुझे दादी कहने वाला ही नहीं। महाराज, क्या जतन करूँ?”
बाबा ने चारों ओर देखा, बहू रसोईघर में नाश्ता लगा रही थी।
“बेहद सावधान रहे लड़का आपका। और कोई ग़लत कार्य न करे। यह किसी ऐसे व्यक्ति की हाय लगी है जो अब इस दुनिया में नहीं है। उपाय फ़िलहाल मैंने तो कर दिया है पर उससे कहना कम ग़लत करे। हो सके तो ग़लत करना छोड़ ही दे। पर पुलिस की नौकरी में कहाँ कोई बच पाता है? तो संकट फिर आएगा पर तब हम नहीं होंगे,” कहकर बाबा ने आँखें बंद कर ली।
अम्मा हाथ जोड़े, “कृपा बनी रही, कृपा बनी रहे” की रट लगाए रही। बहू की बड़ी-बड़ी बोलती आँखें बाबा के चेहरे पर कुछ तलाश रहीं थी। दूध ग्लास में डालते हाथ हल्के से काँप गए।
“बाबा जी, यहाँ से सीधे बनारस भोले बाबा की नगरी जाएँगे। वहाँ भक्तों से मिलकर फिर आगे नेपाल हिमालय की तराई में निकल जाएँगे। कुछ समय वहीं रहेंगे,” शिष्य ने पूरा कार्यक्रम बनाकर बता भी दिया।
बाबा आँखें बंद किये झुँझलाए, यह अनर्गल कुछ अधिक ही बोल देता है।
“बाबा जी, जलपान ग्रहण करें,” एक मीठी सुरीली आवाज़ कानों में टकराई।
उन्होंने आँखें खोलीं, ठीक सामने बहू का आशा, विश्वास और अपनेपन से दमकता चेहरा था।
नाश्ते में बहुत कुछ था, मिठाइयाँ, केसर युक्त दूध, दाल की कचौरियाँ और विशेष रूप से मेवों का हलवा, जो बहू ने ख़ुद अपने हाथों से बनाया था।
“वंश बेल आगे बढ़ेगी। लेकिन बेल को सहारा देने वाली डाली का विशेष ख़्याल रखना। बेटे के लिए जो कहा, वह उसका उपाय करे। जब दादी बन जाओगी तो सारे ग़रीबों को भोजन और कपड़ा देना होगा। बाँट दोगी अम्मा?” बाबा मुस्कुराते हुए पूछ रहे थे।
अम्मा ने हाथ जोड़, खिले मन से हामी भरी।
काशी विश्वनाथ ट्रेन ठीक ग्यारह बजे निकलती है। अम्मा ने पुत्र से कहकर परसों ही एसी में आरक्षण करवा दिया था। शिष्य सामान बाँध कर बाहर ले आया था। अम्मा पड़ोस के ड्राइवर को बुला लाई थी। बाबा और शिष्य बैठ गए। अम्मा और बहू ने प्रणाम किया। कार आगे बढ़ी, बाबा ने आशीर्वाद स्वरूप दायाँ हाथ ऊपर किया। तभी एक आवाज़ . . .धीमे से आई . . . “फिर कब आओगे?”