मोंटू उर्फ़ रघुवीर सिंह को आत्महत्या से बहुत डर लगता है

01-10-2022

मोंटू उर्फ़ रघुवीर सिंह को आत्महत्या से बहुत डर लगता है

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“आपके बच्चे के टेंथ में काफ़ी अच्छे मार्क्स हैं, इसे आप बीई ही जगह बीटेक, आईआईटी की कोचिंग बैच में डालिए,” कहते-कहते काउंसलर महोदय ने सकुचाए, नरभसाय, सहमे-सहमे खड़े चश्मा धारी मोंटू उर्फ़ रघुवीर सिंह चौधरी की ओर प्रशंसात्मक निगाह से देखा। मोंटू के पिता रेलवे में गार्ड, बीई अर्थात्‌ पीईटी की कोचिंग के हिसाब से ही इस हाडोती की धरती पर पैसे लेकर आए थे। पूरे ढाई लाख। यही मोंटू की बुआ रहती थी तो कुछ समय उनके यहाँ मोंटू रहेंगे फिर फूफा जी आसपास अच्छे कमरे का इंतज़ाम कर देंगे। वह तो घर पर ही रखने पर ज़ोर दे रहे थे परन्तु गार्ड साहब का विचार था की रिश्तेदारी में दो चार हफ़्ते रहना अलग बात है और पूरे दो साल रहना असंभव। बहराल कॉउंसलर फिर सफल रहा। जो बजट सोचकर आए थे, उससे अधिक, फिर निम्न और मध्यमवर्गीय परिवार से निकलवाने में वह सफल रहा। दसवीं में बावन प्रतिशत अंकों के साथ रघुवीर सिंह का एडमिशन आईआईटी बैच आर्किमिडीज़ में हो गया। पूरे चार लाख सालाना, जिसमें कोचिंग और डमी स्कूल की फ़ीस शामिल थी। रहना खाना अलग से। अब तसल्ली थी कि तीन बहनों के बाद हुए मोंटू, भविष्य में इंजीनियर बनकर अपने परिवार और देश का नाम रोशन करने की राह पर पहला क़दम रख चुके हैं। बाक़ी, पैसा थोड़ा अधिक लग गया पर ख़ैर, कुछ घर ख़र्च में और कटौती करेंगे, गार्ड साहब ने सोचा। दो दिन में इस ट्यूशन नगरी में कमरा, टिफ़िन, आने-जाने के लिए साइकिल सब सेट कर गार्ड साहब मलावां गाँव, ज़िला उन्नाव के लिए रवाना होने लगे तभी मोंटू उनसे लिपट-लिपट कर ऐसे रोए कि एक बार तो उनको लगा कि ‘यह पढ़ाई-वढ़ाई सब बेकार की चीज़ है। अपने बचवा को अपने साथ ले जाव।’ पर जब आँखों के सामने गाँव क़स्बे में छोटी-मोटी दुकानदारी और कई तो वह भी नहीं सिर्फ़ आवारागर्दी करते लड़कों के चेहरे घूमे तो फिर उन्हें दिल पर पत्थर रखकर मोंटू से कहना पड़ा, “बचवा ई समय रोने का नहीं हार्ड वर्क करने का है। तेरी बहनें, माँ, सारा गाँव-जवार तेरे पीछे खड़ा है। बचवा ख़ूब मेहनत से पढ़ना, घी-दूध ख़ूब खाना हम गाँव से भेजते रहेंगे।” रघुवीर सिंह सुने और समझे कि अब कुछ नहीं होगा। यहीं रहना है, इन शहरी लड़कों के बीच। कुछ बनना है तो कड़ी मेहनत करनी है। यहाँ से आगे इंजीनियर बनकर ही निकलना है। पर कैसे? कुछ तो उनके पल्ले पड़े! महीने भर में ही अपने गाँव में बावन प्रतिशत लाकर बने टॉपर रघुवीर सिंह लिखाई-पढ़ाई तो उतना नहीं समझे जितना यह समझ गए कि ऐसे ही चलता रहा तो कुछ नहीं होगा। माँ-बाबू के कर्म फूटेंगे सो अलग और अपन को सुसाइड करनी पड़ेगी वह अलग। मरने से सच में रघुवीर सिंह उर्फ़ मोंटू को बहुत डर लगता था। कैसे अजीब सी गर्दन टेढ़ी हो जाती है! और आँखें बाहर निकल आती हैं! ऐसा उन्होंने कई फ़िल्मों में देखा था। और इस नगरी में तो सुनते हैं पिछले बरस बीस से अधिक बच्चों ने अपनी जान दे दी थी। ऊपर से यह और लिखा छोड़ गए कि माँ-पिता जी हमको क्षमा करना हम आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सके। एक ने तो यह तक लिखा मेरे माता-पिता को मेरे मरने की ख़बर ना देना। मोंटू उर्फ़ रघुवीर सिंह ऐसे जान देने वाले बिल्कुल नहीं थे। ऊपर से उन्हें अपनी वाली बिल्डिंग में ही अपने जैसा सीएल मीणा उर्फ़ चुन्नी लाल मीणा उर्फ़ चुन्नी का साथ मिल गया। वह बेशुमार बार आरक्षण का लाभ लेकर अब इस बात से दुखी था कि ‘कास्ट की वेटिंग’ भी साली 50% हो गई। सब ससुरे इसी में घुसे जात हैं। वह दो साल दसवीं में लगाकर यहाँ आए थे। 

क्लासरूम क्या था शादी का बड़ा-सा हॉल था। यहाँ पता नहीं क्यों इतना प्रेशर रहता है कि कोई भी कुछ कह नहीं पाता। कई बार दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे देखा पर कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं करता कि मोटी फ़ीस हमने तुम्हें किस बात की दी है? तुम हमें पढ़ाओ, सिखाओ योग्य बनाओ और तुम हो कि सारी पढ़ने समझने और चार गुना पढ़ाई करने की ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर ही डाल दी है। बस यही बात उस दिन सीएल मीना उर्फ़ चुन्नी ने केमिस्ट्री क्लास में फ़ेकल्टी को बोल दी। क्लास में तो क्या पूरे संस्थान में यह शब्द पहली बार फूटे . . . और बम की तरह फूटे। चुन्नी ने चारों ओर देखा और कहा, “सर जी हम इतने होशियार होते तो यहाँ क्यों आते? थोड़ा ठहरकर और जमकर पढ़ाइए ना।” केमिस्ट्री वाला काफ़ी समय तक इसी सोच में रहा क्या जवाब दिया जाए? जब कुछ नहीं सूझा तो कीटो ग्रुप की वैलेंसी निकालने में लग गया। लेकिन क्लास रूम में सुगबुगाहट शुरू हो गई। मोंटू उर्फ़ रघुवीर सिंह ने तभी से जान लिया चुन्नी से दोस्ती की जानी चाहिए। क्योंकि उन्हें मरने से बड़ा डर लगता है। 

दो माह बीते और टर्मिनल टेस्ट हुए। जैसा विदित था चुन्नी और मोंटू पास तो हुए पर दो सौ बच्चों के बीच में उनके रैंक क्रमशः 135 और 136 रहे और शेष फ़ेल हुए। हालाँकि दोनों ने आसपास रहने का फ़ायदा उठाते हुए कुछ पढ़ाई की, जितनी समझ में आई। पढ़ाई में दोनों पूरी मेहनत करने को तैयार थे लेकिन समझ में भी तो आना चाहिए। कक्षा में आधी अँग्रेज़ी, आधी हिंदी। उनकी तो हिंदी भी अच्छी नहीं थी। अब सामने पढ़ाने वाला भी तो मेहनत करे यह नहीं कि दो-चार होशियार बच्चों की ‘यस सर यस सर’ के सहारे क्लास आगे बढ़ाता जाए। और बाक़ी बच्चे भकुए से देखते रहें। यह घास तो ना कटे।

”यार रघुवीर,” चुन्नी उन्हें रघुवीर कहते और वह भाई जी, “ऐसे तो मज़ा नहीं आ रहा। इतने पीछे नंबर आएँगे कैसे चलेगा कुछ करना होगा। फीजिक्स वाला साला बहुत फ़ास्ट जा रहा है।”

“अपने को भी यार बहुत ही कम समझ में आ रहा है। तूने दिल की बात कही।” और सामने की बिल्डिंग की छत पर गाँजा फूँकते स्टुडेंट्स को प्रशंसा से देखने लगे। “कुछ होता है क्या इससे? कभी गाँजा पिए हो?” नहीं में सिर हिला तो चुन्नी बोले, “एकदम मस्त चीज़ है आकाश क़दमों में आ जाता है। और चाँद तारे हाथों में होते हैं। कभी पिलाएँगे तुम्हें अपने गाँव से लाकर, यहाँ तो सब मिलावटी माल है।” 

मीटिंग निर्धारित दिन, निर्धारित समय पर प्रारंभ हुई। डेढ़ सौ के क़रीब विभिन्न निदेशक, मालिक थे जो कोचिंग, हॉस्टल, पीजी चलाते थे इस औद्योगिक नगरी में।

“आँकड़े बताते हैं कि विगत वर्षों में डेढ़ सौ से अधिक छात्र-छात्राओं की मौतें हुईं हैं आपके संस्थानों में। ऐसा क्या है और कैसा पढ़ाते हैं आप? जिससे युवा सुसाइड करना ठीक समझता है?” 

सब सिर झुकाए सुन रहे थे। कुछ देर बाद हिम्मत करके, करोड़ों का रेवेन्यू और ज़िला प्रशासन के बच्चों को निशुल्क आईआईटी, मेडिकल कोचिंग के लिए प्रसिद्ध, संस्थान के निदेशक बोले, “सर हर एक जगह कोचिंग, हॉस्टल, पीजी में हैप्पीनेस हॉल और एक-एक घंटा सुबह शाम वहाँ बिताना युवाओं हेतु कंपलसरी कर दिया जाए तो हम उन्हें डिप्रेशन से बचा सकते हैं।” 

तभी दूसरे निदेशक बोले, “और वैसे भी इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं। यह इनके माता-पिता की ‘अनएक्सपेक्टेड’ आकांक्षाएँ हैं जो वह अपने बच्चों पर थोपते हैं। उसके बोझे तले दबे यह सत्रह, अठारह साल के मासूम लड़के, लड़कियाँ क्या करें? उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने में असफल रहने पर यह सुसाइड करते हैं।” 

“अच्छा,” एक एसडीएम साहब बोले, “इसका अर्थ यह हुआ कि जो लाखों रुपए की फ़ीस आप लेते हैं पढ़ाई के नाम पर वह क्या? माता-पिता तो बच्चों को घर के काम या अन्य ज़िम्मेदारियों से मुक्त करके पढ़ने के लिए आपके पास छोड़ कर जाते हैं। तो आपकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?” हंगामा शुरू हो गया। कुछ कोचिंग, हॉस्टल आदि राजनेताओं के रिश्तेदारों के भी थे। तो वह ग़लती मानने को तैयार ही नहीं थे। एक विरोधी कोचिंग के निदेशक ने सही और खरी बात कही, बोले, “अप्रशिक्षित, अकुशल फ़ैकल्टी से पढ़ाई होती है अधिकांश जगह। स्टुडेंट समझ नहीं पाते। सबसे ज़्यादा मौतें इन्हीं के यहाँ हुई हैं। इनकी कोचिंग बन्द होनी चाहिए।”

हल्ला-गुल्ला शुरू हो गया। कुछ दलाल क़िस्म के लोगों ने बात सँभाली। ऐसे लोग सब तरफ़ होते हैं। नहीं होते तो मज़लूम के पक्ष में। और प्रशासन इतना जागरूक, संवेदनशील की भावी पीढ़ी, जिस आयु में जोश और उत्साह से भरी होती है, उसकी जगह आत्महत्या कर रही है, इसकी जाँच कर रहा है। परन्तु इस मीटिंग में बच्चों का पक्ष रखने वाला कोई नहीं। किसी अभिभावक को बुलाना ज़रूरी नहीं समझा। ख़ुद जल्लाद ही जज बने बैठे थे। आख़िर दो हज़ार करोड़ सालाना के टर्नओवर वाले फलते-फूलते व्यवसाय को कौन रोक सकता है? तो बच्चों की आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार की चिंता के तहत बनी इस कमेटी की मीटिंग में कुछ देर बाद यह सहमति बनी—अच्छी फ़ैकल्टी, हैप्पीनेस कक्ष और समय-समय पर डिप्टी कलेक्टर और विजिलेंस टीम द्वारा जाँच। आख़िर प्रशासन को भी इस सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के अंडे मिलने चाहिएँ न। इस तरह डेढ़ सौ से अधिक आत्महत्या के सारे मामले की लीपापोती हो गई। 

अगले ही दिन एक और मेडिकल कोचिंग की छात्रा ने आठवीं मंज़िल से कूदकर आत्महत्या कर ली। इस बार वह क्लास से निकली, ऊपर गई और कूद गई। कोचिंग कैंपस के मध्य में उसका शव पड़ा था। उसके साथ एक ही बेंच पर कुछ देर पहले बैठीं लड़कियाँ सकते में थीं। उसकी रूममेट और सभी युवा उसके शव के पास खड़े थे। हालात गंभीर थे। उसके बेचारे अभिभावक अगले दिन शाम को आ गए। रोते-रोते सूज चुकी आँखों के बावजूद यहाँ उन्हें ही बेटी की मौत का ज़िम्मेदार बता दिया गया। कारण गिनिए, (1) वही बेटी की मौत के ज़िम्मेदार हैं। क्योंकि बेटी पर दबाव बनाया था पढ़ाई में आगे रहने का। (2) लड़की पहले से ही बीमार थी तो यहाँ क्यों भेजा? (3) बच्चों से घर पर बातचीत और समस्या सुननी चाहिए थी क्यों नहीं सुनी? (4) इतनी बड़ी कोचिंग में डायरेक्टर, जो साठ फुट लंबी कार में बैठ कर आते हैं, उनसे बच्ची क्यों नहीं मिली? 

इस तरह ज़िम्मेदारी हमेशा की तरह माता-पिता पर डालकर कोचिंग वाले मोटा माल कमाने में फिर जुट गए। 

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“यह देख . . . कैसे पढ़ाते-पढ़ाते बीच बीच में नोट्स टीपता है।”

“और बार-बार उस तरफ़ भी देख रहा है जिधर उसका भतीजा बैठा है।”

चुन्नी भी देख रहे थे और हँसते हुए बोले, “पीछे बैठे रंजू नींद निकाल रहे हैं। वाह यार वाह, कमाल है यह तो।”

मोबाइल में रिकॉर्डिंग देखते रघुवीर बोले, “यह कैसे हुआ?”

हरिलाल कुम्हार उर्फ़ एचएल गर्व से अपनी शर्ट की जेब में लगे स्मार्ट पेन को निकाल लहराते हुए बोले, “यह सब इससे होता है। लाइव रिकॉर्डिंग और वह भी मोबाइल फोन में कभी भी कहीं भी।” सब हँस पड़े। चुन्नी और रघुवीर भी आत्महत्या से बचने के उपाय में लगे हुए थे। क्योंकि पढ़ाई उनके ऊपर से निकल रही थी और कक्षा में कोई बोलता नहीं था। ना जाने किस डर से सिर झुकाए बैठे रहते थे कोई सवाल नहीं पूछता। कोई पूछता भी हिम्मत करके तो उसका अँग्रेज़ी में भारी-भरकम जवाब सुनकर दुबारा कोई पूछने की हिम्मत नहीं करता। लेकिन अगले ही दिन चुन्नी अपनी मेडिकल क्लास में पूछ लिए, “यह रिप्रोडक्शन चार्ट को दुबारा समझाइए मैडम हमारी समझ में कम आया है।” 

तो मैडम, जो कि फीजिक्स सर की नई नवेली बीवी और जूलोजी में दरभंगा से एमएससी थीं, ग़ुस्से से बोलीं, “बाक़ी घर जाकर पढ़ो समझ आ जाएगा। क्लास डिस्टर्ब मत करो।” 

चुन्नी अपना सदाबहार अस्त्र चलाए, “क्यों घर पर? यहाँ समझेंगे। पूरी फ़ीस दिए हैं।” 

मैडम ने कोर्स अधूरा रहने का राग अलापा तो दो और खड़े हो गए कि, “यही समझ नहीं आएगा तो आगे पढ़ने से क्या फ़ायदा?“

चुन्नी की गाँजा मंडली के चारों साथी भी हाँ में हाँ मिलाने लग गए तो मजबूरी में दोबारा वह टॉपिक मैडम को पढ़ाना पड़ा। थोड़ा अभी एक बार और पढ़ने की इच्छा थी चुन्नी की कि उन्हें तरस आ गया और उन्होंने दुबारा पढ़ने की डिमांड नहीं की। शान से मुस्कुराते हुए बैठे रहे पर अब मैडम की बारी थी। और अगले ही घंटे में चुन्नी एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफ़िसर के सामने बैठे अपने पेरेंट्स को ग़लत नंबर पर फोन लगा-लगा कर बच रहे थे, कि ‘फोन नहीं लग रहा।’ 

“यह डिसऑबेडिएंट होना बर्दाश्त नहीं होगा मिस्टर सीएल मीणा, क्लास में और भी स्टुडेंट्स पढ़ते हैं आपको अपना व्यवहार सुधारना होगा वरना यहाँ से निकाल दिए जाओगे।”

यह धमकी चुन्नी बाबू भला कैसे सहन करते। वह ऐसी मेडिकल-फेडिकल की नौकरियों की कहाँ परवाह करते? वहीं जवाब देकर, अपना बोरिया-बिस्तर समेट दो सौ एकड़ के मालिक अपने दादा के फलों के बग़ीचे में आ जाते। परन्तु उन्होंने इस व्यवहार, कोचिंग वाले की दादागिरी और अपने सामने वाले कमरे में रहने वाले डोरीलाल की आत्महत्या का बदला लेने की ठानी हुई थी। वह यह भी समझने लगे थे कि कोचिंग से ही सब कुछ होने लगता तो, भैया सत्तर साल के आज़ादी के इतिहास में अभी भी आधी से अधिक डॉक्टर और इंजीनियर की पीढ़ी बिना कोचिंग के ही तैयार हुई है। आप और हम इलाज लेते हैं ना जिन वरिष्ठ डॉक्टरों का वह और जो बड़े-बड़े पुल, मेट्रो रेल बनाए हैं इंजीनियर श्रीधरन उन्होंने कहीं कोई कोचिंग नहीं ली। यह सब नए ज़माने की चोंचलेबाज़ी है। चुन्नी और साथी यह सब जानें, पर देर से। फिर भी उनके दिमाग़ में कुछ था। 

फ़िलहाल वह चुपचाप एक काग़ज़, जो उनको मिसकंडक्ट की चेतावनी थी, पर हस्ताक्षर चू. ला. मा. करके आ गए। जो वास्तव में उनकी तरफ़ से गालियाँ थीं। 

”यह क्या है?” एडमिनिस्ट्रेटिव अधिकारी भड़का। 

“यह मेरा नाम है चुन्नी लाल मीणा,” चुन्नी मुस्काए। फिर एक कोशिश किए, “सर क्लास में वास्तव में कुछ समझ नहीं आता। फ़ैकल्टी को बोलो कि सरलभाषा में और धीरे-धीरे समझाएँ। आधे से अधिक बच्चे समझ नहीं पाते। और प्रश्न पूछने पर मज़ाक बनने के डर से कुछ पूछते नहीं।” लेकिन चुन्नी की आख़िरी कोशिश का भी कोई असर होना था ना हुआ। 

दो रोज़ बाद रघुवीर सिंह भी अपनी भौतिकी की क्लास में ‘लॉ ऑफ़ इनरशिया, कार्नोत साइकिल और एफिशिएंसी ऑफ़ इंजन’ जैसे अति महत्त्वपूर्ण टॉपिक जल्दी जल्दी में ही सिमटा देने से कुछ समझ नहीं पाए।

“सर एक कार्नोत साइकिल में एक उदाहरण देकर समझाइए ना कि क्या इंजन की दक्षता कभी तीस %, से अधिक क्योंं नहीं हुई? हमें कम से कम समझ तो आए।”

क्लास में आसपास के शहरी छात्र थे जो पिच्यासी, नब्बे प्रतिशत अंक लाकर भी कोचिंग में आए हुए थे। वह मुस्कुराने लगे बिना वजह। रघुवीर सिंह उर्फ़ मोंटू की निगाह में यह बेवक़ूफ़ी थी। जब आपकी कोचिंग में टॉप 500 सीटों पर 85 और उससे अधिक प्रतिशत वाले बैठे हों तो वह तो आगे जाकर अपनी मेहनत से ही मेडिकल और बीई निकाल सकते हैं। फिर यह क्यों कोचिंग में आ जाते हैं? और फिर हज़ारों ‘गुड’ सेकंड डिवीज़न और सत्तर प्रतिशत वालों का ‘मोरल डाउन’ करते हैं। यह कोचिंग वाले भी इन्हीं 85 से 90% वालों में से कुछ चयनित हो जाते हैं। बाक़ी संस्थान के हज़ारों छात्रों में से कुछ आरक्षित वर्ग से चयनित होते हैं। कुल चयन एक संस्थान से एक फ़ीसदी भी अधिकतम होता है। जबकि 99 फ़ीसदी हर साल फ़ेल, असफल। वह कहाँ जाएँ? क्या करें? तो ड्रग्स, अवसाद और किस मुँह से घर जाएँगे कि घुटन लिए पड़े रहते हैं। परन्तु सभी कोचिंग वाले उस एक या दो फ़ीसदी जो चयनित हुए, उन्हीं का इतना बड़ा-बड़ा विज्ञापन करते हैं। होडिंग लगाकर दिखाते हैं जैसे कोई चमत्कार हो गया। 99% छात्र-छात्राएँ फ़ेल हो रहे हैं हर साल उनके ऊपर यह कोई प्रकाश नहीं डालते। 

पर सवाल वही था कि रघुवीर सिंह उर्फ़ मोंटू को आत्महत्या नहीं करनी थी। और गाँव भी वापस नहीं जाना था। इसके लिए एक योजना वह चुन्नी से मिलकर बना भी चुके थे। तो इधर वह जान की बाज़ी लगा रहे थे। फ़ैकल्टी को अच्छा पढ़ाने को मजबूर करके। 

“यह सब नोट्स में है और नोट्स पढ़ कर आया करो तो समझ आएगा।”

फीजिक्स की फ़ैकल्टी ने कहा।

“सर पढ़ कर आता हूँ अपने क़स्बे का टॉपर रहा हूँ। पर नई-नई चीज़ें ढंग से बताते तो अच्छे से समझ कर पढ़ पाते। भौतिकी हमें बहुत अच्छा विषय लगता है।”

फ़ैकल्टी अब इन लोगों को जानते थे कि बहस से फ़ायदा नहीं। तो गहरी साँस ली और दो मिनट में दोहरा दिया सब जो कि ऊपर से निकल गया। हिंदी मीडियम का लड़का क्लास के बाद बोला, “यह ऐसे ही करते हैं। कभी ठहरकर, ढंग से नहीं बताते।”

“तो तुम शिकायत क्यों नहीं करते?”

“सब जानते हैं, आगे बैठी अलवर की छात्रा बोली, “यह हमें निकाल देंगे और घर भेज देंगे। लाखों रुपए फ़ीस जमा है, हॉस्टल ख़र्चा सब ज़ब्त हो जाएगा। पता होता ऐसी बकवास पढ़ाई है तो आते ही नहीं।” एक और छात्रा बोली, “इससे बेहतर अच्छी पढ़ाई हमारे शहर की मैडम पढ़ाती और समझाती हैं। हम वाक़ई बेकार यहाँ आए। इससे अच्छा अपने शहर में माता-पिता के साथ रहते और वहीं के अच्छे और मेहनती शिक्षकों से पढ़ते तो भी यहाँ से अच्छे नंबर ले आते। ऊपर से डिप्रेशन, घर की याद तो नहीं आती! और शायद अंजली भी ज़िन्दा रहती।” क्लास में उन दोनों लड़कियों के बीच में एक सीट ख़ाली थी। उसी छात्रा अंजली की, जिसने पिछले दिनों यही क्लास के बीच से उठकर आठवें माले से कूदकर जान दे दी थी। पर किसी को भी सोचने तक का समय नहीं था और क्लासेज़ लगातार चल रही थीं। 

चपरासी चुन्नी के गाँव का था। उसी ने इस कोचिंग की राह दिखाई थी। एक बार एडमिशन हो जाए फिर डॉक्टर बनकर ही बच्चा बाहर आता है। चुन्नी पानी पी-पीकर कोसते थे उसे और मौक़ा पड़ने पर उस की ऐसी-तैसी करना चाहते थे। पर मौक़ा पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। सौ रुपए के बदले चार्जर वाला स्पाई कैमरा स्टाफ़ रूम में लगा कर आ गया। उसकी रिकॉर्डिंग चुन्नी के स्मार्टफोन में हो रही थी।

“हमारी श्रीमती तो अभी अभी एमएससी किए हैं भागलपुर से हिंदी मीडियम से। और उन्हें पाँच लाख का पैकेज मिला,” केमिस्ट्री वाला बोला। “वह तो अच्छा है, क्या भाई अभी अनुभव नहीं है ना। तुम हमारा देखो बीई प्राइवेट कॉलेज से, बेरोज़गार। कोई कैम्पस इंटरव्यू में हमें नहीं लिया। हमारे कोई परिचित थे उनके पास आए। हमें ट्रायल पर क्लासेज़ दे दी, और बाद में परमानेंट हो गए। यहाँ के सभी संस्थानों में सस्ते पैकेज के कारण ‘अनेक्स्पीरियंस्ड फ़ैकल्टी’ ही काम कर रही है। केवल क्रीम वाले बैच में, जिसमें वीआईपी के बच्चे होते हैं, उन्हें ही वरिष्ठ फ़ैकल्टी पढ़ाती है बस। बाक़ी सब की क़िस्मत है कि वह ज़िन्दा रहते हैं या मर जाते हैं।” 

चुन्नी, मोंटू, हरिलाल और अभिलाषा, अलवर वाली छात्रा, की चाय पर मीटिंग थी। क्लास में पूछने पर डाँट, अपमान, अप्रशिक्षित फ़ैकल्टी, एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफ़िसर के धमकी देने के अपमान का बदला लेने का वक़्त आ गया था। ट्रम्प कार्ड स्टाफ़ रूम की अप्रशिक्षित फ़ैकल्टी की बातों की वीडियो क्लिप। सबको देख समझकर एडिट करके दस मिनट का फ़ाइनल वीडियो बना। यहाँ इंजीनियरिंग कोचिंग की तैयारी काम आई। पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती। वीडियो से वह बात उभर के सामने आती थी जो कोचिंग वाले और प्रशासन दबाना चाहते थे। वह यह कि कोचिंग संस्थानों में क्या समस्या है? क्यों विद्यार्थी आत्महत्या कर रहे हैं? वीडियो में सब स्पष्ट था। अनट्रेंड फ़ैकल्टी, विद्यार्थियों के प्रश्नों को दबाना, शिक्षक ख़ुद मेहनत करने की जगह सब ज़िम्मेदारी विद्यार्थियों पर, हर सप्ताह टेस्ट में अच्छी परफॉर्मेंस का दबाव, फ़ेल होने पर उपेक्षा। यह सब बातें उसमें स्पष्ट थीं। वीडियो क्लिपिंग भेज दी गई। संस्था के निदेशक, कार्यकारी निदेशक के पास और प्रशासन के पास। बड़ा हड़कंप मचा। मीडिया में ख़ूब हल्ला-गुल्ला हुआ। लोगों को वास्तविकता पता लगी। चुन्नी, मोंटू आदि को बुलाया गया। दबाव पर भी यह बच्चे नहीं हिले। 

आख़िरकार कोचिंग पद्धति में बदलाव हुआ। ट्रेंड शिक्षक ही रखे जाने लगे। विद्यार्थियों के सवालों के उत्तर दिए जाने लगे। हर संस्थान में एक सुपरवाइज़र रखा जाने लगा जो क्लास में व्यवस्था देखता। सब सही हो रहा है या नहीं। बच्चों के तनाव से भरे चेहरे बहुत दिनों बाद मुस्कुराने लगे। कई तो वापस अपने शहर लौट गए कि इससे बेहतर वहीं पढ़ लेंगे। सिलेबस तो पूरे भारत के हर छोटे-बड़े शहर, क़स्बे में ऑनलाइन वही ही है। सुनते हैं कि वर्षों से किसी को भी आत्महत्या नहीं करनी पड़ रही। और बच्चों की संख्या अब आधे से भी कम है। क्योंंकि सरकार ने दसवीं और बारहवीं की मेरिट के आधार पर प्रवेश किया है। तो बच्चे अपना इंजीनियरिंग या मेडिकल का सपना ऑनलाइन आवेदन करके भी पूरा कर रहे हैं। 

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“चल भाई बता, गाँजा तो नहीं पीता जो आँखें लाल-लाल कर रखी हैं?”

“नहीं साहब यह गाँजा नहीं पिया है यह शराब पीता है,” उसकी घरवाली बोली। 

“अरे तो शराब कौन सा संजीवनी बूटी है?” हँसते हैं डॉ. साहब और दवा लिखते हैं। बाहर बोर्ड लगा है डॉक्टर सी एल मीणा नर्सिंग होम। हर शनि, रविवार निशुल्क परामर्श। उधर मोंटू उर्फ़ रघुवीर सिंह भी एक बहुत बड़ी कंपनी में इंजीनियर हैं और देश की सेवा कर रहे हैं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 4 Oct, 2022 04:59 PM

    हर शब्द सत्य दर्शाता हुआ। इसी सचाई से प्रेरित चेतन आनन्द के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यास ' फ़ाइव प्वांइट समवन' पर आधारित आमिर ख़ान की फ़िल्म '3 इडियट्स' इसीलिए बॉक्स-ऑफ़िस पर हिट हुई।

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