भारतीय दर्शन, संस्कृति के अनछुए आयाम

15-11-2021

भारतीय दर्शन, संस्कृति के अनछुए आयाम

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 193, नवम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

बीज शब्द: भारतीय दर्शन, वेदांत, चार्वाक, बौद्ध, पुष्यमित्र शुंग, संस्कृति, धर्म।

"सहस्त्राशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा त्यतिष्ठदर्शानग॥ 
पुरुष ऐवेदम ---------त्रिपादस्यामृतम दिवि॥"( ऋग्वेद, दसवां मंडल सूक्त: 90 ऋचा 1—5)

अर्थ है पुरुष के सहस्त्र मस्तक, सहस्त्र नेत्र, सहस्त्र पैर हैं। वह समस्त पृथ्वी में व्याप्त और उससे परे भी है। जो कुछ है और जो कुछ होगा वह सब यही पुरुष है। वह अमरत्व का स्वामी है। जितने भी जीव हैं सब में वही है। यही चारों ओर चराचर विश्व में व्याप्त है।" 

यह और ऐसे अनगिनत श्लोक वैदिककाल से सभी को समान और ईश्वरप्रदत्त मानकर एक बड़े भेद-भाव, असमानता से हमको बचाता है। 

विडंबना भी सभ्यता विकसित होने के साथ-साथ विकसित हुई। जब कतिपय कट्टर पंथियों ने इसकी मीमांसा अपने अनुकूल और देशकाल के अनुसार करनी प्रारम्भ कर दी। श्रेष्ठ और सेवक वर्ग के कार्यों को लेकर श्लोक तक अपनी तरफ़ से जोड़ डाले। अनेक विसंगतियों के साथ-साथ वर्ग विशेष में वेद और शिक्षा को सीमित कर दिया। तो चाहे सैंकड़ों साल लगे पर असमानता तो दिखनी ही थी। और असंतोष तो आना ही था। परिणामस्वरूप कई जगह स्वर, तर्कणा और विरोध हुए। परिणामतः सनातन, प्राचीन धर्म की मान्यताएँ, विश्वास दरकने लगे। आस्था पर तर्क और विश्वास पर प्रमाण भारी पड़ने लगा।

"एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा "(श्वेताश्वतरोपनिषद 6/2) की ध्वनि धीमी पड़ती गई और "प्रत्यक्षम किम प्रमाणम" वाले आचार्य बृहस्पति, चार्वाक दर्शन ले आए। जो और कुछ नहीं आज का स्वछंद, उन्मुक्त बाज़ारवाद ही था। चार्वाक दर्शन ईसा पूर्व लगभग छठी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ और इस नास्तिकवादी दर्शन ने लोक, सामान्य वर्गों में गहरी पैठ बनाई। जब आप स्वछंदता से, ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग नरक सभी को हटाकर, जीवन जिएँगे तो यह फलसफा तो वर्गविशेष और हर स्वछंदत्तावादी को पसन्द आएगा ही। हर बात का प्रमाण मानने वाला यह सम्प्रदाय तेज़ी से लोकप्रिय हुआ। "ईश्वर है तो सामने लाओ। स्वर्ग इन दानपुण्यों से मिलता है तो अभी दिलाओ। आत्मा है तो दिखाओ" जैसे कुतर्कों से यह तेज़ी से फले-फूले और उससे भी तेज़ी से नष्ट हो विलुप्त हो गए। क्योंकि बिना नियंत्रण के स्वछंदता आत्मघाती ही होती है। अब इक्कीसवीं सदी में बाज़ारवाद और उत्तराधुनिकतावादी सोच ने फिर पाँव पसारे हैं। यह होम लोन, कार लोन, गोल्ड लोन के माध्यम से बीस-बीस वर्षों की किश्तें भारी-भरकम ब्याज पर देकर गुलाम की तरह लगातार कमाने का दबाब बनाने से युवा पीढ़ी असमय ही वृद्ध होकर नाना प्रकार की बीमारियों से पीड़ित हो रही है।

वर्तमान समय में सब तरफ़ संक्रमणकाल बीत जाने और नव-भारत के निर्माण का दौर है। जब नई तकनीक, दशकों बाद आई नई शिक्षानीति, विकास और ग्राम स्वालम्बन के साथ हम अपनी मज़बूत जड़ों को संरक्षित करते हुए, भविष्योन्मुख भारत का निर्माण कर रहे हैं। कोविड की वैश्विक लहर से पूरा विश्व मानवीय जिजीविषा, संघर्ष का माद्दा और परस्पर मदद से फिर उठ खड़ा हुआ है। ऐसे में स्वाभाविक है कुछ नकारात्मक, विदेशी ताक़तें अपना दुष्प्रभाव, दुष्प्रचार भी करती हैं जिससे व्यक्ति, ख़ासकर नई पीढ़ी भ्रमित हो। भारत अस्थिर, कमज़ोर हो और सदैव बड़े देशों के सामने याचक की मुद्रा में ही रहे पहले की तरह। इसमें देश के ही अवसरवादी, स्वार्थी लोग पैसों, नाम के लालच में उनका साथ देते हैं। देश में रहकर ही देश की जड़ों को खोखला करते हैं। इसमें सीएए, 370 का विरोध, किसान आंदोलन सब आते हैं। लोकतंत्र है आपको अधिकार है अपनी बात रखने का लेकिन ज़िद पर अड़ जाना और देश के लाखों किसानों को तनावयुक्त ज़िंदगी में डालना देशद्रोह है। सरकार भी तर्कतापूर्ण ढंग से समझा रही है, बात रख रही है और लचीला रुख किए है संशोधन हेतु। लेकिन देश विरोधी ताक़तों (यह कई हैं जिसमे कश्मीर गैंग, पड़ोसी मुल्क, पंजाब के पूर्व आंदोलनकारी और चीन तक संयुक्त रूप से छद्म आंतरिक हमला कर रहे) ने हमारे ही गुमराह, स्वार्थी तत्वों को अंधाधुंध रुपए देकर आगे कर दिया है।

समझें कि ऐसी ही विकट स्थिति ईसापूर्व भी आई जब चार्वाकों ने वर्तमान में रहने और "ऋण कृत्वा घृतं पिबेत" का नारा देकर एक बड़े वर्ग को गुमराह किया। यह देश की माटी की विशेषता है कि जल्द ही समझ आ जाता है कि हमें कौन और क्यों इस्तेमाल कर रहा है।

प्राचीन भारत ईसा पूर्व छठी शताब्दी का काल खंड जब सनातन धर्म, वैदिक मूल्य सब कुछ तहस-नहस हो रहा था, ग्रंथ, वेद उपनिषद, पुराण, श्लोक, हवन सब कुछ ख़त्म प्रायः था। और यह एकाएक नहीं बल्कि कई शताब्दियों से था। पूरे अखंड भारत, जो आज के भारत से छह गुना बड़ा था, में बौद्ध धर्म अन्य लोक परम्पराओं का बोलबाला था। देश की मूल अस्मिता छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। वैदिक धर्म, आचार्यगण, मंदिर सभी ध्वस्त हो रहे थे। (भगवतशरण उपाध्याय, प्राचीन भारत, चौखम्बा वाराणसी)। चुन-चुनकर सनातन धर्मावलम्बी ख़त्म किए गए, पूरा अखंड भारत त्राहि-त्राहि कर उठा। और यह किसने किया? किसी विदेशी आक्रमणकारी ने? कोई क़बीलाई सरगना ने? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर इतिहास में दर्ज है। दरअसल विसंगतियों, विरोधाभास और परम्परा के निर्वहन के नाम पर शोषण होगा तो विरोध होगा ही। पर वह प्रतिरोध बेहद चौंकाने वाला और विद्रोह जैसा था। 

यह उथल-पुथल का दौर था। नाग वंश, मौर्यवंश, सोलह महाजनपद और उसके बाद सैंकड़ों साल तक वैदिक संस्कृति विलुप्त थी। बोलबाला था चार्वाकों, बौद्ध संस्कृति का। "अप्प दीपो भव" जैसे यथार्थतपरक और सब अगला-पिछला छोड़कर वर्तमान को जीने का मनलुभावन सन्देश जनमानस को बेहद पसन्द आ रहा था। और वक़्त था प्राचीन धर्म को उखाड़ने और चार्वाक, बौद्ध धर्म की स्थापना का। 

 

तत्कालीन भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियाँ

 

हम बात कर रहे हैं ईसा पूर्व छठी शताब्दी के भारत की। सर्वत्र हमारी वैदिक संस्कृति और उसके आचार-विचार प्रचलन में थे। कुछ वितंडा प्रिय लोगों ने अपने स्वार्थवश वैदिक श्लोकों, सूक्तियों की मनमानी व्याख्या करके जन्मों तक सुख सुविधाओं का प्रबंध किया हुआ था। कुछ दार्शनिक, वेदांतज्ञ जिनमें कपिल मुनि, आचार्य वात्स्यायन, कणाद, बृहस्पति आदि को छोड़कर किसी को भी धर्म, संस्कृति को सभी के लिए सहज सुगम भविष्य के लिए संवर्धित करने की कोई चिंता नहीं थी। 

संस्कृति सुस्पष्ट, अविरल बहती, नाद के स्वर सी महसूस होती है। दरअसल संस्कृति और लोक के मध्य अन्योन्याश्रित (एक के बिना दूसरा नहीं) सम्बन्ध है। शिक्षा, आचार्य, वेद पुराणों, उपनिषदों, वेदांगों से पूर्व भी संस्कृति रही है और आगे भी रहेगी। दरअसल जैसे-जैसे मानव सभ्य, बुद्धिमान, शिक्षित होता जाता है वैसे ही वह अपने आचार-व्यवहार को परिष्कृत करता चलता है। 

विष्णुगुप्त कहते हैं, "हम स्वभाव से ही परिवर्तनगामी और सांस्कृतिक हैं।"

व्यवहार, अध्ययन, कलाओं,सद्गुणों और भाषा के द्वारा हम परिष्कृत होते हैं। यह अपने समय के साथ बदलती और परिवर्तित होती रही हैं। आवयश्कता इस बात की है कि आप सकारात्मकता चुनते हैं या सीमित दायरे की स्वार्थपरक स्वतन्त्रता? और यक़ीनन धर्म, देशकाल, परिवेश के गहरे असर के बाद जो सामने आता है वह सभी को साथ लेकर और विभिन्नता में एकता की पुरानी कसौटी पर चलने वाला समाज होता है।

अक़्सर संस्कृति के पहरुआ, नियम बनाने वाले कोई और होते हैं और उनका पालन करने वाले कोई और।

लोक और समय अपने लिए नायक और कुंठाओं, असंतुलन को तिरोहित करने का रास्ता ढूँढ़ ही लेता है। चार्वाक (ऊपर पढ़ा है आपने), फिर तथागत गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी उसी समय धीरे-धीरे विकसित हुए।

जैसे पानी की धार को आप जीवन दायिनी रूप में भी काम में ले सकते हैं। वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक आपदा में वह विनाशकारी सब कुछ ध्वस्त कर देनी वाली जलधारा है। जैसे इन दिनों हम देख रहे हैं बिहार, पूर्वी भारत में हर वर्ष विकराल बाढ़ आती है। कश्मीर, उत्तराखंड में बादलों ने तबाही मचा रखी है। (दैनिक जागरण, अमर उजाला, 14,17, 21 जुलाई 2021)। यह हर वर्ष होता है और सरकारें कई दशकों से कुछ नहीं कर रहीं। मूल कारण उस तरफ़ की नदियाँ दूसरे देशों चीन, नेपाल, बांग्लादेश की तरफ़ से भारत में प्रवेश करतीं हैं। क्योंकि उस तरफ़ इन देशों ने बाँध बनाकर वर्षा के पानी का मुँह मोड़कर भारत की तरफ़ कर दिया है। फिर हिमालय से आने वाली नदियों में पानी अत्यधिक होता है, तो वह हर वर्ष हमारे देश के निम्न तबक़े में तबाही मचाती हैं। जिससे हज़ारों घर और लाखों लोग प्रभावित होकर घरबार छोड़कर दर-दर की ठोकर खाते हैं। पूर्ववर्ती सरकारें पड़ोसी देशों से इस बारे में गम्भीर ऐतराज़ कभी नहीं किया। तो यह आप टीवी पर देखते होंगे स्त्री–पुरुष, बच्चो, बूढ़ों को सिर पर ज़रूरत भर का सामान लादे पानी में दर-दर भटकते। और इनके घरों को ध्वस्त होते, पशुओं को मरते। ग़रीब लोग और ग़रीब। क्योंकि सिर ही नहीं बल्कि आवाज़ भी नहीं उठा सकते। क्योंकि पूरा का पूरा क्षेत्र, हर व्यक्ति पीड़ित है। अब सरकार कुछ करे। 

ऐसी ही विसंगतियाँ उस वक़्त, आज से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व, कमोबेश ऐसी तो नहीं पर दूसरे हालात थे। प्राकृतिक आपदा तो कभी-कभी आती है। परन्तु धर्म, रीति-रिवाज़, स्वर्ग नरक की आपदाएँ जनमानस में हर समय, हर काल मे व्याप्त रहीं। तब भी लोक और उससे जुड़ी काफ़ी बड़ी जनसंख्या को बोलने, अपना धर्म चुनने और उनके हालात सदियों से ऐसे ही खराब क्यों हैं जानने का हक़ नहीं था। तब भारत अखंड था, जिसमें नेपाल, पाकिस्तान, बर्मा, बंगलादेश, कम्बोडिया आदि सभी एक थे। तो पानी और नदियों को इस तरह इधर-उधर मोड़कर परेशान नहीं किया जाता था। उस वक़्त यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि सनातन परम्परा और पंडितों का बोलबाला था, जाति प्रथा चरम पर थी। नीचे कुल में जन्म लेने पर सदियों, पीढ़ियों तक आपको सेवक, निम्नकर्म करने ही होते थे। हर तरफ़ शास्त्रों के आधार पर पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को जो लगभग साठ प्रतिशत था, को दबाया, डराया और कहा जाए कि शोषित किया जा रहा था।

तो प्रारम्भ चार्वाकों से हो गया था। जो लगभग चालीस वर्ष रहा परन्तु स्वछंदतावादी सोच के कारण नष्ट भी यह हो गए। पर जनप्रियता बेहद मिली। इसी को सुधार कर अर्थात कुछ नियम, तर्क और स्वयं पर भरोसा करने की बात कहकर बौद्ध धर्म का उदय हुआ। चार्वाक पहले ही कह गए थे कि "जिस चीज़ का प्रत्यक्ष हो उसी की सत्ता (existence) मानी जाएगी।" इस बेतुके तर्क, वितंडा से स्वर्ग, नरक, वेद, पुनर्जन्म, आत्मा, ईश्वर सभी की सत्ता नकार दी गई। ब्राह्मण आचार्य उस वक़्त इसका युक्तिसंगत हल, तर्कतापूर्ण समाधान नहीं दे सके। इसी को आगे लेकर चलने में बौद्धों को कोई दिक़्क़त नहीं हुई। पश्चिमी दर्शन से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व ही भारत में यह परम्परा आ गई कि पिछले विचार, दर्शन का तर्कतापूर्ण ढंग से खंडन। फिर उसमें नई तर्कणा से मान्यताएँ जोड़ नया धर्म, दर्शन प्रस्तुत करना। ऐसा जो जनमानस को बन्धन मुक्त भी करे और साथ ही कुछ दार्शनिक प्रश्नों से उसे जोड़े भी। यानि आपको भोग, रस, आनंद पसन्द है तो आप उसी में रहिए बस कभी-कभार सत्संग कर लें। आप उससे आगे, तर्कणा वाले हैं तो आपके लिए "दुख, दुख का कारण, दुख निवारण, दुख निरोध के उपाय", ( आचार्य बौद्ध के चार सत्य ) भी दिए गए। 

अब यह मूलरूप से हमारे वैदिककालीन चार आश्रमों, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास, वानप्रस्थ का ही एक और स्वरूप था। 

परन्तु यह चला, बेहद लोकप्रिय हुआ। समय भी अनुकूल था और उस वक़्त के सम्राट भी लोक से, वंचित वर्ग के थे। नंद वंश, मौर्य, गुप्त से लेकर आगे चोल,चालुक्य, चंदेल तक। तो यह धर्म बहुत लोकप्रिय और राजधर्म बना।

अब कल्पना करें आज के भारत से दुगना भारत और उसके शक्तिशाली सम्राट नंद वंश, फिर चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक और उनके राजगुरु, बौद्ध आचार्य। सम्राट उन्हीं से पूछकर हर फ़ैसला लेते। अनेक बौद्ध केंद्र, (वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह, मगध आदि) बौद्ध विहार, स्तूप बने और बनाए गए। सम्पूर्ण भारत नए रंग और धर्म में रंग गया। 

यह भी वामपंथी, या कहें लोभी लोगों का मिथ्या प्रचार रहा कि वंचित वर्ग, दबा कुचला रहा। जबकि वास्तव में इससे उल्टा था। इतिहास में यह दर्ज है वाममार्गी इतिहासकारों द्वारा ही लिखी किताबों में की नंद वंश (जब से प्राचीन भारत के बड़े भूभाग के संगठित सम्राट की परंपरा प्रारम्भ हुई) मौर्य, सातवाहन आदि सभी सम्राट वंचित तबक़े से ही थे। ग्वाले, केशकर्तन वाले इन्होंने कम से कम छह सौ वर्ष राज किया अखंड भारत पर।

केवल एक ब्राह्मण राजा आया वह भी सब तहस-नहस के बाद पुष्यमित्र शुंग। मन-मर्ज़ी का राज आपका, सैंकड़ों सालों तक, धर्म आपके मनमाफ़िक और प्रताड़ित ब्राह्मण और सनातन परंपरा? 

उस वक़्त, लगभग चार सौ वर्षों तक, भारतवर्ष से वैदिक धर्म, कर्मकांड हाशिये पर रहा। असंख्य मंदिर, स्थल तोड़कर बौद्ध विहार, स्तूपों में बदल दिए गए। जो बौद्ध आचार्य कहें वही होता। प्रारम्भ में विरोध होना था, हुआ सर्वत्र ज़बरदस्त। पंडितों, विद्जनों से लेकर सभी ब्राह्मण और सवर्ण वर्ग ने विरोध किया। परन्तु भारत का सम्राट स्वयं वंचित तबक़े से थे। और वह कहीं न कहीं कर्मकांडों, स्वर्ग, नरक, आत्मा, मोक्ष के कटु अनुभवों को महसूस करते हुए ही आए थे। ऊपर से गौतम बुद्ध का बड़े ज़ोर-शोर से आगमन हो चुका था। हालाँकि उनकी सभी शिक्षाएँ अष्टांग मार्ग से लेकर "अप्प दीपो भव" वेदों से ही प्रेरित थीं। बस उसका सरलीकरण या यूँ कहें ज़रूरत के अनुसार समय-समय पर मीमांसा कर दी गई। वह भी शिष्यों और पट शिष्य आनंद द्वारा ही त्रिपिटक के निर्माण की भूमिका तैयार की गई। बुद्ध तो मौन रहते थे और उपदेशों को लिखने या बोलने के विरुद्ध थे। उनका ज़ोर व्यवहार में उतारने और जीवन में उद्धरण प्रस्तुत करने का था। लेकिन बौद्ध धर्म की लोकप्रियता, जो कि वास्तव में आज भी कोई धर्म है ही नहीं, को देखकर उसके सुखद, उज्ज्वल भविष्य के लिए उनके शिष्यों ने बुद्ध के जाने के दो सौ वर्षों बाद त्रिपिटक में उनके उपदेशों, शिक्षाओं का संकलन किया। जो मूलतः वेदों, उपनिषदों, पुराणों के विचारों की ही मीमांसा थी। लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में बौद्ध धर्म राजधर्म था और वैदिक धर्म, समाप्ति की कगार पर पहुँच गया। इसके लिए अहिंसक बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने मौर्य सम्राट की मदद से हज़ारों ब्राह्मणों, पुरोहितों, आचार्यों का क़त्लेआम करवाना प्रारम्भ किया। ऐसी हिंसा, जो आपादमस्तक अक्षम्य, अधर्म और अनैतिक थी, हुई और सम्पूर्ण भारत से सनातन धर्म, मंदिर सब लुप्त प्रायः हो गए। हज़ारों मंदिर इन अहिंसक बौद्धों ने तोड़े। 

 

पुष्यमित्र शुंग: समभाव, सहिष्णुता, सद्भावना की पहचान

 

भारतीय प्राचीन इतिहास में वैदिक और सनातन धर्म के मानने वालों का भीषण क़त्लेआम कभी नहीं हुआ। कल्पना करें किसी भी देवी देवता की पूजा, मंदिर, वेद, विचारों की बात करने पर मृत्यदंड था। (दुःखद यह कि अधिकांश सत्ता के साथ के इतिहासकारों ने इसका ज़िक्र नहीं किया। बस भगवत शरण उपाध्याय, रामविलास शर्मा जैसे चन्द लोगों ने किया इस हिंसा का उल्लेख)। बुद्ध के बाद यह सब हुआ और परम शक्तिशाली बौद्ध आचार्यों नागार्जुन, वसुबन्धु, नागसेन आदि ने लगभग डेढ़ शताब्दी ईसापूर्व इस पुण्य भूमि से सनातन परंपरा का लोप किया।

फिर जैसे-तैसे छुपते, जान बचाते पंडितों, सनातनियों ने दक्षिण की एक रियासत के राजा पुष्यमित्र शुंग (प्रथम और आख़िरी ब्राह्मण शासक) से प्रार्थना की सनातन धर्म की रक्षा और देश को सँभालने की। शौर्यवान, प्रतापी राजा शुंग, अशोक से पराजित होकर अपनी ही रियासत को मौर्य वंश के निर्देश से सम्भाल रहा था। उसका सैन्य कौशल अद्भुत था। शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य को अशोक के पड़पोत्र सँभाल रहे थे। अशोक तो युद्धभूमि में विजयी होकर, लाशों के ढेर देख सब त्याग कर बौद्ध भिक्षु बन गए थे। और सदैव की भाँति बौद्ध आचार्य के निर्देशानुसार राज्य का संचालन हो रहा था। कोलकत्ता संग्रहालय सहित कई जगह चित्र हैं इस काल के। जिसमें राजदरबार में सम्राट से भी ऊपर बौद्ध आचार्य का सिंहासन है, और मौर्य सम्राट उनके चरणों में बैठ राज-काज चला रहे हैं। और मन-माना कर, धर्म के विरुद्ध आचरण, जो उनकी बात नहीं माने उस वैदिक आचार्य और अनुयायी को मृत्युदंड जैसे अत्याचारों से ख़ास वर्ग को छोड़कर सभी त्राहिमाम, त्राहिमाम कर रहे थे। अनेक रियासतों के शासक, वैदिक आचार्य, अनुयायी नरसंहार से बचने के लिए छुपते फिर रहे थे। सनातनी और वैदिक परंपरा के लोगों के अनुरोध पर एक गठबंधन हुआ। दक्षिण की छोटी सी रियासत का शूरवीर ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंग साझी सेना का नेतृत्व करने और मौर्य साम्राज्य से युद्ध करने को तैयार हो गया।

कल्पना करें ईसापूर्व का भारत, शक्तिशाली मौर्य वंश की दो सौ से अधिक वर्षों की परंपरा चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर अशोक और अब उसके प्रपौत्र तक और सामने एक छोटी सी सेना। प्राचीन इतिहास के भीषण युद्धों में यह माना जाता है। कई दिनों तक युद्ध चला हज़ारों लोग दोनों तरफ़ से मारे गए। पर अन्ततः पुष्यमित्र शुंग की सेना विजयी हुई। मौर्य वंश का वह शासन जिसमें वैदिक भारतीय परम्परा नष्ट प्रायः कर दी थी, उसका अंत हुआ। यदि यह युद्ध नहीं होता तो आज इक्कीसवीं सदी में हम बैठे अपनी वैदिक परंपरा और भारतीय धर्मों की सदानीरा को प्रवाहित होते नहीं देख पाते। हिन्दू धर्म के स्थान पर कोई अन्य धर्म राज कर रहा होता। देश की परंपरा नष्ट हो चुकी होती।

पुष्यमित्र शुंग (185 ईसा पूर्व -149 ईसा पूर्व) की राजधानी पाटलिपुत्र थी। मौर्य वंश को हराकर उसने सनातन संस्कृति और वेदों की पुनःस्थापना की। मूलतः यह दक्षिण भारत का छोटा सा राजा था। बाद में शुंग वंश 75 ईसापूर्व तक चला।

उसके शासक बनने के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप अत्याचार कर रहे बौद्ध आचार्यों और उनके अनुयायियों का क़त्लेआम हुआ। उसी कालखण्ड में मंदिरों को नष्ट कर बनाए स्तूपों, विहारों का पुनः उद्धार हुआ। बोधि वृक्ष को काटकर उसकी जड़ों में अंगारे भरे गए। बौद्धों ने सम्राट के दरबार पाटलिपुत्र में गुहार लगाई। जहाँ कल तक बौद्ध आचार्य मौर्य और गुप्त सम्राट से अपने मनचाहे फ़ैसले करवाते, मंदिरों, वैष्णव अनुयायियों को मृत्युदंड दिलवाते थे अब वह ख़ुद अपनी ही करनी का फल भोग रहे थे। उन्होंने अपने कृत्य से अहिंसावादी बौद्ध धर्म के नाम पर इतनी हिंसा की और मंदिरों को नष्ट किया था, कि यह धर्म अब समाप्ति की कगार पर पहुँच गया था। लेकिन इन सबके मध्य भी ब्राह्मण सम्राट सौम्य, बुद्धिमान, दूरंदेशी पुष्यमित्र शुंग राजधर्म, सभी को शांति से जीने का अवसर मिले, नहीं भूले। उन्होंने दोनों पक्षों बौद्धों और वैदिक धर्मियों को बुलाकर, बैठाकर सारा वैमनस्य दूर कर मिल-जुलकर रहने की बात की। उसने यह निष्पक्ष व्यवस्था दी कि सभी को अपनी इच्छानुसार धर्म चुनने की छूट है। कोई भी किसी पर दबाव नहीं डालेगा। सभी जन मिल-जुलकर रहेंगे। और सबसे महत्वपूर्ण, राज्य का मूल धर्म, हमारी मूल पहचान वैदिक, वैष्णव धर्म होगा परन्तु साथ ही अन्य धर्म को भी अपनाने की स्वतन्त्रता होगी और उनके स्थलों का भी संरक्षण होगा। यह मौर्य और गुप्त वंश, जो घोषित तौर पर सम्राटों के बौद्ध अनुयायी होने से पूरे राज्य में प्रत्येक नागरिक और मंदिरों को बौद्ध बनाने पर मजबूर करते थे, से पूर्ण विपरीत बात थी। हमारी समन्वयकारी संस्कृति और सोच की बात थी। यहाँ से बुनियाद पड़ी वर्तमान भारतीय संस्कृति की। जिसमें जीने की पद्धति के साथ-साथ वैदिक और वैष्णव संस्कृति के अनुरूप धर्म, मंदिर और उनके अनुकूल आचरण की व्यवस्था रही। बौद्ध धर्म भी रहा पर वह स्वतः ही सीमित दायरे में रह गया। क्योंकि लोग दुष्ट आचार्यों के द्वारा इतने सताए गए थे कि वह अब इससे दूर ही रहना चाहते थे। सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने भारतीय इतिहास में पहली बार धातु के सिक्के चलाए जिन पर हिन्दू देवी-देवता, शिवजी, माँ दुर्गा, सरस्वती आदि चित्रित थे। कालांतर में उसने बोधि वृक्ष, गौतम बुद्ध, बौद्ध स्तूपों के भी सिक्के जारी कर समन्वयकारी, सहिष्णु साम्राज्य की भारत में पुनर्स्थापना की। उन्होंने अनेक मंदिरों, जलाशयों, धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। वहीं रांची, गया, मगध, वैशाली, सारनाथ के बौद्ध विहारों और स्तूपों को भी पुनर्स्थापित किया। 

भारतीय संस्कृति और उसकी रीति नीति की यही परम्परा रही है। सभी का समादर और उच्च मूल्यों, वैज्ञानिकता का उत्तरोत्तर विकास। पर यह भी उतना ही सच है की विचारों, सोच, व्यवहार और सबसे बढ़कर जड़ों को सिंचित करने का वक़्त है। हर दिक्‌ काल में लोगों को लगता है कि हम पिछले वालों से आगे हैं और ऐसा ही हमसे कुछ दशकों बाद के लोगों के लिए हम पुराने हो जाएँगे। यह अनवरत, निरन्तर चलते रहने वाली प्रक्रिया है। हमें यह तय करना है कि हम राष्ट्र, समाज और संस्कृति के विकास में क्या योगदान दे रहें हैं? चाहे हम मज़दूर, किसान हों, वैज्ञानिक, दार्शनिक, बुद्धिजीवी या फिर विद्यार्थी; हम सभी को यह भागदारी सुनिश्चित करनी होगी।

सन्दर्भ:

  1. महादेवन टी. एम.पी., आचार्य शंकर, गीता प्रेस गोरखपुर, संस्करण 1990।

  2. थापर रोमिला, प्राचीन इतिहास, हिंदी अनुवाद, एच एच प्रकाशन, 1985, दिल्ली। 

  3. राधाकृष्णन सर्वपल्ली, भारतीय दर्शन,भाग 1, 2, संस्करण 1988

  4. नंदकिशोर, भारतीय दर्शन की समस्याएं, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, संस्करण 1992

  5. उपाध्याय भगवतशरण,प्राचीन भारत, चौखम्बा,वाराणसी, दूसरा संस्करण 1995

  6. दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, सं 1974, लोकभारती, इलाहाबाद।

1 टिप्पणियाँ

  • 14 Nov, 2021 02:47 PM

    बहुत सार गर्भित आलेख ,अंततः निष्कर्ष यही निकला कि हम आशान्वित रहें कि हमारी संस्कृति निरंतर बनी रहेगी ,।हाँ ,उतार चढ़व आते रहेंगे !!

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