कोई तो है जो तुम्हें याद करता है अमृत कन्याओ

15-03-2021

कोई तो है जो तुम्हें याद करता है अमृत कन्याओ

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)


पुस्तक: लाल बत्ती की अमृत कन्याएँ (उपन्यास)
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 
संस्करण: पेपरबैक, 2019 
मूल्य: १९९ रुपये 


हर देश काल में समाज में इनकी उपस्थिति रही है। चाहे वह काल्पनिक स्वर्ग, वेदों, रामायण की इंद्र और अन्य देवताओं के साथ अप्सराएँ रही हों। या फिर गुप्त, मौर्य काल में गणिकाएँ, नगरवधुएँ रही हों। बाद में इन्हें अन्य नामों से भी बुलाया गया और कुछ अधिक प्रबुद्ध लोगों ने नाम दिया सेक्स वर्कर। इनके बारे में सोचना, इनके पास जाना और इन पर लिखना यह कार्य समाज में वर्जित माना जाता है। न जाने क्यूँ, पर ऐसा है तो है। हालाँकि शरत चंद्र ने इस विषय पर बहुत लिखा। उनके अलावा आचार्य चतुरसेन (वैशाली की नगर वधु), जानकी वल्लभ शास्त्री (आम्रपाली), प्रदीप सौरभ (मुन्नी मोबाइल), शरद सिंह (पिछले पन्ने की औरतें, पँचकौड़ी), निर्मला भुराड़िया (गुलाम मंडी ), प्रदीप श्रीवास्तव (मेरी जनहित याचिका) कई दशकों में मुश्किल से यही चन्द नाम उभरते हैं। 

कुसुम खेमानी अलग धरातल पर लाल बत्ती की अमृत कन्याएँ, को लेकर आती हैं। यह इन अमृत कन्याओं के बच्चे (जिनमें किसी के भी पिता नहीं हैं) उनके कार्य और मेहनत को रेखांकित करती हैं। वह उनके सपनों, बेहतर ज़िंदगी जीने की ललक, उनके मासूम बचपन को सामने लाती हैं। साथ ही उन स्त्रियों की आवाज़ उठाती हैं जिनकी हमारे समाज, संविधान और न्याय में कहीं सुनवाई नहीं है। जो सदियों से वंचित, उपेक्षित हैं। उपन्यास के शिल्प और ढाँचे की परवाह किए बिना लेखिका इस जोखिम को उठाती है और सफल होती है। क्योंकि बहुत पीड़ा, दर्द से औरत, वह चाहे सत्यवती सावित्री हो, या आज की आधुनिक नारी या यह सोना गाछी (कोलकत्ता का रेडलाइट एरिया) की वह प्रसव पीड़ा, दर्द और तमाम कष्ट के बाद ही संतान को जन्म देती है। और यह मत भूलिए की इन लोगों के लिए कोई डॉक्टरी मदद, चेकअप, सावधानी नहीं होती। यह अमूमन गन्दी बस्ती के एक कमरे की खोली में गंदगी के मध्य, स्थानीय दाई अथवा अथाह पीड़ा सहते हुए वहीं बच्चे को जन्म देती हैं। और अक़्सर मर भी जाती हैं। कभी भी आपने किसी गणिका को अस्पताल में भर्ती होते देखा?

और हर बच्चा जन्म लेता है तो वह निर्दोष, उज्ज्वल भविष्य और अच्छी ज़िंदगी का हक़दार होता है। इसी बात को शिद्दत से रेखांकित करता है यह उपन्यास। जिसमें इन बच्चों के माध्यम से, उनके मध्य रहकर उनकी कहानी कही गई है; किस तरह की ज़िंदगी वह जीने को मजबूर होते हैं। कमोबेश यह स्तिथि हर महानगर के रेडलाइट एरिया की है। छोटे-छोटे काम, सिग्नल पर गुब्बारे, खिलौने, पेन, बेचते हुए यह बच्चे कब अपराध और नियति की चक्की में पिसकर घूरे पर फेंक दिए जाते हैं, यह स्वयं भी नहीं जानते। इनकी पीड़ा और हालात से लेखिका मुठभेड़ ही नहीं करती वह इनके लिए राह भी तलाशती है। इन अर्थों में यह कथा नए वितान खोलती है कि नायिका इन बस्तियों में जाकर इन बच्चों को शिक्षा दिलाने का सफल प्रयत्न करती है। साथ ही इन स्त्रियों की कहानियाँ भी हमारे सामने खुलती हैं। उनकी समस्याओं, रोगों के इलाज की समुचित व्यवस्था करने की कोशिश करती है। 

कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हम अपने को उन्हीं के मध्य उस परिवेश में ही पाते हैं। यह भी हम सबकी तरह आम इंसान हैं, इनको भी शिक्षा, जीने और स्वास्थ्य का हमारे बराबर ही अधिकार है। कुसुम खेमानी ने एक साक्षात्कार में मुझे बताया कि, "इस बस्ती और माहौल में लगातार दो वर्ष तक मैं गई, रही भी और इन सबसे बातचीत की। कई पात्र तो इस उपन्यास में ऐसे के ऐसे ही उठकर आए हैं। अपनी कहानी ख़ुद कहते हुए।

जिस दौर में लेखन महज़ शौक़िया, टाइम पास, अपनी लोकप्रियता का दिखावटी, फ़ैशन हो गया है; उसी दौर में भारत के शीर्ष लेखकों में शामिल लेखिका द्वारा बेहतरीन शोध के साथ लिखा यह उपन्यास एक धरोहर है। उससे बढ़कर– ऐसा जीवन्त दस्तावेज़ है जिसे हर संवेदनशील मनुष्य को पढ़ना चाहिए। साथ ही अपनी दृष्टि समाज के उन कोनों की ओर भी करनी चाहिए जिनसे हम बचते रहे हैं। 

वरिष्ठ लेखिका कुसुम खेमानी का यह लावन्यदेवी, जड़ियाबाई, गाथा रामभतेरी के बाद पाँचवाँ उपन्यास है। इसमें उस अछूते पहलू को लिया गया है जिसे हम-आप रोज़ देखते हैं, दो चार होते हैं, रोज़ ब रोज़ पर कभी सोचते नहीं। यह लाल बत्ती पर हर शहर में मिल जातीं, बच्चे को गोदी में लिए, छोटी-छोटी बच्चियों के हाथों में गुब्बारे सामान बेचतीं, फिर न जाने कब बाल्यावस्था से ही अनैतिक प्राचीन देह व्यापार में धकेल दी जातीं हैं। हर शहर में अनगिनत बरसों से दोहराई जाती इन बच्चियों, स्त्रियों की कहानी, शोधपरकता से इस कृति में है। कुसुम खेमानी, भारतीय भाषा परिषद, जो हिंदी और साहित्य के लिए अनेक दशकों से सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है, की अध्यक्ष हैं। लेखकीय बेचैनी, छटपटाहट और स्त्री के दर्द को महसूस करके उनकी दशा और दिशा सुधारने के लिए वह जा पहुँचती हैं कोलकाता के सोनागाछी क्षेत्र में। वहाँ की बेटियों और स्त्रियों की करुण दशा, बीमारियों से मरती घुटती और कम उम्र में, नौ, दस वर्ष में ही देह व्यापार में धकेली जाती स्त्रियों की पीड़ा को स्वर देती है यह कृति।

ऐसा चित्रण जो हम सभी, प्रबुद्ध, युवा, स्त्रियों को उस माहौल में लाकर खड़ा कर देगा। उन के प्रति हम ज़िम्मेदार बनें और उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाएँ उसके लिए यह उपन्यास मुख्य रूप से हमें प्रेरित करता है। साथ ही उनके स्वाभिमान, दूरदर्शिता, ख़ुशी के पल, उनका जीवन और त्योहार आदि सब कुछ इसमें है। बस हम कब क़दम उठाएँगे, चाहे वह उनकी शिक्षा हेतु हो या उन्हें चिकित्सा मिल सके इसकी कोशिश हो, किताबें, विचार-विमर्श, काव्य-धारा भी उनके मध्य हो, हम यह तो कर ही सकते हैं, अपने-अपने शहरों में रहते हुए। 

लेखिका उन्हें लालबत्ती की अमृतकन्याएँ कहती है, यानी वह अपनी स्थिति, अपनी परेशानियों के मध्य भी सुधारने के लिए कोशश करती हैं। हमें उनका साथ देना है। 

रोचकता,पठनीयता और संवेदनाओं का चित्रण, शिल्प और कथ्य में सामंजस्य कृति को कालजयी बनाता है। अवश्य पढ़ी जानी चाहिए यह कृति, विशेषकर हमारे सभी सकारात्मक राज नेताओं को भी। राजकमल प्रकाशन ने बेहतरीन ढंग से यह पुस्तक प्रकाशित की है उन्हें बधाई। लेखिका को विशेष बधाई की उन्होंने एक उपेक्षित विषय पर इतने शोधपरक ढंग से उपन्यास लिखकर हिंदी साहित्य जगत को समृद्ध किया। 


 

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