क्राफ़्ट और विविधता के साथ कहानी की ज़मीन
डॉ. संदीप अवस्थी
कहानी कहना, बुनना और लिखना एक क्राफ़्ट है। यह क्राफ़्ट जानते थोड़ा–बहुत सभी लेखक हैं परन्तु उसमें माहिर गिनती के ही होते हैं। अपने दो दशकों के लिखने और तीन दशकों से अधिक की पढ़ने की यात्रा से यह जान पाया हूँ कि कठिन परिश्रम और एक-एक पंक्ति, दृश्य पर काम किए बिना अच्छी रचना नहीं बन सकती। वर्तमान परिदृश्य की विविध विषयों की किताबों की बात करते हैं। इन्हें पढ़ने के बाद एक बात मेरी संपुष्ट होती है कि किताब लेखन और साहित्य का भविष्य बेहद उज्जवल है। आज पहले से कहीं अधिक लोग लिख रहे हैं। परन्तु जो पढ़ रहे हैं—वही आगे निकल रहे हैं। जल्दी जिन्हें आने की होती है वह उतनी ही जल्दी दृश्य से ओझल भी हो जाते हैं। अध्ययन वह भी क्लासिक और अच्छे लेखकों का बहुत ज़रूरी है। एक लंबी संख्या देखता हूँ आजकल के लेखकों (?) की जो भेंट में मिली, अपने ही जैसे नवोदितों की किताबों को ही पढ़कर अपनी साहित्य पढ़ने की मजबूरी पूरी कर लेते हैं। उनसे केदारनाथ अग्रवाल और सिंह, प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी वर्मा में साम्य पूछो तो दशा दयनीय लगती है। यदि परसाई, रविंदर नाथ त्यागी, श्रीलाल शुकुल, अश्क और नई कहानी के तीन सूरमा पूछें या कहें पढ़ लो तो बग़लें झाँकने लगते हैं। लेकिन इन्हीं सब के मध्य बहुत सारे परिश्रमी और गंभीर लेखक हैं जो अपनी ज़मीन मज़बूती से पकड़े देश-विदेश में जगह बना रहे हैं। उन्हीं में से कुछ ज़रूरी किताबों की विवेचना करते हुए यह महसूस करता हूँ कि कथ्य विविधता और कहने की शैली के साथ साथ कुछ भाषागत प्रयोग भी इनमें हैं।
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शहर की पगडंडियाँ, एक शहर की साहित्यिक, सांस्कृतिक पड़ताल, (हरिशंकर शर्मा)
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नेपथ्य के नायक, आत्मकथात्मक उपन्यास, (शिव कुमार शिव)
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सौराष्ट्र में सोमनाथ, यात्रा वृत्तांत (विमला भंडारी)
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कहानी की ज़मीन, साहित्य-समर्था पुरस्कृत कहानियाँ, (संपादक नीलिमा टिक्कू)
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रिश्तों की वसीयत, कथा संग्रह, (मेघना शर्मा)
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छिन्नमूल, उपन्यास, जो सूरीनाम और अन्य देशों में गए गिरमिटिया भारतीय मज़दूरों की व्यथा और कष्टों से हमें परिचित करवाता है, (पुष्पिता अवस्थी, नीदरलैंड्स)
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कैथरीन और नागा साधुओं की दुनिया—नागा साधुओं और उनके माध्यम से समाज और व्यक्ति की विसंगतियों को उजागर करता उपन्यास (संतोष श्रीवास्तव)
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भारतीय आत्मकथाएँ, संघर्ष और चुनौतियाँ—आलोचना (इंदु वीरेंद्र) और जे. नंदकुमार की राष्ट्रीय स्वत्व के लिए संघर्ष अपनी रोचकता, तथ्यपरकता के साथ हमारी वैचारिकी को समृद्ध करती हैं।
यह सभी पुस्तकें पिछले ही दिनों मैंने पढ़ीं। विषय विविधता और भाषा की मज़बूती के साथ यह किताबें निसंदेह आपको हिंदी साहित्य की वर्तमान दुनिया से परिचित करवाएँगी। जो समृद्ध ही नहीं बल्कि नए पाठकों और हिंदी से प्यार करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि का प्रतीक है।
‘नेपथ्य के नायक’ शिवकुमार शिव का आत्मकथात्मक उपन्यास है। मंडावा, चूरू, राजस्थान के मूल निवासी और वर्तमान में भागलपुर निवासी शिवकुमार शिव अपने बचपन से लेकर किस तरह वह एक सफल उद्यमी बने, इसका उल्लेख बेहद रोचक ढंग से इस उपन्यास में करते हैं। उपन्यास की ख़ास बात यह है कि किस तरह से अभावों के मध्य रहते हुए भी नायक कुमार किशोरावस्था से छोटे-छोटे कार्य करके अपने घर परिवार को पालता है, संबल देता है। वह अपने रिश्ते के जीजा जी के साथ मुंबई आता है और वहाँ हम्माल गिरी से लेकर रेड लाइट एरिया तक में कार्य करता है। एक बड़ा ही रोचक प्रसंग है किस तरह हिंदी साहित्य जगत के दिग्गज मुंबई के उपनगरों में काव्य गोष्ठियों में आते हैं। इसमें गोपाल दास नीरज से लेकर बच्चन, महादेवी वर्मा, प्रदीप आदि के मध्य में कुमार जाना शुरू करते हैं। फिर कैसे लिखने और पढ़ने के संस्कार विकसित होते हैं। आत्मकथा लेखन की जो बेबाकी और सत्य का सामना करने की शैली है वह इसमें दिखाई गई है। फिर चाहे वह कुमार का रेड लाइट क्षेत्र में रहना, जाना हो या किसी रिश्ते की निस्संतान मामी द्वारा नज़दीकियाँ बढ़ाने का क़ुबूलनामा हो वह इसे बिना हिचक लिखते हैं।
समर्थ कथाकार, कवि और संपादक शिवकुमार शिव हमारे बीच से असमय ही चले गए। हिंदी साहित्य जगत की लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका क़िस्सा के संस्थापक रहे। उन्होंने पाँच उपन्यास और इस आत्मकथा के माध्यम से हिंदी साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई । यह विडंबना ही है कि हम उन्हें अब जान पाते हैं कि वह कमलेश्वर, धर्मवीर भारती और राजेंद्र यादव के संपादन में क्रमशः सारिका धर्मयुग, हंस आदि में नियमित छपते थे। यह बताता है कि जो भी लेखक गुटबाज़ी से अलग रहकर अपने लेखन कर्म पर समर्पित रहता है उसे हिंदी जगत अपने आप नहीं पहचानता है हालाँकि उनका विपुल लेखन बेहद उल्लेखनीय और शोध के लिए बहुत उपयोगी है। जहाँ हिंदी जगत में शोध के नए विषयों का अभाव है वहाँ शिवकुमार शिव के उपन्यास, उनकी रचनावली को लेकर शोध कार्य रोचक और नए ढंग से हो सकता है। वर्तमान में क़िस्सा पत्रिका उनकी पुत्री अनामिका शिव सफलतापूर्वक निकाल रही हैं। यह आत्मकथा पढ़ी जानी चाहिए ईमानदारी, कर्मठता और अपनी रोचक शैली के लिए।
‘शहर की पगडंडियाँ’ इसमें एक ऐसा शहर है जो पुराना है और आधुनिक होने की तैयारी में हैं वहाँ के रीति-रिवाज, सांस्कृतिक माहौल, पुस्तकें, चर्चा के साथ-साथ किसका झुमका कहाँ गिरा सबकी पड़ताल है। लोकप्रिय कहावत उल्टे बाँस बरेली को, भी समझाया है। इस कृति में एक शहर की जितनी भी संभावनाएँ हो सकती हैं उन सभी पर हरिशंकर शर्मा अपने संपादन में बख़ूबी प्रकाश डालते हैं।
किसी शहर को जानने का अर्थ उस देश-काल और समय को जीना होता है जो हमारे सामने से निकल चुका होता है। बड़ी हसरतों से हम इंतज़ार करते रहते हैं उन गलियों, कूचों में जाने का लेकिन यह अवसर बहुत कम मिलता है। इस पुस्तक में बरेली की पुरानी गलियों, लोकगीतों, साहित्यिक परिदृश्य के साथ-साथ प्रकृति पर्यावरण और वहाँ के प्रमुख स्थलों के बारे में बताया गया है। क्या आप जानते हैं उर्दू की प्रसिद्ध अफ़सानानिगार इस्मत चुगदाई बरेली के गर्ल्स इंटर कॉलेज की प्राचार्य रही थीं? पंडित राधेश्याम शर्मा कथावाचक के लिए आज भी पूरे देश में जाना जाता है जिन्होंने राम कथा को समकालीनता और श्रमिक, महिलाओं से जोड़कर उसे नई ऊँचाई और आयाम दिए। वसीम बरेलवी, आलोचक वीरेंद्र डंगवाल से लेकर लघु कथाकार सुकेश साहनी, आलोचक, नलिन लोचन शर्मा, सुरेश बाबू मिश्रा, प्रियंका जोनस चोपड़ा तक का ज़िक्र है। उल्टे बाँस बरेली को कहावत कैसे सटीक है इस पर भी प्रकाश डाला है। एक ज़रूरी पढ़ने योग्य पुस्तक।
अब एक अलग तरह की दुनिया में पाठकों को लिए चलते हैं वह यह गुजरात के प्रमुख धार्मिक स्थलों की साहित्यिक और पारिवारिक यात्रा। जो करा रहीं हैं चर्चित लेखिका विमला भंडारी ‘सौराष्ट्र में सोमनाथ’। एक रोचक यात्रा वृत्तांत है। जिसमें कहीं तीर्थ यात्रा के पड़ाव, रंग हैं तो साथ में परिवार की अलग-अलग पीढ़ियों के लोगों का आपसी सम्बन्ध और देखभाल की भावना को विस्तार दिया है। यह यात्रा वृत्तांत मुझे इस रूप में भी उल्लेखनीय लगता है कि यह भारतीय संस्कृति और संयुक्त परिवार में बच्चों, माता-पिता और दादा-दादी, नाना नानी, बुआ फूफा इन सबके साथ भी एक अच्छी धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा हो सकती है, यह इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है। लगभग सौ पृष्ट के यात्रा वृत्तांत में विमला भंडारी, इसमें एक ओर नई पीढ़ी, बिल्कुल 21वीं सदी में जन्मी और वही उम्र के सत्तरवें दशक पार कर चुकी दादा-दादी नाना नानी की पीढ़ी को साथ लेकर चलती हैं। वहीं दूसरी पीढ़ी उनकी पुत्रियाँ दामाद भी साथ हैं।
यह जानना बेहद रोचक है कि किस तरह तीनों पीढ़ियाँ एक दूसरे की सुनते ही नहीं बल्कि एक दूसरे को स्पेस देते हैं। साथ ही एक दूसरे की देखभाल भी करते हैं, बच्चे व्हीलचेयर लाकर के हर जगह ख़्याल रखते हैं । बुज़ुर्ग भी यह ज़िद नहीं करते कि हम सुबह नदी स्नान करने जा रहे हैं तुम भी चलो। बच्चों का मन होटल के स्विमिंग पूल में अठखेलियाँ करने का होता है तो बड़े उनको मना नहीं करते। इसके अलावा सौराष्ट्र से लेकर सोमनाथ तक की यात्रा की हर छोटी बड़ी जानकारी इसमें दी गई है। फिर चाहे वह द्वारकाधीश दर्शन की लंबी लाइन हो, अंबा जी के दर्शन की साढ़े पाँच हज़ार सीढ़ियों की चढ़ाई से बचने के लिए सात सौ रुपए प्रति व्यक्ति की रोपवे सुविधा हो। बेट द्वारका, यह भेंट का ही अपभ्रंश है, फिर सोमनाथ मंदिर की विस्तृत जानकारी और विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा अनगिनत बार भर-भर के सोना लूटे जाने का वर्णन पुस्तक को ऊँचाइयाँ प्रदान करता है। गिर फॉरेस्ट यात्रा फिर ठेठ पारंपरिक चूल्हे पर भोजन का आनंद, ऐसा लगता है हम स्वयं वहाँ हैं।
यात्रा-वृत्तांत में स्थलों का पूरी ऐतिहासिकता के साथ वर्णन है। कमी यह है कि और अधिक क्यों नहीं लिखा?
नागा साधु के भी कई प्रकार होते हैं। इनकी दीक्षा, इनके साधु बनने की प्रक्रिया, गहन साधना और एक नहीं अनेक चौंकाने वाली सकारात्मक घटनाओं से यह यात्रा प्रारंभ होती है। ‘कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया’ (संतोष श्रीवास्तव) रोमांचक उपन्यास से अधिक भारतीय संस्कृति और अध्यात्म के अनछुए हिस्सों को जानने की यात्रा है जिसे अँग्रेज़ों के जमाने में किसी अँग्रेज़ ने कभी लिखा होगा। परन्तु साठोत्तरी हिंदी जगत में इस विषय पर बहुत कम लिखा गया। वास्तव में नागा साधुओं की दुनिया में हम सबका प्रवेश है। कुछ बानगी देखें, “1260 ईसवी में श्री महानिर्वाण अखाड़े के महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में बाइस हज़ार नागा साधुओं ने कनखल के मंदिर को आक्रमणकारियों के क़ब्ज़े से छुड़ाया था। अहमद शाह अब्दाली ने मथुरा, वृंदावन और गोकुल पर आक्रमण किया तब नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुक़ाबला कर गोकुल की रक्षा की। जब-जब राष्ट्र पर संकट आया नागा साधुओं ने युद्ध में अपनी वीरता दिखाई, विजय दिलाई और अपार भूमि, राज्य समर्पित किया और वापस अपने अखाड़े में लौट गए। यह भी वास्तविकता है कि क्रूर, दुष्ट आक्रमणकारियों के सामने विजय महत्त्व रखती है परन्तु कितने नागा साधुओं का इन युद्ध में बलिदान हुआ होगा? आँखें भर आती हैं कि आज हम उन नागा साधुओं का नाम भी नहीं जानते। ना ही उनके अखाड़े के गुरुओं ने कभी उनके नाम, श्रेय को लेकर डिमांड या कुछ अन्य सुविधाएँ माँगी। नहीं कभी नहीं। यह लोग वही हैं जो वास्तव में इस संसार के राग–विराग, मोह–द्वेष सबसे मुक्त हो अपनी साधना की दुनिया में रहते हैं। लेकिन राष्ट्रीयहित, जन्मभूमि की रक्षा सर्वोपरि। ऐसा संपूर्ण विश्व में कोई दूसरा उदाहरण, समुदाय नहीं मिलता जो निर्विकार, निर्विचार और सभी बंधनों से मुक्त होकर मौन साधना करते हैं और राष्ट्रहित, संकट के समय बिना स्वार्थ, बिना कुछ माँगे मैदान में खड़े होते हैं। मैं गौरवान्वित और रोमांचित हूँ जब देखता हूँ क्रूर अरब, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान के क़बीलों के अत्याचारियों को हमारे कई राजाओं महाराजाओं ने भी युद्ध किए अपने ट्रेंड सैनिकों के साथ। वहीं विरोचित और ईश्वरीय कृपा से नागा साधुओं ने इन्हें परास्त किया। वह भी अपने सामान्य त्रिशूल, तलवार और धातु के बने अस्त्र-शस्त्रों से। नमन है नागाओं की साधना और स्तुति को।” इनके जूना, महानिर्वाणी, अटल, निरंजन, अग्नि, आनंद, और आहवान आदि अखाड़े होते हैं। आदि शंकराचार्य ने जब भारत वर्ष की चारों दिशाओं में चार मठ बनाए तो उन्हीं में से एक में जूना अखाड़े की भी स्थापना की।”
उपन्यास गहन शोध और जानकारी का प्रमाणीकरण करता है जब लेखिका गिरि नागा, बर्फानी नागा, ख़ूनी नागा, खिचड़िया नागा में अंतर बताती हैं। वहीं ब्रह्मचर्य का गूढ़ार्थ केवल यौन इच्छा त्याग ही नहीं बल्कि मौन, जिह्वा संयम, श्रवण, चक्षु, मन आदि सभी का शमन करना है। नौ ग्रहों के लिए कौन कौन सी लकड़ी किन पौधों की होती है, किस तरह नागा साधुओं की पूरी दुनिया होती है इसका बेहद कुशलता और तथ्यों से वर्णन किया है।
दो नहीं मैं तीन कहूँगा प्रेम कहानी भी चलती हैं। एक युवक मंगल सिंह और दीपा की, जो प्यार और खगोल वैज्ञानिक बनने के सपने दोनों से वंचित हुआ। फिर आगे कठिन साधना और तप करके नागा साधु नरोत्तम गिरी बना। यह बात बताती है कबीर की बात कि प्रेम डगर बड़ी कठिन है, नागा साधु बनने की जानलेवा प्रक्रिया से भी कठिन।
दूसरी कैथरीन के मोह और आकर्षण की। तीसरी शब्दों और घटनाओं के तारतम्य से उपजी कहानी के प्रति प्रेम की।
उपन्यास की अधिक चर्चा अब देश विदेश में होगी क्योंकि इस धरातल पर लिखा यह एक यादगार उपन्यास है। कथा सत्तीसर (चंद्रकांता), गुड़िया भीतर गुड़िया (मैत्रीय पुष्पा), रेणु की डायरी, (सूर्यबाला), पोस्ट बॉक्स तीन सौ चार, नाला सोपारा, (चित्रा मुद्गल) ने जो किया है वह यह उपन्यास संतोष श्रीवास्तव के लिए करेगा। ब्यौरों को कहानी में पिरोना और पात्रों का संतुलन थोड़ा कम है पर यह कथा प्रवाह में व्यवधान नहीं डालता।
अब किताब वैश्विक हिंदी जगत की बेहतरीन लेखिका और सहज सरल इंसान की पचासवीं कृति की। ‘कंत्राकी बागान और अन्य कहानियाँ’, (पुष्पिता अवस्थी, नीदरलैंड्स, अंतिका प्रकाशन)। वरिष्ठ साहित्यकार और काशी विद्यापीठ में दो दशक तक प्रोफ़ेसर और वर्तमान में आचार्यकुल, विनोबा भावे द्वारा स्थापित, की अध्यक्ष और वैश्विक हिंदी संगठन की अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष का यह बहुचर्चित कथा संग्रह है।
ऐसे बहुत कम लेखक हुए हैं जिन्होंने एक अछूते और बेहद महत्त्वपूर्ण विषय पर वर्षों शोध और यात्राओं के बाद लिखा है। यह कथा संग्रह से अधिक उन भारतवंशियों की आपबीती और दर्द भरी पुकार है जो अँग्रेज़ों की कुटिलताओं का शिकार हुए।
कहानियों में यह बात उभरकर आती है कि अठारह सौ सत्तावन, पहली स्वतंत्रता की लड़ाई के बाद अँग्रेज़ों ने उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल से हज़ारों-हज़ार युवकों, साठ वर्ष तक के पुरुषों और चौदह से पचास वर्ष तक की स्त्रियों को बड़े-बड़े पानी के जहाज़ों में बाहर भेज दिया। झाँसा दिया कि विदेश में नौकरी, किसानी से अच्छी आमदनी होगी और अपनी मेहनत की कमाई यहाँ भेजकर अपने गाँवों, क़स्बे और परिवार में ख़ुशहाली ले आओगे। इस तरह चालाक अँग्रेज़ों ने पूरे भारत की विद्रोह करने वाली बड़ी भारी ताक़त और हिम्मत भरे लोगों को बाहर भेज अपना राज और सुरक्षित कर लिया। जो एजेंटों से नहीं माने उन्हें डरा धमकाकर भेजा।
उन्हीं दिनों हिन्दुस्तान में बड़ा अकाल और क्रांति के बाद सन्नाटा था। सीधे-सादे हिंदुस्तानी बातों में आकर चालीस से साठ दिनों की समुद्री यात्रा पर भेज दिए गए। एक जगह पुष्पिता अवस्थी, तथ्यों के साथ लिखती हैं, “पानी ही पानी चारों ओर, हफ़्तों तक धरती के दर्शन नहीं। कइयों को सी सिकनेस, डीसेंट्री आदि बीमारी हुईं। इलाज की कोई व्यवस्था नहीं। जो मर गए, हिंदू थे अधिकतर उन्हें वहीं समुद्र में फेंक दिया गया। इतना अमानवीय, क्रूर व्यवहार का दर्द शब्दों को पढ़ने के बाद आँखों से छलक उठेगा कि पुत्र के सामने पिता, पति के सामने पत्नी, भाई के सामने बड़ा भाई लाचार, बीमारी से तड़प रहा है, बिना इलाज के। लिखते हुए शब्द काँपते हैं कि अधमरी हालत में कइयों को ज़िन्दा ही पानी में फेंक दिया गया।
और आज हम उनकी ग़ुलामी की भाषा अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं? यह संग्रह इसलिए बहुमूल्य है कि अठारह सौ सत्तावन के बाद के उस दौर की वास्तविक कुछ घटनाओं और उनकी वर्तमान पीढ़ी से मिलकर इन कहानियों को लिखा गया है। सूरीनाम, फिजी, गुयाना, हॉलैंड, मॉरीशस आदि अँग्रेज़ों के उपनिवेशों में इन भारतीयों को उतारा गया। वहाँ यह आठ आने और रुखी-सूखी रोटी और अँग्रेज़ मालिक की चाबुक खाकर रात-दिन काम करते। एक उद्धरण देखें, “गन्ना खेती के सोलह-सोलह सौ एकड़ के खेत को अपने ख़ून पसीने से दूसरों के लिए सींचते, गन्ने की पिराई में चीनी, जिसे व्हाइट गोल्ड कहते अँग्रेज़, अपने ख़ून हड्डियों से पिरते हमारे पुरखे, भारतवंशी।” ऐसी अनगिनत घटनाओं और तथ्यों को वर्तमान परिवेश से जोड़ते हुए यह सच्ची कथाएँ हिन्दी साहित्य जगत के सामने रखी हैं। मारियंब्रूख कांड, केती कोती, आदि कई शब्दों की जानकारी हमारी बौद्धिकता को समृद्ध करती है। साहित्य, भाषा और संवेदनाओं का उपयोग किस ओर और किस तरह राष्ट्रवाद के प्रति होता है यह बात इस तीन सौ पृष्ट के संग्रह को पढ़ते हुए महसूस की जा सकती हैं। कथा संग्रह बताता है कि तीनों प्रमुख महाद्वीपों में फैली यह भारत वंशियों की ही कहानियाँ नहीं यह बल्कि पूरी मानवता, विचारों और ग़लत के ख़िलाफ़ सही के साथ खड़े होने की एक सार्थक मुहिम है।
एक बड़ी, ज़मीन से जुड़ी और सशक्त लेखिका पुष्पिता अवस्थी हैं।
उम्मीद है भारत सरकार, राज्य साहित्य अकादमियों, व्यास, इफको, सरस्वती सम्मान की समितियाँ जल्द इनकी पुस्तकों को भी चुनेंगी। एक धरोहर के रूप में रखने योग्य कृति।
कहानी की ज़मीन, (संपादक नीलिमा टिक्कू) साहित्य समर्था और स्पंदन संस्था जयपुर द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर पुरस्कृत कहानियों का संकलन है। हर वर्ष अपनी सासु माँ की स्मृति में समृद्ध लेखिका नीलिमा टिक्कू, यह आयोजन करती हैं। क़रीब पाँच सौ कहानियों में से चुनी हुई पचास कहानियों का यह दो भागों में संकलन बेहद अच्छे ढंग से मोनिका प्रकाशन ने प्रस्तुत किया है। निष्पक्ष ढंग से पुरस्कारों का निर्णय बिना नाम पते की कहानी की प्रति चार निर्णायकों के पास भेजकर होता है। इस तरह समकालीन कहानी की दशा, दिशा और नए कहानीकारों की संभावनाओं को समझने में यह संग्रह महत्त्वपूर्ण है। महिलाओं के प्रति झुकाव अधिक है संकलन में। हालाँकि मेरा यह मानना है कि आप स्पेशल पहचान देकर पहले ही महिला को वॉकओवर दे देते हैं जो बिल्कुल भी उनके लिए अच्छा नहीं है, बल्कि उन्हें कमज़ोर करता है।
बहरहाल छप्पन कहानियों में से ग्यारह पुरुष लेखक जगह बनाने में सफल हुए क़रीब बीस प्रतिशत। कथाओं के विषय नए नहीं है परन्तु उनका ट्रीटमेंट, शिल्प और विन्यास ज़रूर कुछ ने रोचक बनाकर रखा है। मीनू खरे, इंदु गुप्ता, भारती पंडित, नीलिमा शर्मा, मोनिका शर्मा की रचनाएँ संभावनाएँ जगाती हैं। इनमें विषय के साथ नई सोच और संतुलित नज़रिया दिखता है। बाक़ी रचनाएँ भी ठीक-ठाक हैं। नारी ही नारी की रक्षा करेगी, परिवार की समस्याएँ या जो हम रोज़ देखते हैं उसी पर लिखी हैं। कह सकते हैं अभी इम्तिहान और भी हैं। पुरुष लेखकों में एक दो को छोड़कर सभी की कहानियाँ निराश करती हैं। फ़ार्मूले लेखन को ही कहानी मानने वाले ज़्यादा नहीं चल सकते। इसीलिए शायद कम चुने गए। प्रख्यात आलोचक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि कहानी विधा को साधना सबसे मुश्किल कार्य है। कहानी घटनाओं का विवरण मात्र न हो बल्कि उसमें गल्प, कल्पना और यथार्थ का समुचित प्रयोग हो।
नीलिमा टिक्कू का यह प्रयास सफल और सार्थक इस अर्थ में भी है कि आज हिंदी जगत में कथा साहित्य को लेकर इतनी गंभीर और निष्पक्ष प्रयास बहुत कम हो रहे, जिससे कथा साहित्य लेखन को प्रोत्साहन मिलता है।
अन्य संस्थाएँ भी ऐसे प्रयास करें यह अपेक्षा है।
‘राष्ट्रीय स्वत्व के लिए संघर्ष’ जे. नंदकुमार द्वारा लिखित एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। यह बताती है भारतवर्ष में कब और कैसे हमारी अस्मिता, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान को दबाया गया। न जाने कितनी बार विदेशी आक्रमण हम पर किया गया। हमारे देश की अस्मिता को तार-तार करके एक-एक सोने, चाँदी हीरे, जवाहरात से लेकर खनिज संपदा रेशम तक को लूट कर ले जाया गया, इन सब का वर्णन तथ्यों और संदर्भों के साथ नंदकुमार जी ने लिखा है। आप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से दशकों से जुड़े हैं और वैचारिकी को जन-जन तक पहुँचाने में पुस्तकों का लेखन निरंतर कर रहे। इस पुस्तक में कुछ रोचक अध्याय यह भी बताते हैं की जगदीश चंद्र बोस किस तरह से क्रांतिकारी और बेहद प्रतिभाशाली वैज्ञानिक थे। उनके साथ भी अँग्रेज़ों ने पक्षपात किया परन्तु अपनी प्रखर मेधा और योग्यता से बोस ने कभी भी समझौता नहीं किया। अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। उन्हें आगे जाकर भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। अन्य नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों का भी उल्लेख है। समकालीन परिदृश्य पर सकारात्मक सोच और भारतीय संस्कृति पर्व हमें गर्व करने के कारणों को तथ्यों सहित हमारे सामने रखती है। हर बौद्धिक व्यक्तित्व, ख़ासकर शिक्षित वर्ग को जे नंदकुमार की यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए। गहन विश्लेषण से किताब जो सच हमारे सामने रखती है, वह करोड़ों भारतीयों को गौरव और राष्ट्र स्वाभिमान से भर देता है।
सभी ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म पर किताब अंग्रेज़ी और हिंदी में उपलब्ध है।
‘रिश्तों की वसीयत’, डॉ. मेघना शर्मा का पहला कथा संग्रह है। मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया। परन्तु पढ़ते हुए कहानियों के विविध विषय और नए ट्रीटमेंट ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। पैसेंजर ट्रेन की शुचि ज़िन्दगी के हालातों से हार नहीं मानती। उसके दिल में किसी के लिए भी बदले की भावना नहीं है। एक नए धरातल पर रची कहानी है रघु चूड़ी वाला। नाबालिग़ बच्चों से भीख और मज़दूरी करने वालों की पड़ताल यह कहानी करती है। यहाँ भी पात्र हिम्मत नहीं हारते। ‘और कठपुतली चल पड़ी’ चुनौती पूर्ण कथानक पर लिखी है। कठपुतली विधा एक ऐसी लोक कला है जो हमारी संस्कृति की शौर्य, आज़ादी के सपूतों, क्रांतिकारियों की गाथा और उसके प्रभाव को बालमन पर अद्भुत ढंग से अंकित करती है। इसे बढ़ावा मिले तो हर बच्चे में हमारी संस्कृति और राष्ट्र के प्रति गौरव का भाव जमेगा। इस कला को संवर्धन और प्रोत्साहन मिलना ज़रूरी है। इसके अभाव में यह कलाकार और प्रतिभा लुप्त होती जा रही है। इस पर जादुई यथार्थवाद जगाती कहानी लिखना मेघना की प्रतिभा को दर्शाता है। मुसलमानों में किस तरह अच्छे जीवनयापन की प्रत्याशा में निकाह कर दिया जाता है। सच्चाई सामने आती है कि नौकरानी बनाकर रखा है। फिर भी नायिका शौहर के परिवार की सेवा करती है। यहाँ कहानी कमज़ोर होती है। आख़िर में नायिका का विद्रोह करना थोड़ा खटकता है। ‘मालती मछुआरन’, अपाहिज पति के साथ रहती है, स्वाभिमानी है। मछली बेचकर परिवार चलाती है। ठेकेदार उस पर बुरी निगाह रखता है। वह उससे जूझती, हार नहीं मानती है। ऐसे ही अन्य कहानियाँ हैं जिसमें किशोर होते बच्चे अपने कंधों पर ज़िम्मेदारियाँ का बोझ उठाते हैं। विषयों के साथ-साथ लेखक भी कहीं ना कहीं अपने पात्रों में झलकता है। स्त्री पुरुष का समन्वय और एक अपनापन लगाव हमारे आसपास, जीवन में होता है। पर उससे कहानी नहीं बनती। कहानी कंट्रास्ट या मोहभंग, ज़ख़्मों से जन्म लेती है, वही कहानी की सार्थकता है। कुछ जगह भाषा, शिल्प और बेहतर हो सकता था। साथ ही शब्द चयन और बेहतर हो सकता था। पहले संग्रह में इतनी तो छूट मिलनी ही चाहिए आगे के लिए। एक पठनीय पुस्तक।
दो हज़ार चौबीस में आई इस पुस्तक की चर्चा किए बिना यह यात्रा पूरी नहीं होगी।
आत्मकथाओं के माध्यम से एक पूरा संसार खुलता है हमारे भीतर। जीवन की चुनौतियों, संघर्ष और उनसे जूझते हुए जब हम दूसरों को देखते हैं तो निसंदेह हमें प्रेरणा और साहस मिलता है। दरअसल आत्मकथाएँ होती तो घट चुकी ज़िन्दगी की होती हैं परन्तु पाठकों के लिए आगे का रास्ता भी दिखाती हैं। कौन-कौन चर्चित आत्मकथाएँ हैं, उनके क्या संदर्भ और विषय हैं? कौन सी हम पढ़ें और उनमें क्या-क्या है? यह सब एक जगह मिलना बहुत मुश्किल होता है। ‘भारतीय आत्मकथाएँ: संघर्ष और चुनौतियाँ’, (प्रोफेसर इंदु वीरेंद्र) में पचास से अधिक हिंदी, बँगला, मराठी, तमिल, उर्दू आदि की आत्मकथाओं का बेहतरीन विश्लेषण और सार दिया गया है। लेखिका के परिश्रम से किए विश्लेषण की कुछ बेहद सटीक और प्रशंसनीय हैं। “आत्मकथा जितनी सत्य के क़रीब होगी उतनी प्रशंसनीय होगी।” नामवरसिंह जी के उक्त कथन से सहमत होते हुए इंदु वीरेंद्र और आगे जाती हैं। “आत्मकथा में अक्सर कुछ लोग आत्मप्रशंसा, दूसरे व्यक्तित्व के बारे में अधिक लिखना, (बूंद बावड़ी, पद्मा सचदेव, लता मंगेशकर के बारे में), कुछ किसी की प्रेरणा से चाँद सूरज के वीरेन, देवेंद्र सत्यार्थी, कुछ दर्द से मुक्ति पाने के लिए मेरी कहानी, कमला दास तो कुछ अपने साथ हुए अन्याय और चालबाज़ लोगों पर लिखते हैं लगता नहीं है दिल मेरा, कृष्णा अग्निहोत्री, आपहुदरी, रमणिका गुप्ता, मल्लिका अमरशेख, तस्लीमा नसरीन आदि।”
किताब में आत्मकथा लेखन की सारी गहराइयाँ और कलात्मक तत्वों को बेहद रोचक ढंग से बताया है। अधिकतर महिला आत्मकथाएँ अपने हालात, छटपटाहट, शोषण और पुरुषवादी मानसिकता पर हैं। वहीं पुरुषों की आत्मकथाएँ गाँधी, राजेंद्र प्रसाद, बच्चन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, श्यौराज सिंह बेचैन आदि में समकालीनता और ईमानदारी से अपने हालात का ज़िक्र हुआ है।
एक ऐसी ज़रूरी किताब जो आपको सारी प्रमुख आत्मकथाओं की जानकारी वास्तविकता और विश्लेषण के साथ उपलब्ध कराती है।
विश्लेषण और मूल्यांकन
इस आलेख में साहित्य की मुख्यधारा में शामिल कई साहित्यकार हैं तो वहीं कुछ पगडंडी से मुख्य सड़क पर आते जा रहे हैं। इन्हें एक साथ पढ़ना, विचार करने पर अपने आप कुछ प्रकाशित होता है। पहला यह कि महिला लेखन गति पकड़ चुका है। वह भी बिना किसी मठ और मठाधीशों के। दूसरे वह प्रयोग करने और हिंदी जगत के उन कोनों में जाने से नहीं हिचकती जहाँ अमूमन पुरुष लेखक, वह भी उँगलियों पर लिखने वाले, जा पाए हैं। भारतीय लेखिकाएँ गिरमिटिया मज़दूरों पर सतही कहानी नहीं बल्कि पूरे तथ्यों और उन देशों की यात्रा करके उनके वर्तमान वंशजों से मिलती हैं। पूरी ऐतिहासिक यात्रा के साथ-साथ वह वास्तविक कारणों और तथ्यों को हमारे सामने रखती है। जिन्हें आज कोई याद नहीं रखता ऐसे स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम भरतवंशियों को पुष्पिता अवस्थी सामने लाती हैं। जहाँ एक और स्त्रियाँ इनसे भय खाती हैं, देखना तो दूर। ऐसे में एक स्त्री इन नागा साधुओं की दुनिया में गहराई तक जाती हैं और बाक़ायदा उनके बीच महीनों रहकर शोध के साथ यह उपन्यास नहीं बल्कि हमारी संस्कृति के अनछुए पहलू को सामने रखती हैं। एक और स्त्री पचास से अधिक आत्मकथाओं को खोज-खोज कर पढ़ती ही नहीं विश्लेषित भी करती है। इंदु वीरेंद्र इन महत्त्वपूर्ण आत्मकथाओं का समग्र हमें देती ही नहीं उसे आलोचित भी करती हैं।
उम्र कुछ मायने नहीं रखती और यात्राएँ हमें समृद्ध करती हैं। यह आठ दिनों की यात्रा विख्यात लेखिका विमला भंडारी ऐसे करती हैं कि हम मंदिरों से लेकर अंबाजी पीठ, नेशनल पार्क, लोक जीवन और साथ में आधुनिक खानपान, रोपवे, लहलहाता समुद्र और श्री कृष्ण सुदामा की ज़िन्दगी तक में हो आते हैं सपरिवार। ऐसी यात्रा और फिर इतना रोचक सचित्र वर्णन उन्हें भारत की अग्रिम पंक्ति की लेखिका में शामिल करता है। युवा मेघना अपने प्रथम कथा संग्रह में घर परिवार और प्यार की बात की जगह खुरदरी और ठोस ज़मीन चुनती हैं। जिसमें लुप्त होती कठपुतली कला और कलाकार, बाल मज़दूर हैं तो वहीं बेहद सामान्य स्त्रियों द्वारा अन्याय का बिना बाह्य मदद के विरोध है।
हिंदी जगत में एक दशक से कथा विधा को लेकर हर वर्ष बेहतरीन कथा प्रतियोगिता प्रतियोगिता के माध्यम से समकालीन कथा जगत को समृद्ध करती हैं कथाकार, संपादक नीलिमा टिक्कू। कहानी की ज़मीन में पुरस्कृत कहानियों का संकलन करके हिंदी की, राष्ट्र की सेवा में योगदान दे रहीं।
विश्लेषण ख़ुद ब ख़ुद हो रहा की स्त्रियाँ उन कोनों, विषयों और खुरदरी सतहों पर जा रहीं हैं जिन पर चलना बेहद मुश्किल है। बिना मठ और मठाधीशों के अपनी धुन में मगन हिंदी जगत की यह स्त्रियाँ चल रही हैं। भाषा विन्यास, कहन की ख़ास शैली और बिना डर के अपनी बात कहने का साहस साहित्य जगत की जड़ता को तोड़ता है। साहित्य में पुरुष और स्त्री का भेद नहीं होता साहित्य साहित्य ही होता है। परन्तु पुरुषों के लेखन पर अलग से निगाह डालें तो बात काफ़ी कुछ स्पष्ट हो ही जाती है। शहर की पगडंडियाँ बरेली शहर की ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक हलचल के लेखों का संकलन है। शिवकुमार शिव अपने आत्मकथा कम उपन्यास नेपथ्य के नायक में अपनी सच सच कहने के कारण उसे उल्लखेनीय बनाते हैं। जे. नंदकुमार उल्लेखनीय ढंग से हमारी प्राचीन राष्ट्रीय संस्कृति और मूल्यों को समकालीन समय में रखते हैं।
कह सकते हैं कि नारी कठिन पर नई, रेतीली, ग्लैमरविहीन कथा जगत की उस दुनिया में आवाजाही कर रही है जहाँ उँगलियों पर गिनने लायक़ लेखक अब तक गए। वहीं दूसरी तरफ़ कुछ को अपने कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर आना है। यह नहीं कि बैठे बैठे अथवा कल्पना से कुछ भी गल्प रच दिया?
यह हिंदी साहित्य जगत की नई दुनिया है जो पूरी तरह पिछली दुनिया से अलग है। उम्मीद क़ायम है।