हॉकर

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

अभी भोर होने में समय था परन्तु वह तेज़ी से साईकल पर पैडल मार रहा था। पीछे बंडल बँधे थे अख़बार के। आज रात्रि दो बजे की जगह ढाई बजे गए थे उठने में। शाम को पड़ोस में मुन्ना बैंडवाले की बेटी की शादी थी। कोरोना काल की पाबंदियों के बाद भी कुछ हँसी-ख़ुशी के पल सबके साथ बिताने से माहौल बदल जाता है। याद है मुन्ना की बैंण्ड-मंडली के सभी सदस्य आए थे। चुन्नीलाल उर्फ़ चुनिया, रहमत मियाँ तो अपनी बीस साल पुरानी बैंड वाली पोशाक में ही थे। भले ही वह बेरंग और बेढब थी परन्तु जम रही थी। क्या हुआ जो बैंड-बाजे के समूह से छुट्टी साँस फूलने से लेनी पड़ी थी। पुराने मास्टर की बेटी की शादी थी, आना ही था और बजाना भी था। वो बड़ा वाला बाजा, गले में पहनकर क्या ख़ूब बजाते थे। वैसी ही ठसक से आज भी बजाया था। रहमत मियाँ ने उस दौर की तरह अपनी शहनाई जब बजाई तो सभी की रूह तक वह आवाज़ उतरती चली गई। शादी सही अर्थों में बिना शहनाई के कहाँ होती है? रंग जमा दिया था मुन्ना के पुराने दोस्तों ने। उसने भी ट्रम्पेट बजाया था। हॉकर से पहले वह भी बैंड का ही हिस्सा था। क्या शानदार वक़्त बीता कल सबके साथ। तभी देर से उठा। वरना रोज़ रात को दो बजे उठकर तीन बजे तक नगर के मुख्य चौराहे पर पहुँच जाता। जहाँ प्रेस की गाड़ी आकर हज़ारों अख़बारों के बंडल डाल जाती। उसे और दो अन्य को बंडलों की छँटाई और अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से जमाने और फिर प्रत्येक की संख्या के हिसाब से बंडल बनाने में डेढ़ घण्टे तो लग ही जाते। ऊपर से हर सप्ताह आने वाले यह फ़ीचर पेज। कभी रंगोली, साहित्य, परिवार, धर्म संस्कृति, वेब तरंग सब धरे रहते फुटपाथ पर। पेड़ के नीचे। पहले वह सोचता था की बारह से चौबीस पेज का अख़बार जब मशीनों से बनकर तैयार ही निकलता है तो फिर यह चार पेज का मुआ परिशिष्ट क्योंं नहीं पैक होकर आता? पता लगा कि परिशिष्ट पहले ही छपकर आता है मुख्य केंद्र से। और देश भर के संस्कारणों में एक समान ही आता है तो यह अलग से डालना पड़ता है। यहाँ जिस दिन परिशिष्ट आना होता है उसके एक दिन पहले ही ख़ास तैयारी और जल्दी आना होता है। फिर हज़ारों अख़बारों में परिशिष्ट को लगाना। जो काम मशीन नहीं कर पाती वह काम यह हाथ चुटकियों में (घण्टे भर में) कर लेते हैं। परन्तु फिर भी आधे पेट ही खाना नसीब होता है। शहर में कम से कम एक दर्जन ऐसे पॉइंट हैं। जो दो बजे से भोर की पहली किरण तक काम करते हैं, उसके बाद सब ख़ाली, सुनसान। दिन में चाय, दुकानों की चहलपहल देख कोई कह भी नहीं सकता कि यह पत्रकारिता और आम आदमी के मध्य की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का केंद्र भी होगा। 

सायकिल के कैरियर पर अख़बार के बंडल धरते हुए सभी सुबह भोर से पहले रवाना हो गए शहर की गलियों, मोहल्लों की राह। कुछ अब तो मोटरसाइकिल ले आएँ पर उसमें भी ग्राहक वही हैं। सब बँधे हुए। 

वह भी घण्टी बजाते अख़बार बाँटते बढ़ते गए। यह पहाड़गंज, गली नंबर1, 4, 5, यह नई बस्ती, यह पुराना रामगंज, शिवमन्दिर के पास वाचनालय में तीन अलग-अलग अख़बार, पत्थर वाली गली में पाँच ग्राहक हैं। और यह आगे वह रेलवे बँगले में दो अख़बार अँग्रेज़ी, हिंदी के। और उसी के आगे की कॉलोनी में कोने वाले मकान में रोज़ जगा हुआ मिलता है वह। “राम राम बाउजी।” वहाँ वह उतरता है और दो मिनट चार घरों में जाकर अख़बार डाल आता है।

“लो चाय पियो।” 

“नहीं जी, क्या ज़रूरत है?”

“अरे ज़रूरत क्योंं नहीं? दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में तुम बिना नागा अख़बार देने घर आते हो। कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं, वही अख़बार की क़ीमत लेते हो। तो कभी तो चाय बनती है।” 

वह लाजवाब हो गया।

“आपका स्वास्थ्य कैसा है? कोई दिक़्क़त तो नहीं?” 

“बस चल रही है गाड़ी . . . दिन में टिफ़िन आता है वही शाम को भी खा लेता हूँ। तकलीफ़ बढ़ रही है। पर चला रहा हूँ,” कहते-कहते बुजुर्गवार खांसने लगे। उसने उठकर उनकी पीठ सहलाई, ध्यान रखने की हिदायत दी।”दवाई ला दोगे मेंरी?” बुज़ुर्गवार हाँफते हुए बोले। “कोई है नहीं। अकेला हूँ। मोहल्ला ऐसा है सब दिन भर हल्ला-गुल्ला करते रहते हैं। बुज़ुर्गों का सम्मान नहीं। दिन भर मेरे गेट के सामने के छोटे से प्लाट पर गेंद बल्ला खेलते बच्चों की जगह चालीस-चालीस साल के बूढ़े। मना करो तो लड़ने आते हैं,” कहते हुए वह तमतमा गए। 

उसने उनके हाथ से पर्ची और पैसे लिए, “आप थाने में कह दो। आप वरिष्ठ नागरिक हैं। स्मार्ट सिटी में आपके लिए विशेष इंतज़ाम हैं। आपकी सुरक्षा सर्वोपरि है।”

“अरे जाना तो पड़ेगा न। और फिर कोई इनको समझाने वाला भी नहीं। बस तंग करना। तो अभी तो बर्दाश्त कर रहा हूँ,” कहकर उन्होंने कप रखा। 

“कल सुबह दवाई दे जाऊँगा, चलेगा न?” 

“आज की तो दवाई है। चलेगा।”

वह अपनी साइकिल पर चल दिया आगे। अभी दस घर और हैं। 

ऐसे ही अकेले रहते लोग मिलते हैं सुबह सवेरे। जिनसे दिन भर में कोई मिलने नहीं आता, कोई बात नहीं करता। तो सुबह का इंतज़ार करते हैं कि दो बातों से दिन भर की शुरूआत अच्छी हो जाती है। फिर दिन भर वही कमरा, बरामदा, धूप छाव, टीवी भी कोई कब तक देखे। कोविड ने सभी गतिविधियाँ बंद कर दी हैं। अब टहलने जाने की भी ताक़त पाँव में नहीं बची। हर मोहल्ले, कालोनी में ऐसे ही लोग हैं। जो बस इतना चाहते हैं कि कोई उनसे दो बातें करे, दुआ सलाम करे। 

पतली सी गली में अख़बार डालता वह पेडल मारता तेज़ी से आगे बढ़ा। दरअसल उसकी बड़ी बेटी के लिए रिश्ते वाले आज देखने आ रहे हैं। तीस के ऊपर हो गई। किसी प्राइवेट कंपनी में जाती है। पगार बारह हज़ार है परन्तु सुबह नौ बजे गई शाम को सात बजे आती है। इतना काम लेते हैं। दूसरी अच्छी है उसे पेट काट-काट के बीएड कराया था तो किसी स्कूल में मास्टरनी है। चार हज़ार मिलते हैं परन्तु दो बजे घर आ जाती है। घर उसी ने सँभाल रखा है सारा माँ के जाने के बाद। तीसरी वाली तो पता नहीं क्या करती है कहाँ जाती है कुछ नहीं मालूम। एक बार तो रात भर घर नहीं आई। दोपहर में आई मँझली ने पूछना चाहा पर चुप लगा गई। मैं देख रहा था बाहर के ही कमरे में एक कोने में बिस्तर है मेरा। उस दिन दोपहर की शिफ़्ट में कूरियर बाँटने नहीं गया था। तबियत ख़राब थी। दो कमरे रसोई में हम पाँच लोग। सच में बच्चो को कुछ अच्छा नहीं कर पाया, कहते हुए गहरी साँस ली। लड़का गैस एजेंसी में दिन भर सिलेंडर की पर्ची काटता है। कर रहा है कोशिश हालात बदलने की। हर शनि, रविवार कॉलेज जाता है। पढ़ रहा है प्राइवेट। कोशिश है उसकी सरकारी नौकरी लग जाए। बड़ी की बात आज जम जाए तो वह बजरंगगढ़ वाले बालाजी पर पूरे इक्यावन रुपए का प्रसाद चढ़ाएगा। उसने मन ही मन दोहराया और साइकल पर पैडल तेज़ किए। 

आह, ओऽऽह दर्द की एक तेज़ लहर पेड़ू से उछली और घुटनों से होती हुई जम गई। उसने दाँत भींचे और आगे बढ़ता रहा। यह दर्द पिछले काफ़ी समय से परेशान कर रहा है। दिखाया था डिस्पेंसरी में। कोई दवाई दी थी। जब तक लो तब तक ही आराम। ज़्यादा दिखाने से डर लगता है कि डॉक्टर कोई गंभीर बीमारी न बता दे। तो जो दो पैसे बड़की के ब्याह के जोड़े हैं वह भी नहीं बचेंगे। अभी मरना नहीं चाहता वह, बहुत काम हैं उसके कंधों पर। साईकल से उतर गया और तेज़-तेज़ चलने लगा। यह साथी हॉकर उस्मान ने बताई थी तरक़ीब। इससे कुछ देर में आराम मिल जाता है। उसे भी हुई थी यह तकलीफ़। गुर्दों की ख़राबी बताई थी। घर में उसने भी नहीं बताया था परन्तु जब तकलीफ़ बढ़ गई तो उसे भर्ती कराया गया। गुर्दा ख़राब हो गया था तो निकालना पड़ा। दूसरा गुर्दा (किडनी) कौन दान करता? अख़बार के संपादक अग्रवाल जी भले आदमी हैं। उनकी जानकारी में किसी ने लाया, तो उन्होंने एक अपील अख़बार में इलाज में सहयोग लिए निकाल दी। कुछ राशि नगर के भले लोगों ने भेजी। तो उससे इलाज तो हुआ पर किडनी कहाँ मिलती? पाँच महीने तक घर रहा साइकल की मनाही हो गई। सबने उसके लिए बात की तो उसे सॉर्टिंग (अख़बार जमाना, इलाक़े के अनुसार) काम दिया। घर में और तंगहाली हो गई। न बाबा, बालाजी महाराज भली करें। 

तभी खटाक की आवाज़ हुई, कुछ नीचे आया पाँव के। गली में अँधेरा था। स्ट्रीट लाइट जलती नहीं थीं। शायद अमला यह सोचता है कि लोग तो घरों में ही हैं तो बाहर लाइट का क्या काम? पता नहीं कि कोविड हो या प्लेग इन जैसे सड़क के सिपाहियों को तो रोज़ मुँह-अँधेरे से पहले निकलना ही पड़ता है। वरना भूख, बेबसी, स्वाभिमान और शर्म के तीर कभी भी छलनी कर देते हैं इनको। अभी सूर्य भगवान नहीं निकले थे। ठंड थी, तो उसने पुराने मफ़लर को और कसके लपेट लिया। नीचे देखा तो बोतल थी जो पहिए के सिरे से टकराकर दूर चली गई थी। कुछ और चलने के बाद सामने ही मुख्य सड़क आ जाती। उसे पार करते ही उस तरफ़ मुख्य कॉलोनी, साहब लोगों की, में दस घर हैं। सबके यहाँ दो-दो अख़बार डालने हैं। फिर छुट्टी, घर जाकर आराम से चाय पीकर सो जाऊँगा। नहीं, आज सोना कहाँ, बाज़ार जाना है कुछ खाने-पीने का सामान लाना है। बेटे को उधार माँगते शर्म आती है तो हलवाई से वह ही लाएगा। सड़क नज़दीक आ रही थी। तभी एक लंबी कार चुपचाप रुकी और एक परछाईं सी उतरी। फिर कार साहबों की बस्ती में मुड़ गई। वह रुक गया। ठक-ठक सेंडिलों की आवाज़ के साथ वह आगे आती गई गली में। एक नौजवान लड़की, कंधे पर बैग झुलाती, बिखरे बालों को हाथ से सँवारती। उसे देख थोड़ा ठिठकी, उसने चुपचाप सिर झुका लिया और आगे निकल गया। लड़की पीछे अँधेरे में गुम हो गई। 

सड़क पार के बंगलों में अख़बार डालते हुए वह बढ़ रहा था। यह सब आराम से उठने वाले लोग हैं। इसीलिए इनकी बारी आख़िर में आती है। जबकि बहुत लोग ऐसे हैं जो अख़बार गिरने की हल्की से आहट को पहचानकर ही उठ जाते हैं। उनके लिए अख़बार ही घड़ी, दोस्त और दुनिया जहान की सैर कराने वाला साथी है। 

तभी उसके अख़बार अंदर उछालते हाथ रुके, सामने बँगले में वही लंबी कार खड़ी थी। अंदर किसी कमरे में उजाला था। गेट पर से वह कुछ सोचता हुआ हटने लगा कि उसकी निगाह गेट के किनारे लगी नेमप्लेट पर पड़ी। और हाथ का अख़बार अंदर उछाल वह वापस लौट पड़ा। 

2 टिप्पणियाँ

  • अन्त कुछ अस्पष्ट लगा। जो घाव अपेक्षित था वह मर्म पर नहीं लग पाया@

  • 2 Nov, 2022 10:38 PM

    समाज का चेहरा दिखती, सच्ची और अच्छी कहानी। अच्छे लेखन के लिए धन्यवाद।

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