सर्दी की एक सुबह
डॉ. नीरू भट्टरात भर बर्फ़ के थपेड़े झेलती
चीड़ की पतली-पतली पत्तियाँ
सुबह तक बर्फ़ से लिपटी
काँच सी चमचमाती
सूरज के इंतज़ार में
ठंड से कड़क हो गयीं।
सूरज भी कड़कड़ाती ठंडी में
कैसे हिम्मत दिखाता?
सुबह सुबह ठंडी में उठना
किसको है भला सुहाता?
बादलों संग लुकाछिपी करते
उसने एक हाथ बाहर निकला
ताप मिलते ही पत्तियाँ ख़ुशी से उछली
बर्फ थोड़ा थोड़ा पिघली
गुरुत्वाकर्षण का पालन करती
पत्तियों की नोक तक सरकी।
ठण्ड से घबराकर सूरज ने
झट से हाथ अंदर खींच लिया
बेचारी बूँदें नोक पर लटकी लटकी
जड़वत हो गईं।
दयालु हुआ सूरज
अबकी बार उसने
खुलकर दोनों हाथ बाहर निकाले
पल्लव के मानो भाग जागे
किरण और बूँद के समायोजन से
वातावरण इंदरधनुषी हुआ;
टिप टिप झरता पानी
थोड़ा ज़मीं पर गिरा
थोड़ा वाष्प बन उड़ गया।