आसु
डॉ. नीरू भट्ट
अचानक नींद खुली, घड़ी में देखा सुबह के चार बजे थे। पता नहीं मन थोड़ा अशान्त था। बालकनी की ओर क़दम चलते चले गये, देखा वन्दना के घर की लाइट जली थी। फिर याद आया उसके बेटे की दसवीं की परीक्षाएँ चल रही थी। शायद पढ़ाई कर रहा होगा। वापस आकर बिस्तर पर लेटी ही थी कि ऐम्बुलेंस का साईरन सुनाई दिया। इसके पहले कि मैं अपने पति को जगाती, वह हड़बड़ाहट में जागे, फिर बोले, “यह साईरन कैसा है?” कई सारे सवाल मस्तिष्क में कौंधने लगे।
मैंने कहा, “चलो बालकनी में जाकर देखतै हैं।” बालकनी में गये तो देखा, ऐम्बुलेन्स वन्दना के घर के सामने खड़ी है। इसके पहले हम कुछ समझ पाते, देखा अस्पतालकर्मी स्टरेचर में आसु यानी आसुतोष, वन्दना के बेटे को ला रहे हैं। पीछे-पीछे वन्दना और उसका पति बदहवास चले आ रहे हैं।
“कैसे पता करें क्या हुआ है?” पति ने सवाल किया। तभी राजेश और उसकी पत्नी विभा को कार की ओर जाते देखा। विभा मेरी सहेली है और वन्दना और विभा पिछले पन्द्रह सालों से पड़ोसी हैं। मैंने विभा को आवाज़ लगाई उसने इशारे से कहा फोन कर। मैंने विभा को फोन किया तो उसने बताया कि आसु को सिर में बहुत तेज़ दर्द हुआ और वह बेहोश है। इसीलिये उसको पास के अस्पताल में ले जा रहे हैं।
मैं तो नहीं गयी लेकिन मेरे पति ने कहा, “मैं जाकर देखता हूँ कि असल में हुआ क्या है।”
मेरे दिमाग़ में लगभग सात साल पुरानी बातें ताज़ा हो गयीं।
आसु शायद आठ साल का रहा होगा जब मैंने उसे पहली बार देखा था। पतला-दुबला थोड़ा डरा, सहमा और सकुचाया सा बच्चा! वह तीसरी कक्षा में पढ़ता था। मैं विभा के घर गयी थी। विभा और मैं एक ही दफ़्तर में काम करते थे। उस दिन मेरी और विभा दोनों की छुट्टी थी तो बच्चों के स्कूल से आने के बाद हम लोग विभा के घर चले गये। तब हम दूसरे इलाक़े में रहते थे।
दोपहर का खाना खाकर हम बातें कर रहे थे कि विभा के दरवाज़े की घंटी बजी। वह गयी जब वापस आयी तो उसने बताया, वन्दना उसकी पड़ोसन आयी थी, घर की चाबियाँ देने। और कह रही थी कि उसके पति घर की चाबियाँ ले जाना भूल गये। मैंने पूछा, “वह कहीं जा रही है क्या?”
तब विभा ने बताया, “वह अपने बेटे आसु को पेंटिग सिखाने लेकर गयी है साढ़े तीन से साढ़े चार। फिर पाँच से छह बजे स्वीमिंग क्लास। फिर घर आकर नाश्ता करेगा और सात से आठ फिर गिटार सीखने जायेगा। आकर खाना खाकर सो जायेगा।
मैंने पूछा, “खेलेगा कब?”
विभा ने बताया उसके पास खेलने का समय नहीं है। मैं बच्चे की व्यस्थता देखकर हैरान थी।
कुछ दिनों बाद जब मैं विभा को मिलने गयी तो मैंने वन्दना को वहाँ पाया। आसु, विभा के बेटे के साथ खेल रहा था। हाल-चाल जानने के बाद मैंने उससे आसु के बारे में पूछा तो अपनी ठोड़ी ऊपर कर बढ़े गर्व से बोली मेरा आसु कक्षा में प्रथम आता है, पेंटिग करता है, स्वीमिंग करता है, गिटार बजाता है और अब अगले महीने से हम उसको कराटे सीखने भेजने वाले हैं। जिज्ञासावश मैंने आसु से पूछा कि उसको किस कार्य-कलाप में सबसे ज़्यादा मज़ा आता है? पहले तो वह इधर-उधर देखने लगा। मैंने फिर पूछा तो धीरे से बोला, “आन्टी किसी में भी नहीं।”
मैंने कहा, “क्यूँ?”
उसने उत्तर दिया, “मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता है। मुझे खेलना अच्छा लगता है।”
मैंने फिर आसु से पूछा, “बेटा अपने दोस्तों के नाम बताओ, तो उत्तर मिला ‘मेरा कोई दोस्त नहीं है’।”
मैंने वन्दना से कहा, “बच्चे पर अत्याचार क्यूँ कर रही हो? क्यूँ उसको, उसके बचपन से दूर कर रही हो? उसको खेलने कूदने दो। समय आने पर पढ़ाई भी कर लेगा। एक बार उसकी इच्छा भी तो जान लो, अभी तो वह बच्चा है।”
वन्दना बोली, “वही तो . . . वह तो बच्चा है, लेकिन हम नहीं। और भला अत्याचार कैसा? हमारा एक ही तो बच्चा है। हमको उससे कितनी उम्मीदें हैं। हम उसके माता-पिता हैं जो भी सोचेंगे उसके भले के लिये सोचेंगे। और फिर हम यह सब उसके अच्छे भविष्य के लिये कर रहे हैं। उसके पापा चाहते हैं कि वह कम्पयूटर इन्जीनियर बने, मुझे लगता है वह एक बड़ा वैज्ञानिक बने और साथ ही साथ अच्छा पेन्टर भी। खेलने के समय में वह स्वीमिंग करता है, यह भी तो एक तरह का खेल है।”
फिर मैंने कहा, “तो गिटार रहने दो।”
तब वन्दना ने जो जवाब दिया सुनकर मैंने अपना माथा पकड़ लिया। कहने लगी, “कल को जब इसकी शादी होगी और अगर इसको अच्छी पत्नी नहीं मिली तो ये क्या करेगा?”
मैंने अचरज और लाचार भरी निगाहों से उसकी ओर देखा तो ख़ुद ही बोली, “गिटार बजाकर अपना दिल बहलायेगा।”
अब मेरे पास पूछने समझने को कुछ नहीं बचा था।
पिछले साल से हम उसी इमारत में रह रहे थे जिसमें विभा और वन्दना रहते थे। हालाँकि मैं वन्दना से बहुत ज़्यादा घुल-मिल नहीं पायी, उसकी बातें और तर्क सुनकर मुझे अक़्सर झुँझलाहट होती थी।
पिछले साल उसके पति के कनिष्ठ कर्मचारी की बेटी दसवीं की परीक्षा में स्कूल में अव्वल रही थी; साथ ही साथ उसको विज्ञान और गणित में शत प्रतिशत अंक मिले थे। तब से तो वन्दना की ज़िन्दगी का जैसे एक ही उद्देश्य रह गया था कि आसु को कुछ भी करके अगर ज़्यादा नहीं तो उतने अंक तो लाने ही होंगे जितने उसके पति के कनिष्ठ की बेटी के, क्यूँकि अब उसके पति की पद-प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी। हालाँकि आसु का शैक्षिक प्रदर्शन हर साल कम ही हो रहा था। लेकिन वन्दना की ज़िद थी तो थी। आज उसकी गणित की परीक्षा होनी थी और वह . . .
इतने में दरवाज़े की घन्टी बजी। दरवाज़ा खोला तो पति थे, उन्होंने बताया कि आसु के दिमाग़ की कोई नस फट गयी है। डाॅक्टर ने आसु को जल्द से जल्द किसी बड़े अस्पताल में ले जाने को कहा है।
1 टिप्पणियाँ
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अपने थोथे सपने जो स्वयं पुरी शक्ति झोंक कर भी पुरे नहीं कर सकते उसे अपने बच्चों पर थोपने की अनुचित मानसिकता को दर्शाती हुई अच्छी कहानी।