एक अधूरा सफ़र
डॉ. नीरू भट्टबुलन्द हौसलों के साथ
सफ़र की हुई थी शुरुआत,
मंज़िल दूर थी पर
दिखाई देती थी साफ़ साफ़।
अँधेरों से बचने के लिए
मशाल भी थी तैयार,
साथ-साथ चल रहे थे
संगी-साथी तीन चार।
मौसम सुहाना था
हवा भी थी अनुकूल,
नाव रफ़्तार पकड़
रही थी मनोकूल,
एड्रेनैलिन का
उतार-चढ़ाव था चरम पर
मंज़िल से दूरी
कम हो रही थी हर पल।
अचानक हवाओं की
नीयत बदलने लगी
नौका बीच में
हिचकोले खाने लगी
डूबती बचती नाव
पहले छोर पर आ गयी,
मेरी क़िस्मत पर
जैसे ताला लगा गयी ।
संगी साथी लगातार
बढ़ रहे थे आगे,
मेरे पैर मानों दलदल
में जकड़ने लगे
रातों के अँधेरे
गहराने लगे थे
मंज़िल को कोहरे
छुपाने लगे थे,
विश्वास था ज़िंदगी
दूसरा मौक़ा है देती,
लहरें समेटने से पहले
बाहर हैं धकेलती
इसी चाह में हर छोटी बड़ी
सीढ़ी चढ़ती रही,
अफ़सोस! मंज़िल हमेशा
पहुँच से बाहर रही।