प्रवास 

29-04-2012

न जाने एक हवा का झोंका
आया मन के द्वार मेरे
जग दर्शन की अभिलाषा ने
जीवन छिन्न भिन्न कर डाला

दर्शन पा कर जग के मैंने
अनगिनत आभास किए
अर्न्तद्वन्द्व हुआ कुछ ऐसा
रिश्ते-नाते ख़ाक हुए

नव जीवन की अनुभूति ने
मुझको स्वयं से छीन लिया
मटमैली हो गईं सब आशा
अपनों ने मुख मोड़ लिया

दिनचर्या ने घेरा कुछ ऐसा
सब कुछ अपना भूल गई
अरुणाई किरणों को देखे
लगता सदियाँ बीत गईं

पाँव तले ना माटी मेरी
जग लगता बेगाना सा
साथ नहीं हैं मेरे अब वो
दीवाली के दीप सजे

माल पिरो कर पुष्पों की
जब सजती मैं सिंदूर भरे
लौटा दो कोई वापस मुझको
मेरे स्वप्निल रंगों को

पीपल छैंय्या बैठ मैं भोगूँ
पुरवाई सी हवा चले
मनः स्थिति की दूरी है जो
आ कर के अब दूर करे

प्रवासी पीड़ा से मुझको
आजीवन भर मुक्त करे

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