दर्द की किताब

16-01-2018

दर्द की किताब

सविता अग्रवाल ‘सवि’

एक रात अँधेरों से निकल कर
मेरे दर्द
बिस्तर की सिलवटों में उलझ गए
मैं उन्हें हौले हौले सुलझाती रही
खिड़की का चाँद बार बार
बादलों में छुपता और निकलता रहा
मैं उसकी आती जाती रोशनी में
अपने दर्दों को सहलाती रही
तारिकाओं की टिमटिमाती लड़ियों में
दर्द की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाती रही
टूटते रिश्तों से बनी दरारों में
दर्द अपना छिपाती रही
मेरी बैचेनी असमान को छूकर
लौटती रही और हर बार
टूटी डाली सी चटकती रही
मैं दर्द में भीगी रातों को
सुबह का मतलब समझाती रही
मेरा हर दर्द लहरों की तरह
मुझ से निकल कर
मुझ तक लौटता रहा
और मैं रात भर दर्द की
लहरों में बहती रही
अचानक दर्द आग की
लपटों सा बढ़ता गया
और मैं उसकी लपटों में जलती रही
और धुएँ की क़लम से मेरे दर्द
रिस रिस कर काग़ज़ पर उतरते रहे
मैं हर पन्ने को
दर्द की टीस से भरती रही
और उस रात मैं
अपने दर्दों की किताब लिखती रही
डूब पर पड़ी ओस की बूँदों के इंतज़ार में
दर्द को सीने में जकड़े रही
और तकिये की भीगी रुई से
दर्द में भीगे आँसुओं का हिसाब माँगती रही॥

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