बिखरी आशाएँ
सविता अग्रवाल ‘सवि’
कुछ आशाएँ इतनी उड़ीं
कि आकाश को छूने लगीं
छू न सकीं जब आसमां
तो बादल बन विचरने लगीं
कुछ बुलंदी को छू न सकने के ग़म में
आपस में लड़, गरजने लगीं
इतना गरजीं कि बिजली बन
कौंध कर धरा पर आ गिरीं
कुछ रूप बदल, इधर उधर भटकने लगीं
कुछ परेशान और हताश हुईं और
घटायें बन रो रो कर बरसने लगीं
जिन्हें न चाह थी उड़ने की कभी
वे जमी बर्फ़ की तहों में, ज़मीं,
और जमकर रह गयीं
मेरी आशाएँ यूँ उड़ीं कि
आकाश और धरा के बीच
बिखर कर रह गयीं।