बिखरी आशाएँ

01-11-2023

बिखरी आशाएँ

सविता अग्रवाल ‘सवि’ (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

कुछ आशाएँ इतनी उड़ीं
कि आकाश को छूने लगीं
छू न सकीं जब आसमां
तो बादल बन विचरने लगीं
कुछ बुलंदी को छू न सकने के ग़म में
आपस में लड़, गरजने लगीं
इतना गरजीं कि बिजली बन
कौंध कर धरा पर आ गिरीं
कुछ रूप बदल, इधर उधर भटकने लगीं
कुछ परेशान और हताश हुईं और
घटायें बन रो रो कर बरसने लगीं
जिन्हें न चाह थी उड़ने की कभी
वे जमी बर्फ़ की तहों में, ज़मीं, 
और जमकर रह गयीं 
मेरी आशाएँ यूँ उड़ीं कि
आकाश और धरा के बीच 
बिखर कर रह गयीं। 

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