धैर्य की विजय

04-02-2015

धैर्य की विजय

सविता अग्रवाल ‘सवि’

सुनंदा घर के काम से निवृत्त होकर थकी सी अपनी बाल्कनी में आकर बैठ गई और सामने वाले घर की खिड़की से दिखाई दे रही साधना के बारे में सोचने लगी कि वह अपने परिवार के साथ कितने आनंद से समय व्यतीत कर रही है। घर में हर समय चहल-पहल लगी ही रहती है। मेहमानों का भी आना जाना रहता है।

सुनंदा की आँखों के सामने उसका अभी तक का पूरा जीवन एक सिनेमा की रील की तरह घूम जाता है। जब वह केवल दसवीं कक्षा में ही पढ़ती थी तब अचानक उसके पिता, जो दमा की बीमारी से कई वर्षों से जूझ रहे थे, मृत्यु हो गई थी। घर में दो छोटी बहनें, एक भाई और एक माँ थीं। सभी की ज़िम्मेदारी सुनंदा के कन्धों पर आ गई थी। अपनी पढ़ाई करने के साथ-साथ सुनंदा घर के कामों में माँ का भी हाथ बँटाती थी। पिता के जाने बाद घर में पैसे की भी तंगी आ गई थी। इसलिए दसवी कक्षा से ही उसने आस-पास के दो बच्चों को ट्युशन देना शुरू कर दिया था। किसी तरह जीविका चलने लगी थी। धीरे-धीरे भाई-बहन सबकी पढ़ाई पूरी हो गई। साथ ही सुनंदा ने भी राजनीति शास्त्र में अपने एम. ए. की पढ़ाई पूरी कर ली थी और पास ही के एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी करने लगी थी। दोनों बहनों को अच्छे ऑफ़िस में नौकरी मिल गई। भाई भी नौकरी की तलाश कर रहा था। माँ ने एक दिन सुनंदा से कहा कि अब उसके विवाह की चिंता है विवाह का नाम सुनते ही सुनंदा ने माँ से कहा कि अभी पहले अपनी दोनों बहनों और भाई की शादी करनी है फिर अपने बारे में सोचेगी। समय किसी का इंतज़ार कहाँ करता है, निकलता गया। भाई की भी नौकरी लग गई और वह दूसरे शहर में जाकर रहने लगा एक बार भी न सोचा कि माँ को और तीनों बहनों को कौन देखेगा? दोनों बहनों ने भी अपने साथ काम करने वाले लड़कों से शादी कर ली। बहनों को दुल्हन के जोड़े में देख कर सुनंदा के भी मन में अरमान जगते थे परन्तु माँ की ज़िम्मेदारी का अहसास उसे अपना विवाह करने से रोकता रहा। धीरे धीरे माँ भी उम्र के ऐसे पड़ाव पर आ गई कि उन्होंने भी बिस्तर पकड़ लिया। कभी-कभी भाई कुछ पैसे भेज कर अपनी ड्यूटी पूरी कर देता था। एक दिन भाई का ख़त आया कि वह भी अपना विवाह रचा रहा है सुनंदा ने उसमें भी जी जान लगा कर खूब खुशी से भाई को दूल्हा बनाया और भाई का घर भी बसा दिया। सभी बहन भाई अपने अपने परिवार के साथ रहने लगे भाई जो पहले कुछ पैसे भिजवा देता था अब वह भी बंद कर दिए। माँ बेटी का काम ठीक से चल रहा था। किन्तु वह कितनी अकेली पड़ गई थी यह किसी ने भी नहीं सोचा। एक दिन माँ भी इस दुनिया से अलविदा ले गयीं। भाई-बहन आये और कुछ दिन रहकर माँ की मृत्यु का शोक मना कर चले गए। सुनंदा की सहेली अक्सर उससे कहतीं कि तुम विवाह कर लो लेकिन सुनंदा चाहते हुए भी यह न कर सकी। बस स्कूल और घर यही उसका जीवन था। अब सुनंदा क़रीब पचपन वर्ष की हो गई है किस तरह अकेले जीवन कटेगा। इसी दुविधा में मन में कशमकश चल रही थी। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई तो सुनंदा की ख्यालों की निद्रा टूटी देखा कि उसके साथ की ही एक अध्यापिका मित्र, जो कई वर्ष पूर्व शादी करके दूसरे शहर में चली गई थी, खड़ीं है। अरे दीपा तुम! कह कर सुनंदा ने उसे बड़े प्यार से बैठाया। तब दीपा ने बताया कि उसके पति का तबादला यहीं इसी शहर में हो गया है और पास ही में मकान भी ले लिया है सोचा तुम्हारे हाल-चाल पूंछ लूँ। दीपा ने कहा, "बताओ तुम्हारे क्या हाल हैं? सुना है अभी तक विवाह नहीं किया है तुमने।"

सुनंदा ने लम्बी साँस लेकर कहा, "मेरे भाग्य में विवाह है ही नहीं|"

तब दीपा ने कहा कि यदि तुम चाहो तो तुम्हारा भी घर बस सकता है। मेरा एक चचेरा भाई है अच्छी सर्विस में है करीब तुम्हारी ही उम्र का है नाम है सुरेन्द्र। सुनंदा ने कहा भाई बहन क्या कहेंगे कि दीदी इस उम्र में विवाह कर रही हैं।

इस पर दीपा बोली, "आज तक कितनी बार वे तुम्हारी सुध लेने आये हैं। अपनी-अपनी शादी करके बैठे हैं। बहन जिसने उनके लिए इतना त्याग किया उसकी ज़रा भी परवाह नहीं है। सुनंदा यह ज़माना ऐसा ही है अब तुम लोगों और समाज की चिंता छोड़ो और अपने भविष्य के बारे में सोचो।"

दोनों सहेलियाँ इसी विषय को लेकर बहुत देर चर्चा करती रहीं और चाय का आनंद उठाती रहीं। चाय समाप्त करके दीपा ने कहा अब मैं चलती हूँ दो दिन बाद मैं फिर आऊँगी तब तक तुम सोचकर मुझे बताना। यह कह कर दीपा ने सुनंदा से विदा ली। उस रात सुनंदा सो न सकी। मन में बहुत तर्क करती रही कभी-कभी लगा जैसे उसकी डूबती कश्ती को साहिल मिल गया है। दो दिन सुनंदा के कैसे बीते उसका अनुभव तो केवल वह ही कर सकती है। एक तरफ अपना जीवन साथी पाने की खुशी तो एक तरफ ज़माने की फिक्र। दो दिन बाद दीपा सुनंदा का जवाब सुनने आयी। इस बार उसके साथ भाई सुरेन्द्र भी था जिसे देखते ही सुनंदा के मन में अनेकों साज़ बजने लगे कुछ देर बात करने के बाद सुनंदा और सुरेन्द्र ने अपना फैसला हाँ में ही दिया। थोड़ी देर बाद सुरेन्द्र तो बाहर चला गया। दीपा सुनंदा के गले से लिपट गई और बोली कि सुनंदा मैं तुम्हें एक बात जो बहुत वर्षों से मेरे मन में थी बताना चाहती हूँ। मैं अक्सर तुम्हें देखती थी तो अपने भाई की पत्नी के रूप में देखना चाहती थी अब मेरे सगे भाई की न सही चचेरे भाई की पत्नी के रूप में देखूँगी। मेरी अच्छी भाभी कह कर एक बार फिर दीपा सुनंदा के गले लग गई। दोनों सखियाँ अब सखी होने के साथ साथ नंद और भाभी के रिश्ते में बंध गयीं। हिम्मत जुटा कर अगले दिन सुनंदा ने अपने भाई-बहन को ख़त लिखा कि वह अगले सोमवार कोर्ट विवाह कर रही है।

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