लौ और परवाना
मानोशी चैटर्जीएक चिराग़ जल रहा था
लौ भी धीमे धड़क रही थी
किसी हवा के झोंके से डर
धीर धीरे फफक रही थी
काले काजल से डूब कर
तार धुएँ की निकल रही थी
छाती उसकी जल रही थी
काँपती बाती मचल रही थी
दर्द में डूबा उसका दिल था
बुझने को भी मुकर रही थी
आने की प्रीतम की आस में
दर्द पी के भी जल रही थी
आया तभी वो जो परवाना
अपनी प्रिया से बातें करने
देखा न उसने दर्द प्रिया का
सारे दिन की कहानी कहने
चारों तरफ उसने लौ की
बलायें ली जो घूम घूम कर
प्रेम की ज्वाला में जल करके
प्यार जताया हौले से चूम कर
तभी हवा के एक झोंके ने
दो प्रेमी के मिलन से जल के
घेर लिया दोनों को आकर
अपना सौम्य रूप बदल के
परवाना लिपटा लौ के दिल से
और
लौ ने पी को गले लगाया
दोनों ने जां दे दी अपनी
रात का साया फिर गहाराया
अंधेरा फिर से जाग उठा
औ रात ने फिर ली अंगड़ाई
मगर किसी दीवाने ने आकर
फिर एक दीये की लौ जलाई॥