कब किसी बंदूक या शमशीर ने रोका मुझे
अश्विनी कुमार त्रिपाठी2122 2122 2122 212
कब किसी बंदूक या शमशीर ने रोका मुझे
कुछ उसूलों ने तो कुछ तक़दीर ने रोका मुझे
जिस बुलंदी के शिखर की राह आसाँ थी वहीं
स्वाभिमानी ख़ून की तासीर ने रोका मुझे
जब क़लम ने तालियों की चाह में लिक्खी ग़ज़ल
तब किताबों से निकलकर मीर ने रोका मुझे
चंद सिक्कों की खनक पर डगमगाया जब कभी
पर्स में रक्खी तेरी तस्वीर ने रोका मुझे
बोलते लब रोक ना पाए मेरे क़दमों को जब
मौन आँखों से छलकते नीर ने रोका मुझे
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