इक तमाचा गाल पर तब मार जाती है हवा
अश्विनी कुमार त्रिपाठी2122 2122 2122 212
इक तमाचा गाल पर तब मार जाती है हवा
जब वतन की सरहदों के पार जाती है हवा
उनकी साँसों की महक लाती है मेरी साँस तक
मुझ पे ख़ुशियों का ख़ज़ाना वार जाती है हवा
मेघ ला कर जब बुझाती है धरा की प्यास को
शोक में डूबे कृषक को तार जाती है हवा
तब मुझे आभास होता है स्वयं की जीत का
जब किसी जलते दीये से हार जाती है हवा
जिस घड़ी यह मित्रता करती है ‘अश्विन’ आग से
उस घड़ी सच मानिए बेकार जाती है हवा
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