गिद्ध

श्यामल बिहारी महतो (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

बैंक की सीढ़ियाँ उतरा ही था कि उन चारों ने सुदामा को घेर लिये थे, ज़मीन पर मरे हुए जानवर को जैसे गिद्ध घेर लेते हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था। गिद्ध मरे हुए जानवरों को खाते हैं और वे चारों ज़िन्दा लोगों की बोटी-बोटी नोच कर खाने वाले गिद्ध थे। सब अपना-अपना महीने भर का हिसाब लिए खड़े थे। सबसे जल्दी में दारूवाला था, उसीने पहले अपना मुँह खोला और बोला, “सुदामा, फटाफट मेरा डेढ़ हज़ार निकाल, तुम्हारे कमीने साथी करमचंद को भी पकड़ना है, साला फिर कहीं भाग न जाए।“

“कल तो बारह सौ ही बताया था . . .” 

“और बाद मेंं करमचंदवा के साथ दो बोतल पी गया था, उसका कौन देगा तुम्हारा बेटा . . . पीने के बाद तुमको होश रहता ही कहाँ है . . . ला . . .”

“मैं नहीं, वो करमचंद बोला था; वो देगा . . .”

“तुम बोला था; तुम दोगे . . .” और दारूवाले ने सुदामा का कॉलर पकड़ लिया, “चल जल्दी निकाल . . .”

सुदामा सहम गया। उसने तत्काल उसे डेढ़ हज़ार देकर चलता किया तो सूद वाला तन कर सामने खड़ा हो गया, “सुदामा, मेरा भी जल्दी से चुकता कर दो-पाँच हज़ार बनता है।” 

“पाँच हज़ार कैसे? तीन हज़ार मूल और एक हज़ार सूद-चारे हज़ार न हुआ . . .?” 

“आर पिछले महीने समधी के आने पर दो हज़ार और लिया था उसका मूल और सूद कौन देगा? तुम्हारा बाप . . .?” 

सुदामा सूद वाला से भी न बच सका। वो पूरे पाँच हज़ार ले चलता बना। 

मीट और राशन दुकान वाले कब तक पीछे खड़े बगुले की तरह देखते रहते एक साथ दोनों सामने आ गये।

“तीन हज़ार मेरा भी निकाल दो सुदामा भाई,” मीट वाला बोला

इस बार सुदामा ने कोई आनाकानी नहीं की। चुपचाप तीन हज़ार दे दिया उसने उसको, फिर बोला, “अभी आ रहा हूँ . . . गुरदा-कलेजी रख देना . . .” 

“मेरे खाते मेंं छह हज़ार चार सौ चालीस रुपए हैं; इस बार पूरा लूँगा . . .” 

राशन वाले सेठ ने लाठी ठोकते हुए-सा कहा। 

“इस बार डेढ़ हज़ार कैसे बढ़ गया सेठ जी . . .?” सुदामा कुनमुनाया था।

“समधी-समधिन आएथे तब दो दिन उन लोगों को शिकार-भात खिलाया था, भूल गया? तेल-मसाला किस भाव बिकता है मालूम है तुमको . . .?” सेठ का तेवर कम नहीं हुआ, “खाने के समय ठूँस-ठूँस कर खाओगे और देने के समय खीच-खीच-पूरा दो नहीं तो आज से उधार बंद . . .” 

“सेठ जी चार हज़ार ले लो; अगले महीने पूरा दे दूँगा . . . ” सुदामा ने मिन्नत की, “बड़ी बेटी को सलवार-कुरती खरीद देनी है . . . काफ़ी पुराना हो गया है; फटने भी लगा है!” 

“मुझे कुछ नहीं सुनना है, छह हज़ार चाहिए तो चाहिए ही, नहीं तो उधार बंद . . . ” सेठ सीधे-सीधे धमकी पर उतर आया था। 

सेठ को न देने का मतलब घर का राशन पानी बंद! 

रोने और पैर पकड़ने पर भी सेठ का पत्थर कलेजा पिघलने वाला नहीं था, यह बात सुदामा भली-भाँति जानता था। देने मेंं ही भलाई थी। 

चला तो हाथ मेंं मात्र डेढ़ हज़ार रुपए थे। आधी तनख़्वाह पहले ही नागे मेंं कट गयी थी और आधी आदमख़ोरों ने ले ली। अब किस मुँह को लेकर घर जाए। बार-बार उसकी आँखों के सामने बड़ी बेटी सरिता की पुरानी सलवार कमीज़ और छाती के बढ़ते आकार घूमने लगे थे। देर रात वह घर पहुँचा। बच्चे सो चुके थे और पत्नी जाग रही थी। सालों बाद सुदामा कलेजी-गुरदा लिए बग़ैर घर पहुँचा था।

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