कसरत वाला भगोड़ा 

15-10-2023

कसरत वाला भगोड़ा 

श्यामल बिहारी महतो (अंक: 239, अक्टूबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

आज फिर बुधिया चार बजे भोर भादो दा को ढूँढ़ने निकल पड़ी थी। मैं जान बूझ कर उसके रास्ते से हट गया और पेड़ के पीछे छिप कर उसे जाते हुए देखता रहा-दूर तक। डूबते चाँद की ओड  में ( छिपकर) वह लम्बे लम्बे डग डालती लपलपाती हुई जा रही थी। यहाँ प्रेम जैसी कोई बात नहीं थी। बस एक क़रार था, एक दरकार थी! जिसके लिए वह भागी जा रही थी! 

हाँ, बुधिया ने मुझे देखा नहीं था, लेकिन उसे पता था कि मैं यहीं हूँ, यहीं कहीं छिपा हुआ हूँ। और छिप कर उसे जाते हुए देख रहा हूँ। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वो दो घंटियाँ थी जो सड़क किनारे की टुंगरी (एक छोटी मोटी पहाड़ी) पर चर रही मेरी दोनों लघेर (दुधारू)  गायों के गले में बँधी हुई थी। घंटियों की आवाज़ उन दोनों गायों की पहचान थी और वे दोनों मेरी गायें हैं और मैं उनका चरवाहा हूँ यह मेरी पहचान थी। घंटियों की आवाज़ दूर तक सुनाई पड़ती थी और लोग जान जाते थे कि यह उन्हीं के गायों की घंटियाँ है और मैं यहीं कहीं बैठा हूँ या फिर सड़क किनारे घास पर उठक-बैठक कर रहा हूँ। व्यायाम करने का मेरा बचपन की आदत अभी तक छुटी नहीं थी। सुबह सुबह टाँड़ पर टाँग उठाकर तो कभी लेट कर उठक–बैठक करते हुए बुधिया बीसों बार मुझे देख चुकी थी—सामने से नहीं। पेड़ों या फिर झाड़ियों के पीछे छिप-छिप कर! चोरी-चोरी! 

वही बुधिया इधर मेरे मन को भी ललचाने का कई असफल प्रयास भी कर चुकी थी लेकिन मैं सिम दाल (सेम दाल)  की तरह कभी उसके आगे गला नहीं, सिझा नहीं। उसका कोई भी शस्त्र मुझ पर आज तक काम न आ सका था। परन्तु उसने भी अभी हार नहीं मानी थी। न मैदान छोड़ा था, बस समय की ताक में थी, समय सबका आता है, शायद उसके मन में कभी-कभी यह ख़्याल आता होगा, कब मौक़ा मिले और लपक लूँ। परन्तु वो समय अभी आया नहीं था। 

हर दिन मैं चार बजे भोर गायों को चराने के लिए उस टुंगरी पर आता हूँ, जब से उसने यह जाना था तभी से वह देह धोकर मेरे पीछे पड़ी हुई थी। 

तीस वर्षीय बुधिया सुकरा मुंडा की बड़ी पतोहू थी। बेचारी बुधिया से सुकरा मुंडा की पतोहू बनने के पहले बुधिया को खूँटी के मनचले युवकों, बिहड़ जंगलों और पथरीली पगडंडियों से बार-बार लड़ना पड़ा था। यह भी सच है कि लड़ने की क़ुव्वत उनमें बचपन में ही आ गई थी। कहें तो उसके जन्म के दस दिन बाद से ही उसके जीवन में संघर्ष शुरू हो गया था। अंधविश्वास की कोख से पैदा हुई बुधिया के जन्म के दस दिन बाद ही उसका बाप सोमरा मुंडा पेटझरी (डायरिया) से मर गया “जनमते ही डायन ने बाप को खा गयी” माँ ने बुधिया पर एक बड़ा आरोप लगा सीधे-सीधे मुँह फेर लिया। नफ़रत ऐसी बढ़ी कि दुधमुँही बच्ची को अपना दूध नसीब होने नहीं दिया और एक रात चुपके से उसकी माँ खँचिया में भर गाँव के बाहर कूड़े के ढेर में उसे फेंक आई। सुबह तक सियार-कुकुर उसे चोथ-नोंच कर खा जाएँ, उस सगी माँ की यही मनोकामना थी। लेकिन मारने वाले से बचाने वाले के हाथ लंबे होते हैं। सोमरी मोदीन जो बुधिया की सगी आजी (दादी) थी और गाँव के बाहर एक झोपड़ी में रहते हुए बुधनी हाट के सामने सड़क किनारे हँड़िया-मंडिया बेचकर अपना गुज़र बसर कर रही थी। गाँव की सबसे बड़ी डायन का आरोप लगा हुआ था उस पर। सगे बेटे और गाँव से बाहर “बाड़” (बहिष्कृत) का जीवन गुज़ारने पर वह विवश थी। बुधिया की उसी दादी ने उसको कूड़े की ढेर में फेंकते हुए उसकी माँ को देख लिया था। इसके पहले कि कुत्ते उस पर झपटें, उसकी दादी उसे उठा लाई थी। यह बात उसकी माँ को पता न चल सकी। बुधिया उसी दादी की आँचल तले पलने-बढ़ने लगी। छह माह बीते किसी को कुछ पता न चला। साल भर हुआ तो बच्ची की रोने पर लोग क़यास लगाने लगे, गाँव में चर्चा होने लगी कि सोमरी मोदीन के पास कोई बच्ची है जिसे वह पाल रही है “कौन है, किसकी बच्ची है . . .?” यह कोई नहीं जानता। पर लोगों के मुँह को कौन बंद करे? कुछ ने बकना शुरू कर दिया था, “वह डायन ज़रूर किसी की बच्ची को चुरा लाई होगी। पक्का उसे डायन सिखाएगी।” 

परन्तु बुधिया की माँ कभी सामने नहीं आई। आती भी तो कैसे “बेटी मर गई, दफ़ना दिया” गाँव में वह प्रचारित कर चुकी थी। बच्ची उसी की है, कहने का रास्ता बंद हो चुका था। शुरू में दूध से भरा उसका स्तन जब टपकने लगता तो वह “चिपर” देती थी। बुधिया उस दूध के बजाय लपसी का झोर और माँड पी-पी कर बढ़ती गई। ज़्यादा रोने पर कभी-कभी दादी उसे भी एक दो बूँद “हँड़िया” मुँह में डाल देती। वह चुप चाप चाटते-चाटते एक तरफ़ लुढ़क जाती थी। 

सोमरी मोदीन यह मान चुकी थी कि बुधिया उसकी पोती नहीं, वरन् उसकी बेटी है। उसका अपना ख़ून है। वह अनपढ़ है तो क्या हुआ, पर बेटी को अनपढ़ नहीं रहने देगी। और बुधिया जैसे ही पाँच साल की हुई, गाँव के स्कूल में उसका दाख़िला करा दिया। माँ के कॉलम में अपना नाम लिखा दिया “सोमरी मोदीन”।

बुधिया पढ़ने में जितनी तेज़ थी, बहादुरी में भी लड़कों पर भारी थी। साँप और कुत्तों की पूँछ पकड़ ऐसे घुमाती कि देखने वाले दाँतों तले अंगुली दबा लेते थे और सोमरी चिल्लाती रहती “अरे, छोड़ दे, काट लेगा!” पर वह दूर फेंक कर ही दम लेती थी। लड़कों के प्रति भी वह यही भाव रखती थी। 

“इस छोकरी को ज़रा भी डर नहीं! किसी से भिड़ जाती है,” सोमरी कहा करती थी। लड़के भी उससे बचते फिरते थे। कोई लड़का इस लड़की को अकेले में बस नहीं कर सकता है—यह उस गाँव के लड़कों के मन में बात बैठ गई थी। सो कोई भी लड़का बुधिया से अकेले पंगा लेने से डरता था। 

बुधिया अभी महज़ तेरह साल की थी कि तभी एक दिन उस वक़्त उसे दबोच लिया गया जब हमेशा की तरह सुखी लकड़ियाँ लाने वह जंगल गयी थी। तेरह मिनट तक अकेली वह उन तीनों से लड़ती रही। पर थी तो आख़िर लड़की ही न। तीनों भेड़िए की तरह एक साथ उस पर टूट पड़े थे। किसी ने कुर्ता फाड़ा किसी ने सलवार। अब वह बिल्कुल नंगी थी। पेड़ की तरह। अगले ही पल लड़कों ने उसे ज़मीन पर पटक दिया . . .! 

और जब उसे होश आया तो बकरचरवाहे उसे समेटे हुए सोमरी की झोपड़ी में पहुँचा चुके थे। सोमरी देर तक सदमे में डूबी रही। होश आया तो, माँ बेटी की आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे। 

तीन माह बाद ही सोमरी ने चोटाही के सुकरा मुंडा के बड़े बेटे मेघू मुंडा के साथ उसकी शादी करा दी। जहाँ दारूबाज़ और बेवड़ा पति मिला। कुछ सालों तक पति सुख तो मिला, पर बहुत जल्द वह नाकारा साबित हुआ। बुधिया की गर्मी के आगे वह मोम की तरह तुरंत पिघल जाता और बुधिया रात रात भर छटपटाती रहती थी। 

शादी के दस साल बाद आख़िरकार हार कर बुधिया ने हँड़िया-दारू बेचने का धंधा शुरू कर दिया। जब कोई पुरुष अपना पौरुष बल खो देता है तो पत्नी परपुरुष के आगे लेटने—साड़ी उठाने में परहेज़ नहीं करती है। पति देह सुख से वंचित बुधिया ने दारू के साथ देह धंधा भी जोड़ दिया। उसके पास बहुत ज़्यादा विकल्प नहीं था। बुधिया थी तो साक्षर। चार क्लास पढ़ी भी थी। और पढ़ाई की महत्त्व को ख़ूब समझती थी और बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहती थी, स्कूल भेजना चाहती थी। लेकिन क़िस्मत से पति बेवड़ा मिला था, दारू पीकर सूअर की तरह जहाँ-तहाँ पड़ा रहता था और कुत्ते उसका मुँह चाटते रहते थे। पत्नी के देह व्यापार पर उसे कोई एतराज़ नहीं था। एतराज़ बूढ़े ससुर ने किया, “जो तुम कर रही हो यह ग़लत है, लोग नाम लेकर मुझे गारी देते हैं!”

“अच्छा, बेटे से काहे नहीं काम करने को कहता, मरद कमाता नहीं, दारू पीकर दिन भर कहाँ मरल-पडल रहता है, मैं भी नहीं कमाऊँगी तो घर का नून-तेल, आटा-दाल कौन लाकर देगा? बच्चों के कपड़ा लत्ता कौन लाकर देगा? है कोई मरद . . .?” बुधिया चीख पड़ी थी, उसकी बग़ल में बँधी बकरी भी ज़ोर से मिमिया उठी-थी, “लो इसका भी पेट मुझे ही भरना है, एक छगरी का पेट भी तुम लोगों से भरा नहीं जाता है—बात करेगा इज्जतदारों वाली! और तुम तो चुप ही रहो,” बुधिया ससुर पर गुर्राई थी। “याद है, एक दिन खाने को नहीं मिला तो गाँव में चार-चार जगह फोंकर दिया, ‘पतोहू खाना नहीं देती है, पतोहू पीने नहीं देती है’ और बात करेगा हमसे इज्जत बिज्जत की!”

बूढ़े ससुर की सिट्टी-पिट्टी गुम! उस दिन के बाद फिर कभी किसी ने उसके आगे मुँह नहीं फाड़ा। कभी बोली न निकली किसी के मुख से! तब से बुधिया अपने घर की रानी-महारानी थी। घर और बाहर उसी की मर्ज़ी चलती। जो घर में आता, उससे घर में मिलती बाहर तो बहुतों को न्योत रखा था उसने। 

“मैं किसी का ग़ुलाम नहीं हूँ!” घर में वह किसी के सामने हुमच कर बोल उठती थी। उपदेशक लोग भी उससे मुँह लगाने से घबराते थे, जाने कब क्या कुछ बक दे छिन्नार! 

बुधिया से मेरी पहली मुलाक़ात भूत-भूतनी की तरह हुई थी। आषाढ़ का महीना था। भोर-भोर की बेला थी। टुंगरी की तलहटी थी, मैं था, मेरी दो लघेर गायें थी। हवा में ताज़गी थी और उसमें प्रकृति की गंध घुली मिली हुई थी। टुंगरी पर मेरी गायें चरने में तल्लीन थीं और मैं टुंगरी की तलहटी और पक्की सड़क किनारे घास पर गमछा डाल योगा में लीन था। अलोम विलोम करते हुए लम्बी लम्बी साँसें ले रहा था कि तभी अचानक से मेरे कानों में दौड़ते हुए पदचाप सुनाई पड़ी। मैं चौंकते हुए उधर देखने लगा फिर योगा छोड़ बदन पर गमछा लपेट सड़क पर आ गया था। इतने में दौड़ते-भागते हुए एक औरत नहीं-नहीं एक जवान औरत ठीक मेरे सामने आकर रुकी “ब्रेक! ब्रेक!!” कह मैंने दोनों हाथ खड़े कर उसे रुकने को कहा था। वह ठिठकते-ठिठकते रुक गई थी। वह ऐसे भागते-दौड़ते चली आ रही थी, उसके पीछे कोई भूत पड़ा हो जैसे। या फिर कोई उसे दौड़ा रहा हो। वह हाँफ रही थी और लम्बी लम्बी साँसें ले रही थी . . .! 

“तुम कौन हो, और इस तरह भाग क्यों रही हो? कोई साँड़-भाँड़ पीछे पड़ा हुआ है क्या . . .?” 

“मेरा नाम बुधिया है, मैं चोटाही के मेघू मुंडा की पत्नी हूँ!” उसका हाँफना अभी तक बंद नहीं हुआ था। वह बिल्कुल मेरे सामने खड़ी थी। उसकी साँसें तक मुझे सुनाई पड़ रहीं थीं।

“फिर इस तरह भाग क्यों रही थी . . .?” 

“मैं . . . मैं भादो के पास जा रही थी, सुबह खेत का धान बिहिन गाड़ी जोतवाना है, वही कहने जा रही थी!”   बँटवारे में उनके हिस्से में दो खेत आए थे। 

“भादो? . . . भादो दा!” कुछ सोचते हुए मैंने कहा, “वो तो उधर काडा (भैंसा) चराने ले गया है . . . जाओ . . . जाओ, जल्दी जाओ!” 

जाने से पहले उसने मुझे एक बार भरपूर नज़रों से देखा और तेज़ी से उस दिशा में बढ़ गई थी। 

तब से लेकर आज तक भादो दा ही बुधिया के खेतों का, उसकी देह का जोतवाहा-हरवाहा बना हुआ था। बुधिया भी तो एक खेत ही थी। बाद में बुधिया ने बोधी और शनिचर को भी जोतवाहा के तौर पर शामिल कर लिया था। 

वही हरवाहा—भादो दा ने आज बुधिया को बहुत निराश किया था। कह कर भी उससे मिलने नहीं आया था। 
बुधिया के गये अभी मुश्किल से आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि झुलसे मन उसको लौटते देखा। मेरी गायें टुंगरी पर चर रही थीं और मैं सड़क किनारे खड़ा राजभाषा विभाग के निदेशक को ‘वाटशप’ पर उनके भेजे ‘मैंसेज’ के जवाब में ‘सुप्रभात’ लिख रहा था। तभी बुधिया मेरे बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई; ढीठ भी तो बड़ी थी! जिसके साथ हम-बिस्तर होती होगी, जाने उसके साथ किस तरह पेश आती होगी! कमोवेश ख़रगोश का जीवन जीती हैं, ऐसी औरतें! 

“आज बड़ी जल्दी लौट आई, भादो दा नहीं मिला क्या . . .?” पूछ बैठा था। 

“उस बहिनमौगा को आज उसकी मौगी पकड़ रखी थी, मुझे आने को बोल रखा था और पंठवा ख़ुद नहीं आया!” बुधिया बेहद ग़ुस्से में लगी। 

“उधर बोधि भी तो काडा चरा रहा था, उसके पास चली जाती!”

“कल तो उसी के पास गयी थी, रोज रोज थोड़े न देगा।”

“फिर शनिचर को बोलती, वह भी तो उसी के साथ काडा चरा रहा था।”

“वो बड़ी हरामी है, कमर में जोर तो है, पर बहुत तंग भी करता है और पॉकिट खाली रखता है, मुफ्त में माल मारना चाहता है, फोकट में कितनी बाँटती फिरूँगी, फिरी नून-तेल कौन लाकर देगा मुझे . . .?” 

“हाँ, वो तो है . . .!” 

इसके साथ ही रहस्यमय ढंग से मैंने चुपी ओढ़ ली थी, उस वक़्त बुधिया को अपने पास से ठेलने का एक मात्र रास्ता यही सही लगा था। परन्तु बुधिया के दिमाग़ को समझना इतना आसान भी नहीं था। कहा भी जाता है, स्त्रियों को जब ईश्वर नहीं समझ सके तो मनुष्य की औक़ात ही क्या है! पास में ऐसे खड़ी थी जैसे आग़ोश में लेने की तैयारी कर रही हो, उसके पास से चुपचाप खिसक लूँ, मैं अभी इसी पर सोच रहा था कि उसकी बातों ने चौंकाया मुझे।

“बहुत दिनों से आपको कसरत करते, दण्ड उठक–बैठक करते देखते आ रही हूँ, कभी इसका फायदा मुझे भी दे दो, आज तक कभी दिया नहीं, मैंने कभी माँगा भी नहीं, घर में राशन खत्म है, बच्चों का स्कूल फीस भी देनी है, आज तो बोहनी कर दो। साहब!” 

“साहब!” यह ऐसा शब्द बम था, जिसने मुझे एक पल के लिए असहज कर दिया था। लगा मैं और कुछ देर तक इसके पास खड़ा रहा तो मुझे अपना वुजूद बचा पाना मुश्किल हो जाएगा। अफ़वाहें आग की तरह होती हैं, फैलते देर नहीं लगती है। बुधिया का जल्दी में लौटना और मेरे पास आकर उसकी खड़ी हो जाना, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था कि आज यह ज़रूर कोई धमाका करेगी, ज़रूर कोई बम फोड़ेगी, मैं देर तक उसे देखता रहा और वह प्रार्थना की मुद्रा में आँख बंद किए खड़ी रही कि मैं “हाँ” कर दूँ और उसकी आज की बोहनी हो जाए! 

सूर्योदय होने में अभी भी काफ़ी वक़्त था। लोगों की आवाजाही अभी शुरू नहीं हुआ था। दाग़ लगने के पहले देह बचा लेने में ही बुद्धिमानी थी।

“देखो, अभी तुम जाओ, मेरी दोनों गायें दिख नहीं रहीं हैं और घंटियों की आवाज़ भी सुनाई नहीं पड़ रही है, शायद खेतों की ओर उतर गई हैं, मुझे जाना होगा!”

इसी के साथ मैं क़दम उठा कर कुछ इस तरह भाग खड़ा हुआ था जैसे शिकारी को सामने पाकर ख़रगोश भागता है। 

तभी भागते कानों से एक आवाज़ टकराई, “कसरत वाला भगोड़ा!”

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