राशनकार्ड का जादू

15-12-2024

राशनकार्ड का जादू

श्यामल बिहारी महतो (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

गाँव के लालजी साहू को डी सी जनता दरबार में उपस्थित होने को कहा गया था। आज ही सुबह दस बजे! परसों ग्राम सेवक गाजोडीह के जिन पाँच लोगों को डी सी के जनता दरबार में शामिल होने के लिए पत्र दे गया था उनमें लालजी साहू भी एक था। किस कारण बुलाया जा रहा है। पत्र में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं था। 

“जनता दरबार में आप अवश्य पधारें” ऐसा लिखा हुआ ज़रूर था। 

अभी तक लालजी साहू का जीवन विधायक–मंत्री के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। उठना-बैठना खाना-पीना होता रहा है। पहली बार जनता दरबार में डी सी, सी ओ, बी डी ओ, के साथ बैठने का मौक़ा मिलने जा रहा था। कम बड़ी बात नहीं थी। उसके मन में ख़्याल आया था। ज़रूर कोई बड़ी बात होगी। सोचा था उसने। 

जब कभी भी अपने पन्द्रह बरस पीछे की ज़िन्दगी को याद करता है तो वे लोग अक्सर याद आ जाते हैं जिनके बलबूते वह यहाँ तक पहुँचा है। फिर लालजी साहू अपनी तरक़्क़ी भरे जीवन को याद करने लगा था। कहाँ से और कौन सा जुगाड़ लेकर चला था और आज किस मुक़ाम पर आकर खड़ा है! दस बरस पहले वह दस टके का आदमी नहीं था। गाँव पंचायत में उसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी। कोई भाव नहीं देता था। बेकारों-नकारों का कोई भाव होता भी नहीं है। 

एक दिन किसी के कहे पर लालजी साहू मेरे ऑफ़िस में चला आया। मैंने पूछा, “क्या हुआ, किसी परेशानी में हो?” 

“मुझे सिविल में छोटा-मोटा कोई काम दिला दीजिए।”

“कर सकोगे? भाग तो नहीं जाओगे? ठाकुर को लगा दिया था, टिक नहीं सका भाग खड़ा हुआ।” 

“आपके नाम को मज़ाक़ बनने नहीं दूँगा . . .!”

दूसरे दिन आने को बोला। आया, काम मिला चार हज़ार का! ऑफ़िस कैम्पस के “बुश-कटिंग” का/झाड़ी कटाई का।

सप्ताह दिन में काम कर दिखाया। दूसरा काम मिला नाली सफ़ाई का। वो भी उसने चार दिन में करवा दिया। मैंने पीठ थपथपाई और कहा, “आगे करते जाओ, अब मेरी ज़रूरत नहीं पड़ेगी!”

“हीं दादा! आपका आशीर्वाद हमेशा चाहिए।”

” ठीक है लगे रहो . . .!”

साल भर में छोटा-बड़ा मिला कर सात काम किए उसने और एक बाईक ख़रीद ली। मुझे लगा लड़के ने राह पकड़ ली। तभी एक दिन सुबह सुबह सुना कि मुलुकचंद बरनवाल की बेटी तारा को लेकर कहीं ग़ायब हो गया! मैंने माथा पकड़ लिया, “ससुरा यह भी नहीं सुधरेगा।” फिर शाम को सुना कि किसी मंदिर में शादी कर दोनों घर लौट आए हैं और ये कि उसने मोटरसाइकिल में तारा को बिठाकर पूरे गाँव का एक चक्कर लगा कर अपने घर में ले घुसा . . .! लड़की राज़ी फिर क्या करे बाप? बालिग़ लड़की ठहरी। बाप गठरी बन घर में बैठ गया। 

“लम्बी रेस का घोड़ा निकलेगा!” मेरा आकलन था। 

आज दो ट्रक, एक स्कॉरपियो का मालिक बन बैठा था। 

उसी लालजी साहू को आज अचानक डी सी जनता दरबार में उपस्थित होने वाले पत्र से उसे फूले नहीं समा रहा था। ख़ैर! 

इतना आदर भाव से बुलाने पर तो गधा भी गद्गद्‌ हो जायेगा। लालजी साहू तो राज्य के मंत्री के साथ उठने-बैठने वाला आदमी था—गधा नहीं। पत्र पाकर वह कुछ ज़्यादा ही गद्‌गद्‌ हो गया था। और जब आदमी किसी बात पर ज़्यादा गद्‌गद्‌ हो जाता है तो उसे बहुत गुदगुदी होने लगती है। तब वह हर बात को पका-फूला कर कहना शुरू कर देता है। लालजी साहू को भी डी सी वाले पत्र से बड़ी गुदगुदी होने लगी थी जिस किसी से मिलता जनता दरबार वाली बात शुरू कर देता, “अब सरकार भी खोज-पुछाड़ करने लगी है।”

“भाई सरकार तो आप जैसे बड़े लोगों का ही होता है—ख़्याल तो रखेगा ही,” कोई कहता। 

“अब आगे नेता बनना पक्का है आपका . . .!” कोई जोड़ देता। 

गुदगदाता मन लिए सुबह-सुबह वह गाँव के अपने घनिष्ठ मित्र धनीराम महतो के घर जा रहा था। पता चला डी सी दरबार में उपस्थित होने का उसे भी पत्र मिला है। इससे पहले घर से निकला तो रास्ते में कई लोग मिले। डी सी दरबार में जाने की बात उठी तो लोग भी कहते मिले, “मंत्री के साथ रहने का फ़ायदा हो रहा है”

“अब बड़े लोगों की गिनती में आ गया है भाई!” किसी के मुँह से निकला।

“हम छूछों को कौन पूछेगा!” कोई कुंकुआ उठता।

“मंत्री मेहरबान तो हर जगह मिले मान सम्मान!” 

मोड़ पर सुदन महतो की विधवा पत्नी सुखमुनी महतवाईन भेंट गई। साल भर से विधवा पेंशन को लेकर मुखिया से लेकर बी डी ओ के आगे दौड़ लगा-लगा के थक चुकी थी। पर अभी तक सिर्फ़ आश्वासन ही मिलता रहा है। 

“कहाँ जा रही है काकी . . .?” लालजी साहू ने टोका था। 

“हमर पेंशनवा कहाँ पास भेल है बाबू! सुन लिये, जिला के बड़का साहब आयल है-वहीं जा हिये!”

“ठीक है जा-हमहूँ आओ हियो!”

“तोरो पेंशन पास करवे के हो की . . .!”

“नाय काकी . . .!” 

हँसता-बुझता लालजी साहू पहुँचा धनीराम के घर। 

पन्द्रह साल पहले धनीराम पैदा नहीं हुआ था। गाँव में लोग उसे तब चमन महतो के नाम से जानते थे। एक दम बेकार! निकम्मा और आवारा के रूप! तभी उसने एक ऐसा करनामा कर डाला जिससे रातों-रात वह गाँव में धनीराम महतो बन गया। 

गाँव में दौलत राम महतो नाम का एक धनी किसान था। उसकी इकलौती बेटी बड़ी चंचल और चुलबुली लड़की थी। चमन ने उसे क़ायदे से चोकलेट और पावरोटी खिला-खिला कर पटाया और एक दिन सीधे रजरप्पा ले उड़ा, मंदिर में जाकर शादी कर ली और दौलत राम महतो का घर जमाई दामाद बन गया। गोतियारों ने हंगामा ख़ूब किया पर कुछ काम न आया। एक दिन अपने बीए पास सभी प्रमाण पत्रों को चूम कर चमन ने जला डाला जिससे वह गाँव में बेरोज़गार और बेकार-निकम्मा कहलाता था। 

दूसरे दिन चमन कोर्ट गया और अपना नाम बदलने का घोषणा शपथ पत्र में धनीराम महतो और बाप भी बदल डाला “दौलत राम महतो” कर चला आया था। 

आज दो मंज़िला पक्के मकान में रहता है। एक ट्रैक्टर, एक बोलेरो गाड़ी का मालिक तो है ही, सालों भर ईंट का कारोबार चलता रहता है। 

“जनता दरबार में हमनी के काहे बुलाया गया है कुछ पता चला . . .?” लालजी साहू को घर आया देख, धनीराम ने पूछ बैठा।

“चलके देखिए लेते हैं न,” लालजी साहू बोला, “सुना जयालाल को भी बुलाया है, चलो उसे भी साथे ले चलते है . . .!”

“कुछ खाया भी या ऐसे ही चल दिया, रुको सुजी भुंजवाते है तब तक हम झाड़ा फिर आते हैं . . .!”

“तोर इ आदत नाय सुधरतो . . .!”

थोड़ी देर बाद दोनों जयालाल के घर पहुँचा। पता चला, वो घर से जनता दरबार जाने के लिए निकल चुका है। 

स्कूल मैदान में दूर से ही सरकारी तामझाम नज़र आ रहा था। माइक से बार-बार जगह लेकर लोगों को बैठने को कहा जा रहा था। जयालाल मंच के नीचे सामने कुर्सी पर बैठा नज़र आ गया। दोनों उसी दिशा में आगे बढ़ गये थे। तभी मंच संचालक ने लालजी साहू, धनीराम महतो और जयालाल को सादर मंच में आकर आसन ग्रहण करने को कहा। वे तीनों एक दूसरे को देखने लगे। लालजी साहू के मुँह से निकला, “कहीं बकरा तो नहीं बनाया जा रहा है यार . . .!” कह तीनों मंच की ओर बढ़ गये थे। 

“मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रहा है!” जयालाल बोला।

“किसी का कुछ लूटा ही नहीं तो डर किस बात का?”. . . धनीराम महतो को अपने पर पूर्ण भरोसा था। डी सी साहब मंच पर विराजमान थे। बी डी ओ-सी ओ, पेंशन धारियों और राशनकार्ड वालों की शिकायतों का निपटारा करने में लगे हुए थे। लोग क़तारबद्ध एक-एक कर आगे बढ़ रहे थे। उन्हीं लोगों के बग़ल से वे तीनों मंच की ओर बढ़े थे। एक दूसरे को कोंचते-ठेलते हुए सा! जो लोग बेख़ौफ़! बेरोक-टोक और धड़ल्ले से मंत्री जी के घर में घुस जाते थे। आज डी सी के मंच पर चढ़ने से उनकी छाती धाड़ धाड़ बज रही थीं। यह होता है अफ़सर का रुत्बा! मंत्री जी का मंच होता तो यही तीनों अब तक कुर्सी खींच मंत्री जी से सटकर बैठने की आपाधापी करते नज़र आते। आज मंत्री जी नहीं है तो मंच पर चढ़ने से ही तीनों की हिचकी चढ़ गई थीं। 

मंच संचालक ने तीनों को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया तो झप-झप तीनों बैठ अपनी अपनी बेक़ाबू साँसों को शांत करने में लग गए थे। परन्तु शंकाओं ने उन्हें घेर लिया था। बैठे बैठे लालजी साहू ने कहा था, “सुबह से ही मेरी बायीं आँख बहुत फड़क रही है!”

उत्तर में धनीराम महतो ने कहा, “और मेरे बायें पैर में सुबह से ही खुजली हो रही है!”

“लगता है हम तीनों आज बुरे फँसे . . .!” जयालाल ने मुंडी झुका कर कहा था। 

जन सुनवाई के तुरंत बाद ही डी सी साहब माइक पकड़ लिये थे, “हेलो! आप सभी माता एवं बहनों को मेरा पुनः नमस्कार-पणाम! जनता दरबार के इस जन सुनवाई में आज जिन लोगों का काम हुआ उनसे बस इतना ही कहना है कि आप अपने माँगों और कामों को लेकर इसी तरह जागरूक रहें। और जिन लोगों का कुछ ख़ामियों की वजह से आज काम नहीं हो सका। वे निराश नहीं होयें। आपका काम भी सप्ताह दिन में हो जाएगा, मैं बी डी ओ, साहब को निर्देश देकर जा रहा हूँ। वृद्धा पेंशन, आवास, और राशनकार्ड के मामले में हम लापरवाही या धाँधली बरदाश्त नहीं करेंगे . . .!” डी सी साहब थोड़ा रुकते हुए बोले, “आप लोगों से आग्रह है दस मिनट तक शान्ति बनाए रखें, अभी आप लोगों को, आप ही के बीच के कुछ बड़े लोगों से मिलवाते हैं!” डी सी साहब ने बी डी ओ साहब को कुछ इशारा किये। बी डी ओ साहब हाथ में माला लेकर खड़े हो गए थे। 

“आप इनसे मिलिए! लालजी साहू जी से, आप इन्हें अच्छी तरह से जानते-पहचानते होंगे, आप ही के बीच पले बढ़े हैं—सामने आइए लालजी जी!” लालजी साहू को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आज उसके जीवन के साथ क्या हो रहा है? अवाक्! हैरान! किंकर्तव्यविमूढ़ स्तब्ध सा आगे बढ़ा था। ज्योंहि वह डी सी साहब के सामने आकर खड़ा हुआ। बी डी ओ साहब माला पहनाकर उसका स्वागत किया, तब डी सी साहब फिर बोले, “लालजी साहू का जीवन में इतना आगे बढ़ना, आज बड़े आदमी के रूप जाने जाना बड़ी बात है। और जब बड़े लोगों में गिनती होने लगे तो आदमी को छोटा काम ख़ुद छोड़ देना चाहिए, इसी में बड़प्पन है। अब मैं लालजी साहू जी से कहूँगा कि यह अपना राशनकार्ड सरकार को वापस कर दें!”

“लेकिन सर . . .” लालजी साहू कुछ कहना चाहा तो बीच में ही डी सी साहब ने टोक दिया, “मुझे मालूम है आपका राशनकार्ड आपके पास नहीं है, आपने अपना राशनकार्ड दुखिया तुरी को दे रखा है, बदले में दुखिया तुरी की पत्नी आपके घर के सारे काम कर देती है—आई एम राइट लालजी साहू जी!” 

लालजी साहू के मुँह से शब्द न निकल सका। 

अब बारी था धनीराम महतो का। उसे देख लग रहा था। जैसे उसका मन मंच से कूद जाने को कर रहा हो। तभी डी सी साहब बोल उठे, “मैं समझ सकता हूँ धनीराम महतो जी इस वक़्त क्या सोच रहे हैं! आप भी यहाँ पधारें!”

“नहीं सर मैं यहीं ठीक हूँ . . .!” 

लोग हँस पड़े। 

“धनीराम महतो जी का राशनकार्ड . . .!” 

इस बार धनीराम महतो बीच में बोल उठा, “सर! राज की बात राज ही रहने दीजिए न! मैं दस मिनट में राशनकार्ड लेकर आता हूँ!” इतना कह धनीराम महतो सचमुच मंच से कूद पड़ा था। 

इसी बीच जयालाल उठ खड़ा होता दिखा! 

“आप कहाँ चले जयालाल जी . . . रुकिए . . .?” 

“सर! आज आप हम सबों का कुण्डली बना कर आएँ हैं . . . जा रहा हूँ राशनकार्ड लाने!” 

इस बार सारे लोग ठहाका लगा हँस पड़े थे! 

डी सी साहब भी मुस्कुराये बिन रह न सके! 

सुखमुनी महतवाईन आज गद्‌गद्‌ थी। उसका पेंशन पास हो गया था! 

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