जन्मघुट्टी
श्यामल बिहारी महतो
शाम होते होते सगरो गाँव में ढिंढोरा सा पिट गया, “गोपला गणेशवा की बहू को ले भागा . . .!”
“सुना तुमने, भौजी देवरवा के साथ भाग गयी . . .!”
जिसने सुना, वही दोनों को गरियाते नज़र आये, “छिः छि: कैसन युग आ गया, बोड़ो-छोटो की कोई ख्याल नाय!” औरतों को ख़ुराक मिल गयी।
“आज के लौंडा-छौंडा से इससे बेहतर उम्मीद नहीं कर सकते हो!” बूढ़े कुढ़ने लगे।
“न रिश्तों की परवाह है न लाज लिहाज़!” हर किसी का मुँह बजने लगा था।
खिसियायी सुशीला देवी कपार पर हाथ धरे आँगन में बैठी अपनी तक़दीर को कोस रही थी।
वह गाँव के आदर्श आँगनबाड़ी केन्द्र में बच्चों को पढ़ाती थी। आदर्श का पाठ पढ़ाती थी। गाँव में लोग उसे मास्टरनी कहा करते थे। भारी-भरकम शरीर की मालिकिन सुशीला देवी को फाड़ देने से पैंतीस-पैंतीस की दो औरतें निकल आतीं। उसके छोटे बेटे ने ही उसके जीवन दो फाड़ कर दिया था। उसके बाद गाँव में जो दुर्गन्ध फैली! वो गूह-मुँह होने जैसा था।
सुशीला देवी बहुत ही संस्कारी महिला थी। प्यार दुलार के साथ उसकी माँ ने बचपन में ही उसे संस्कार की जन्मघुट्टी पिला दी थी। लेकिन वही जन्मघुट्टी सुशीला देवी अपने दोनों बेटों को पिलाने में नाकाम रही थी। अगर पिला पाती तो जीवन का ऐसा कचरापन उसे देखना नहीं पड़ता।
घर में क्या हो रहा है, कौन क्या कर रहा है, उसके पति भालचंद महतो का उससे कोई मतलब नहीं था। और न पत्नी से कोई मतलब था न उसके प्यार से कोई वास्ता था। न बेटों के भविष्य को लेकर उसके दिमाग़ में कोई योजना थी। न उन दोनों की पढ़ाई से भी उसका कोई सरोकार, कोई लेना-देना था। उनकी अनुपस्थिति में दोनों बेटे जैसे-तैसे बढ़ रहे थे, पढ़ रहे थे। और वह गोमिया प्रखण्ड में एक सरकारी कर्मचारी के रूप में पैसे पीट रहा था। एक बार प्यार की बात करने पर पत्नी को एडे़ मुक्के मार कर बुरी तरह घायल कर दिया था। उसके गुप्तांग को सूजा देख डॉक्टर मीरा जैन ने केवल इतना कहा था, “वह आदमी है कि कोई दरिंदा!”
उस दिन के बाद सुशीला देवी ने पति के साथ कोई समझौता नहीं किया और आँगनबाड़ी के प्रति लगी रही।
अब तक जी ज़िन्दगी में सुशीला देवी कभी सुकून के दो पल नहीं जी पाई थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि उसके जीवन में इतनी उठा-पटक क्यों है? बड़ा बेटा गणेश आँख चिपता हुआ पैदा हुआ था। वह हमेशा आँख चिपता रहता। शरीर बाप-सा काला और चूल भालू-सा। शक्ल से भी और अक़्ल से भी बाप जैसा। पैदा भी हुआ था विचित्र स्वभाव का। बचपन में तो प्रायः सभी बच्चे घिसिर-घिसिर कर चलते हैं। लेकिन गणेश पेट के बल पर चलता था। जहाँ बैठता उसी दिशा में लंबे समय तक टकटकी लगाये देखता रहता था। बोलता कम और खाता ज़्यादा। गोबर गणेश जैसा। ठीक उसके विपरीत सुशीला देवी का छोटा बेटा गोपाल पैदा हुआ था। पर यह भी शक्ल से बाप पर गया था। लेकिन अक़्ल उसने बाप से तेज़ पायी थी। बचपन में ही औरतों की साड़ियाँ खींचना जैसे पेट से ही सीख आया था। जब वह सात-आठ साल का था तभी उसने एक दिन साड़ी खींच कर माँ को ही नंगी कर दिया था। माँ को लगा था बेटा शरारत कर रहा है, लेकिन जब पूरी तरह नंगी हो गई, तो बेटे को ज़ोर का थप्पड़ मार दिया, “बाप जैसा बनेगा क्या तू?”
लेकिन यहाँ दोष गोपाल का कम, माँ-बाप का ज़्यादा था। दो दिन पहले भालचंद ने घर में क़दम रखते ही आँगन में बाल सँवार रही सुशीला देवी को पीछे से दबोच लिया और आगा-पीछा देखे बग़ैर सर्रर से साड़ी खीच कर पत्नी को नंगा कर दिया और उसी तरह उठा कर सीधे अंदर बिस्तर पर ले गया था। यह सब गोपाल ने अपनी चंचल आँखों से भरे-पूरे रूप में देखा। तब वह आँगन के एक कोने में बैठा लुडू खेल रहा था।
गोपाल बचपन से ही औरतों के साथ लुकाछिपी खेलना शुरू कर दिया था। नहाती हुई औरतों को दीवार के पीछे से छिपकर देखना, लघुशंका कर रही को टकटकी लगाये देखना, गोपाल ने पैदा होते ही जैसे सीख लिया था। पर सुशीला देवी को यह बच्चों का बचकाना से ज़्यादा कुछ नहीं लगता। “बच्चे बचपन में ऐसी शरारतें करते ही हैं!” किसी के उलाहने के जवाब में वह कहा करती थी।
उधर गोपाल जैसे-जैसे बड़ा होता गया, उसकी हरकतों के पाँव भी बड़े होते चले गये थे।
अब उसे जब मौक़ा मिलता, औरतों की जमात में घुस जाता और उनकी बातों को बड़ा ग़ौर से सुनता। कभी कभी औरतें उसे डाँट कर भगा देतीं, “चल भाग यहाँ से, हमारी बात क्या सुनता है, जनीमेहरा (चुपके चुपके औरतों की बात सुनने वाला) कहीं के!” वह उठ कर थोड़ी दूर जाता, फिर लौट आ चुपके से किसी के पीछे चिपक जाता। उसे देख मुझे अपने बचपन के दोस्त दौलत की याद रही थी। “पक्का जनीमेहरा है!” औरतों ने उसे उपाधि दे रखी थी। वह भी अक्सर औरतों की भीड़ में पाया जाता था। अब इस दुनिया में नहीं रहा।
इधर गणेश सोलह साल की उम्र में भी वैसा का वैसा ही था। शरीर से बड़ा हो गया था। लेकिन हुलकने का भाव-अंदाज़ वही था, बचपन वाला! बोर्ड परीक्षा में गाँधी डिवीज़न से उसने पास किया था—इसी साल। पर घर में किसी ने उसे बधाई तक नहीं दी। माँ ने कहीं से आधा किलो लड्डू लाकर दिए और कहा, “बाँट दो अपने दोस्तों के बीच, ताकि सबको पता चल जाए कि तू पास कर गया है!”
उसने वही किया। परन्तु यहाँ भी किसी दोस्त ने उसे बधाई नहीं थी। उसने बुरा नहीं माना। बाद में बकरीयों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा था। बकरियाँ चराना उसका नियमित का काम था।
दो साल बाद सुशीला देवी के दूसरे बेटे गोपाल ने बोर्ड परीक्षा लिखी। बाप के डिवीज़न मार्क से पास किया। बाप भालचंद सेकेंड होल्डर था। इस रिज़ल्ट के बाद गोपाल का एक और रिज़ल्ट सामने आया—लड़की अगुआ का!
बिमला कुमारी पड़ोस गाँव की थी। नावाडीह हाई स्कूल में नवमी की छात्रा थी। हर दिन पैदल स्कूल आती जाती थी। सुनसान तेतरिया मोड़ में एक दिन गोपाल ने उसे उठा लिया। सोचा था यह भी मान जायेगी, जैसे पहले की दो लड़कियाँ मोबाइल रिचार्ज के पैसे लेकर मान गयी थीं। लेकिन बिमला नहीं मानी, उसने बवाल मचा दिया। पड़ोसी गाँव में ख़ूब हल्ला मचा। लड़कों ने गोपाल को ख़ूब दौड़ाया। दस बजे रात वह पकड़ में आया। दोनों गाँव के बीच चबूतरे पर पंचायत बैठी। गोपाल का बाप भालू की तरह पंचायत में आकर खड़ा हो गया। जहाँ गोपाल की माँ सुशीला देवी ने पंचायत में अपनी बात रखी, “मैं लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हूँ!”
लड़की के बाप ने एतराज़ किया। कहा, “मेरी लड़की अभी नाबालिग है, और फिर इस म्लेछ से! कौन अपनी बेटी का ब्याह दे। इसे पुलिस के हवाले कर देना चाहिए ताकि फिर यह गंदी हरकत न करे!”
इसके बाद बड़ी देर तक पंचायत शोर-गुल में डूबी रही। उसी बीच मुखिया ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “हम किसी के भविष्य को बर्बाद करना नहीं चाहते हैं, इसकी पहली ग़लती समझ माफ़ किया जा सकता है। लेकिन फिर दुबारा ऐसा हुआ तो सीधे पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा . . .”
सुशीला देवी को समझ में आ चुका था; छोटा बेटा बुरी तरह बिगड़ चुका है। उसे सुधारना उसके बस की बात नहीं है। तभी उसका ध्यान बड़े बेटे गणेश की ओर गया। वह इक्कीस साल का हो चुका था। एक दिन उसने गणेश से कहा, “मैं तुम्हारी शादी कर देना चाहती हूँ!”
गणेश बहुत कम बोलता था। तब भी उसने कम ही बोला, “कर दो, तुम्हारे कामों में मदद कर देगी!”
पर गणेश की शादी, सुशीला देवी के जीवन में बड़ी ही बुरी और गुड़ गोबर करने वाली साबित हुई!
“मास्टरनी, मरते दम तक इसे भूला नहीं पायेगी।” ऐसा लोगों का मानना था। और इसका कारण बना कौन, वही कपूत बेटा गोपाल!
आषाढ़ मधे गणेश की शादी पड़ोसी गाँव के दिनबंधु महतो की बेटी सुमित्रा कुमारी के साथ समाजिक रीति-रिवाज़ से कर दी गई। इस शादी से सुमित्रा ख़ुश नहीं थी। उसे गणेश पसंद नहीं था।
“बिना तिलक दहेज़ के आज कल कौन लड़का शादी करता है . . .? बोलो!” माँ बाप ने समझाया।
इस तरह माँ बाप के दबाव के आगे उसे झुकना पड़ा था। सुमित्रा थोड़ी चंचल स्वभाव की तो थी ही, आज़ाद ख़्याल की भी थी। चटर-पटर खाने और अच्छे कपड़े पहनने का शौक़ भी रखती थी। लेकिन अभाव ने उसके हाथ-पैर बाँध रखे थे। शादी होते ही उनकी दबी अकाक्षांओं ने ज़ोर मारना शुरू कर दिया था। हर दिन पति के सामने नयी नयी फ़रमाइश करने लगी। गणेश कुछ ला देता, कुछ नहीं ला पाता। सुमित्रा उलाहना देने लगती, “कैसन मरद हो, आपन पत्नी की इच्छा पूरी नहीं कर पाते हो . . .?” और रूठ जाती थी। गणेश उसको उसी हाल में छोड़ बकरियों को लिए जंगल की ओर निकल जाता। तब यही गोपाल भाभी की बाक़ी इच्छाओं को लाकर पूरी कर देता और कहता, “लाकर तो दे रहा हूँ। पर देवर हूँ, पति मत समझ लेना!”
“लाकर दे तो रहे हो, पर भाभी हूँ, पत्नी मत समझ लेना!” सुमित्रा हँस कर जवाब देती।
इस तरह की बातें उस घर की दीवारों से हर दिन टकराने लगी थीं। जो सुमित्रा इस शादी से नाराज़ थी। वही गोपाल का सान्निध्य पाकर सूर्यमुखी लगने लगी थी। वक़्त दबे पाँव आगे बढ़ता रहा। देवर भाभी की युगल जोड़ी से घर का कोना-कोना खिलखिलाने लगा। सुमित्रा भूल चुकी थी कि गोपाल उसका मरद नहीं बल्कि देवर है। हर वक़्त उसी के बारे सोचती रहती थी। सुशीला देवी को अच्छा भी लगता और नहीं भी लगता, “देवर भाभी में इतना सब कुछ तो होता है!” वह सोचती थी।
सुमित्रा करम-परब में नैहर गयी थी। दस दिन रही। सुशीला देवी ने गणेश को उसे लाने भेजा। सुमित्रा ने आने से मना कर दी। गणेश लौट आया। उल्टे सुमित्रा ने गोपाल को अपने पास बुला लिया। गोपाल पंद्रह दिन सुमित्रा के साथ रहा। सोलहवें दिन गोपाल के साथ ससुराल चली आई। परन्तु रात को वह गणेश के कमरे में जाने की बजाय गोपाल के कमरे में घुस गयी और अंदर से हुडकी (कुण्डी) लगा दी। सुबह सुशीला देवी ने उसे बहुत खरी खोटी सुनाई, “तुम्हारा मरद गोपाल नहीं गणेश है, यह लछन ठीक नहीं है, लोग सुनेंगे तो थूकेंगे तुम पर। मरद बदनाम नहीं होता, औरतें होती हैं!” और वह अपने आँगनबाड़ी चली गई।
शाम को सुशीला देवी लौटी तो, घर में न सुमित्रा मिली और न गोपाल मिला। आँगन में गणेश माटी की मूरत की भाँति एक कोने में लुटे-पिटे हालत में बैठा हुआ था। उसकी सुदामा हालत देख सुशीला देवी को उस पर बड़ा क्रोध आया। आगे बढ़कर उसने उसकी गाल पर एक ज़ोरदार चाँटा जड़ दिया। कहा, “तुम्हारी औरत किसी दूसरे मरद के साथ भाग गयी और तुम यहाँ माटी का लौंदा बना बैठा है। उसके हाथ-पैर नहीं तोड़ सका!”
उधर गोपाल का फोन लगातार “स्विच ऑफ़“ आ रहा था।
सुशीला देवी आँगन में ही बड़बड़ाते हुए चक्कर काटने लगी, “वाह रे बेटे! बाप ने आख़िर तुमको अपनी जन्मघुट्टी पिला ही दी!”