पीए का पासवर्ड
श्यामल बिहारी महतो
पार्सल ब्वॉय मेरे घर के बाहर खड़े होकर मुझे बार-बार फोन कर रहा था, “सर, आप कहाँ हैं, मैं आपके घर के बाहर खड़ा हूँ। आपके नाम से पार्सल है!”
“पाँच मिनट रुको, रास्ते में हूँ, आ रहा हूँ . . .” मैंने जल्दी से फोन काटा और जल्दी-मल्दी ऑफ़िस बंद कर सीधे पहाड़ी रास्ता पकड़ लिया था। एक समय यह रास्ता बहुत सीधा और सुगम हुआ करता था। अब दुर्गम हो चुका था और सिर्फ़ कोयला चोरों के लिए रह गया था। आम आदमी इस रास्ते से लगभग कट चुके थे, आने जाने से भी नहीं कतराने लगे थे, कहिये तो अलग हो गये थे। इक्का-दुक्का पैदल लोग कभी-कभार चलते हुए नज़र आ जाते थे। कच्चा रास्ता होने से बरसात में जगह-जगह गढ़े और जल जमाव से लोग गिर कर भी चोटिल हो जा रहे थे । पर कोयला चोरों के लिए यह मनमाफ़िक बन गया था। कारण पुलिस और सीआईएसएफ ने इधर आना बंद कर दिया था। बहुत दिनों बाद मैं उसी रास्ते पर निकल पड़ा था।
माँ की स्मृति में पिछले साल मैंने एक लाइब्रेरी की स्थापना की थी ‘जमुना महतवाइन लाइब्रेरी!’ मक़सद था, गाँव के भटके, ताश फेंटते, सिगरेट फूँकते और शराब के तालाब में तैरते युवाओं में पुस्तक प्रेम को जगाना जो इतना आसान भी नहीं था। पर मैंने ठान लिया था, न करने की जगह समाज-सोसाइटी के लिए कुछ करते रहना है, पढ़ने वाले लाइब्रेरी में क़दम रखें तो स्वागत, न रखें तब भी स्वागत। उसी सिलसिले में हिन्दी के महान लेखकों-कवियों की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों का आनलाइन ऑर्डर किया हुआ था। जिनमें, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय, गोदान, कुरुक्षेत्र, मधुशाला, वैशाली की नगरवधू और शेखर एक जीवनी जैसी कृतियाँ शामिल थीं ।
अभी मैंने पहाड़ी वाले रास्ते पर चढ़ना शुरू किया ही था कि अचानक मुझे बाइक किनारे कर रोक देनी पड़ी। सामने से लगभग नाचती और पहाड़ी ढलान पर उछलती हुई एक स्कार्पियो को उतरते देखा, तत्काल दो संभावनाएँ लगीं मुझे, पहला-स्कार्पियो की ब्रेक फ़ेल हो चुकी है, रास्ते से हट जाना बेहतर है और दूसरा-चालक बेहद नशे में है और उन पर गड्ढों का कोई असर नहीं हो रहा है। इन दोनों ही स्थितियों में मेरे लिए ख़तरा था। बड़ी फ़ुर्ती से बाइक घसीट कर किनारे कर ली और साँस रोके दूर खड़ा हो गया था। इतने में स्कार्पियो चीखती हुई लगभग मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। हाथ से इशारा कर चालक ने मूँड़ी बाहर निकाल कर पूछा, “यह रास्ता तारमी ऑफ़िस चला जाएगा न . . .?”
“चला जाता, लेकिन आगे बैरियर लगा हुआ है—नहीं जायेगा,” मैंने साँस छोड़ी थी।
“लेकिन रास्ता तो यही बतलाया गया!” पिछली सीट पर बैठे एक दूसरे आदमी ने अबकी मूँड़ी बाहर निकाली थी। महँगा चश्मा और क़ीमती कपड़े! पहनावे से वो कोई बड़े पद वाला मालूम जान पड़ता था।
“किसने यह बताया . . .?” मैंने पूछा था।
जवाब चालक ने दिया, “गूगल मेप में यही रास्ता दिखाई दे रहा है . . .”
“रास्ते में कोई आदमी नहीं मिला था . . .?”
“मिले तो थे दो आदमी, किन्तु पूछा नहीं!”
“मतलब बाप से ज़्यादा पड़ोसी पर भरोसा!”
“मैं कह रहा था—पूछ लो, लेकिन पूछा नहीं!”यह तीसरा आदमी था।
“यह रास्ता बिलकुल बंद हो चुका है। आगे नहीं जा सकते हैं। आप लोगों को जाना कहाँ है . . .?”
“तारमी ऑफ़िस!” सूट बूट वाले साहब ने कहा।
“इस समय ऑफ़िस में तो कोई नहीं मिलेगा। ऑफ़िस बंद हो चुका है!”
“आपको कैसे पता . . .?”
“मैं उसी ऑफ़िस में काम करता हूँ!”
“तब तो काम हो गया!” चालक चहकते हुए सुर में बोला था।
“क्या मतलब . . .?” मैंने चौंकते हुआ पूछा।
इस बीच वे दोनों गाड़ी से बाहर निकल आये थे। चालक अपनी सीट पर बैठा रहा।
सूट बूट वाले साहब ने कहा, “दरअसल हम लोग रामगढ़ एसबीआई बैंक से आये हैं। तारमी प्रोजेक्ट ऑफ़िसर को एक पत्र देना है!”
“कैसा पत्र . . .?”
“लोन संबधी पत्र हनीफ मियाँ का।!”
“हनीफ मियाँ का . . .?”
“क्यों, वो इस कोलियरी का इम्पलोई नहीं है क्या?”
“था, पर अब नहीं है . . .”
“जानता हूँ वो मर चुका है . . .” दूसरा वाला कुछ ज़्यादा ही प्याज़ खा रहा था।
“इस वक़्त ऑफ़िस में कोई नहीं मिलेगा। ताला बंद हो चुका है।”
“पत्र आप रख लेते, कल प्रोजेक्ट ऑफ़िसर को दे देते तो बड़ी मेहरबानी होती,” सूट बूट वाले ने फिर मुँह फाड़ा।
“इस तरह रास्ते में पोस्टमेन भी पत्रों का लेन देन नहीं करता है। माफ़ करना मैं कोई पोस्टमेन भी नहीं हूँ!”
“बड़ा उपकार होगा!” सूट बूट वाले साहब ने इस बार हाथ जोड़ लिए, “हम लोग हनीफ मियाँ के घर गए थे इस कारण देर हो गई। उसने हमारे बैंक से सात लाख का होम लोन लिया था। उसी से संबंधित यह चिट्ठी है . . .!”
“आपने भी पचास हज़ार लिये होंगे . . .?”
“आप कहना क्या चाहते है . . .?” सूट बूट वाला साहब तिलमिला उठे। उनके अहम को चोट लगी, पर यह उनका बैंक नहीं था। जहाँ ऐसे सवालों पर ‘शटअप एंड गेट आउट’ कहने की आदत होती है इन लोगों की। यहाँ वे आउट ऑफ़ बैंक थे। और बकैती करने का टाइम नहीं था। चूरन लगाते हुए मैंने कहा, “कुछ नहीं, यूँ ही बोल दिया। पर है कमाल की बात! मेरी जानकारी में इस क्षेत्र में ऐसा कोई बैंक नहीं है जहाँ से इस आदमी ने लोन नहीं लिया था फिर भी आपने बिना छानबीन किये, लोन दे दिया? बड़े हैरानी की बात है। न?”
“आप चिट्ठी रख लीजिए न, इतना बोलने की क्या आवश्यकता है . . .?” दूसरा वाला पुनः आगे बढ़ा था।
“चिट्ठी मैं क्यों रख लूँ? यह आफिशीयली चिट्ठी है कोई प्रेम पत्र नहीं! मरने से दो साल पहले इस आदमी ने अपना ट्रांसफ़र कल्याणी प्रोजेक्ट में करवा लिया था। यह भी शायद आप लोगों को मालूम नहीं होगा। ख़ैर यह चिट्ठी तारमी प्रोजेक्ट ऑफ़िसर को नहीं कल्याणी प्रोजेक्ट ऑफ़िसर को जायेगा!”
“यह कहाँ है . . .?”
“गूगल से पूछिये!”
“प्लीज़ हेल्प मी!” सूट बूट वाले साहब की सिटी पिटी गुम, “कृपया बता दीजिये कहाँ है और किधर से जाना है?”
एक समय था जब किसी मज़दूर को बैंक से लोन लेना होता तो बैंक पहले उससे प्रबंधन का अनुमति पत्र माँगता तब उसका लोन पास होता था अब तो मैनेजर सीधे रिश्वत माँगता है और लोन पास कर देता है। इसके चलते प्रबंधन पर अब रक़म वसूली के लिए बैंक कोई दबाव नहीं डाल पाता है। मज़दूर जाने और बैंक वाले।
ऊपर से बैंक वालों की कारगुज़ारियाँ और बैंकों में परेशान हो रहे ग्राहकों के मुखड़ों को आप याद कीजिये और फिर उनकी रोनी सूरत को। हस्ताक्षरों में मामूली अंतर से सीधे चेक रिजेक्ट करने वाले कैशियर और मैनेजर पर ज़रा भी दया भाव नहीं आयेगा आपके दिल में। फिर मुझे कैसे आता?
अकस्मात् मुझे सीटी ब्राँच मैनेजर की करतूत याद आ गयी।
आज के युवाओं का पहला सपना होता है ख़ुद को शहर में एडजस्ट करना। शहरी रहन-सहन का हिस्सा बनना। जहाँ वो अपने मन के पंख अनुरूप उड़ान भर सकें। मनमाफ़िक ज़िन्दगी जी सकें। मेरे बेटे ने भी कुछ ऐसा ही सोचा होगा। मेरे लिए तो गाँव ही बेहतर था और आगे भी रहेगा। लेकिन बेटे के सपने का बाधक भी नहीं बनना था।
जब उसने एक दिन कहा, “बाबूजी, मन करता है शहर में भी एक घर हो अपना तो शहर की ज़िन्दगी को नज़दीक से जानने समझने में सहूलियत होगी, जीवन में आगे बढ़ने के लिए यह बहुत ज़रूरी है!”
बेटे का भाव को हमने समझा और हामी भर दी थी।
तभी हमने होम लोन के लिए सिटी बैंक में अप्लाई किया था।
इसके पूर्व देश के एक नामी रियल एस्टेट कंपनी से हमने संपर्क किया। उसने पहले फ़्लैट बुकिंग कराने की सलाह दी थी तब हमने उस कंपनी में टू बीएचके की एक फ़्लैट बुकिंग कराई। बुकिंग एमाऊंट जमा करने के सप्ताह दिन बाद पहले ज़मीन का निबंधन हुआ। तब कंपनी मैनेजर ने मुझसे बैंक लोन का सुझाव दिया था और कहा था “आप सरकारी जॉब में हैं टेक्स पे पर रिबेट मिलेगा!”
प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा था पर जब हम बैंक पहुँचे तो मैनेजर ने मुँह फाड़ दिया था, “लोन तो पास हो जायेगा, पर इसके लिए पचास हज़ार देने पड़ेंगे!”
“क्यों पचास हज़ार दूँ? मैंने होम लोन के लिए अप्लाई किया है कोई दारू धंधा के लिए नहीं!”
“फिर तो लोन भूल जाइए!”
उस दिन से बैंक वालों से मैं सीधे मुँह बात नहीं करता और न बैंक का कोई पत्र हाथों हाथ लेता हूँ। बाद में हमने उसी शहर में घर बनाया-हाथों हाथ पैसे ख़र्च कर!
“कहाँ खो गए?” सूट बूट वाले साहब व्याकुल नज़र आये।
“जी, कहीं नहीं, आप ही लोगों के बारे में सोच रहा था, बैंक वाले कितने अच्छे होते हैं! ऐसा कीजिये आप लोग जिस रास्ते आये हैं, उसी से वापस जाइए, दस किलोमीटर बाद चपरी मोड़ आयेगा। फिर वहाँ से आठ किलोमीटर बाद फुसरो आयेगा । फुसरो से सीधे चन्द्रपुरा रोड पकड़ लेनी है। बारह किलोमीटर बाद सड़क से सटा दायीं ओर कल्याणी प्रोजेक्ट मिल जायेगा। न मिले तो वहाँ किसी से पूछ लीजियेगा!” कह मैं मूत्र विसर्जन करने लगा।
बैंक वालों को यह पता नहीं था कि तारमी और कल्याणी दोनों का प्रोजेक्ट ऑफ़िसर एक ही है। और मैं उनका शातिर पीए हूँ। परन्तु पीता नहीं हूँ!