भूलते रिश्तों की चीख

15-09-2022

भूलते रिश्तों की चीख

श्यामल बिहारी महतो (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

घर में शादी का माहौल था। आँगन में लगन बँधाने की रस्म की तैयारी चल रही थी। तीन दिन बाद सरला की शादी थी। लड़का, सीआरपीएफ़ का जवान था। दो माह पहले ही ज्वाइनिंग हुई है। शादी के बाद उसे सीधे ट्रेनिंग में शामिल होना था। नौकरी वाला दामाद मिलने से घर में सभी ख़ुश थे। घर आँगन में हँसी-ख़ुशी का माहौल था। परन्तु सरला की फूफी मीरा देवी बेहद नाराज़ दिख रही थी। जब से आई थी ठीक मुँह किसी से बात नहीं कर रही थी। मेहमान वाले घर में अब भी अकेली बैठी कहीं खोई हुई सी थी। दूर के रिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था। सभी के चेहरों में ख़ुशी के रंग चढ़े हुए थे। सरला की माँ रेणुका देवी का ठाठ देखते ही बनता था। तभी आँगन से रेणुका देवी की आवाज़ सुनाई पड़ी‌। अपनी दूसरी बेटी सारिका, जो ‘कार्मल स्कूल में क्लास सेवन’ में पढ़ रही थी, से कह रही थी, “देखो फूफी कहाँ बैठी है, बुला लाओ! चोक पुराई करनी है!” 

सारिका सरपट मेहमान वाले घर में दौड़ गई पर उल्टे पाँव भाग आई और माँ के आगे रोने लगी। उसकी कानों में अब भी फूफी मीरा देवी की फटकार गूँज रही थी, “क्या बुआ आंटी-बुआ आंटी लगा रखी है। चल भाग यहाँ से . . .!” 

माँ ने पूछा, “क्या हुआ किसी ने कुछ कहा क्या?” 

“हाँ मैंने कहा . . .!” फूफी ने आँगन में क़दम रखा। 

“क्या हुआ दीदी! किसी ने कुछ कहा है क्या? देख रही हूँ आप जब से आई है। ख़ुश नहीं है।” 

“बेटीयों को क्या पढ़ा रही है? जब संस्कार ही नहीं बचेगा तो रिश्ते और रिश्तेदार कैसे बचेंगे?” 

“हम कुछ समझे नहीं! आप कहना क्या चाहती हैं दीदी? हमसे कोई ग़लती हुई हो तो आप बड़ी हैं, समझा सकती हैं और डाँट भी सकती हैं पर ऐसे मौक़े पर . . .!”

“यही तो . . . यही तो! आज के बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है? शहर में पढ़ने लगी तो बड़े–छोटे की पहचान भूल जाओ। गाँव समाज के संस्कार भूल जाओ। दादा-दीदी, काका-काकी कहने में शर्म आने लगे तो वैसे स्कूल की पढ़ाई से अच्छी है गाँव के स्कूल की पढ़ाई। यहाँ ऐसी आंटी घंटी की पढ़ाई पर ज़ोर तो नहीं दिया जाता है। देखो तो भला . . . फूफा-फूफी कह बुलाना शर्म लगता है! उसे सीधे मौसी बुलाना तौहीन लगता है। उसे सीधे मामी कह बुलाना गँवारपन लगता है। 

"जिसे देख वही, ‘बुआ आंटी, मौसी आंटी-मामी आंटी!’ यह सब क्या है? आज फूफी बुलाने में शर्म आ रही है। कल फूफी को घर बुलाने में शर्म आने लगेगी। 

“कल ही की बात है, रघुवीर काका का बेटा बोकारो सीटी कॉलेज में पढ़ता है। घर आये अपने फूफा को फूफा न कहकर ‘अंकल-अंकल’ कह दो बार पुकारा। फूफा ने कोई जवाब नहीं दिया। यह देख उसकी माँ झाड़ू लेकर निकली और बेटे की ओर लपकी ‘नालायक़, बहुत पढ़ लिया! फूफा कहने में शर्म आती है।’ और एक झाड़ू लगा दी।”

“बस करो दीदी! बच्ची की जान लेगी क्या! सारिका फूफी का पाँव छूकर माफ़ी माँगो और आइंदा कभी बुआ आंटी नहीं सीधे फूफी बुलाएगी . . . जाओ!”

“माफ़ करो फूफी! आगे से ऐसी ग़लती नहीं करूँगी!” और सारिका ने सचमुच कान पकड़ लिए। यह देख सब ठहाका लगा हँस पड़े! 

“आओ दीदी . . . चोक पुराई . . .!”

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