बहू भात

15-05-2024

बहू भात

श्यामल बिहारी महतो (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

फूफा फूलचंद की फुफकार और ललकार से ही गजोधर बाबू की इज़्ज़त-आबरू बची! राहत मिली थी! वरना आज तो गोतिया भाइयों ने भरी समाज में उसकी दो गज धोती खोलवाने का पूरा पूरा इंतज़ाम कर रखा था। मतलब कि धोती-खूलन से बाल-बाल बच गया था गजोधर बाबू . . .! 

निर्धारित समय पर हम शाम को ‘बहू भात’ पार्टी में पहुँच गए थे। उसके पहले ही गजोधर के घर में हंगामा शुरू हो गया था और अब भी यहाँ मछली बाज़ार-सा माहौल बना हुआ था। शान्ति पूर्वक ‘बहू भात’ पार्टी सम्पन्न कराने के गजोधर बाबू के सारे किए कराए तैयारी पर उनके गोतिया भाइयों ने ‘माँड़ बहाने’ की तैयारी कर रखी थी . . .! 

शादी कल ही सम्पन्न हो चुकी थी। घर में बहू भी आ चुकी थी। इसी ख़ुशी में आज गजोधर ने ‘बहू भात’ पार्टी का आयोजन किया था। उसके सारे हित-मित्र आ रहे थे। 

हम भी सपरिवार आमंत्रित थे ‘शाम सात बजे से आपके आने तक’ शादी कार्ड में उल्लेख था। सुबह से ही घर में सभी ने जाने का मन बना लिया था। दोनों बच्चे कुछ ज़्यादा ही उत्साहित थे। अलबत्ता पत्नी का मूड बच्चों से मेल नहीं खा रहा था। बूफ़े पार्टी में कभी गई नहीं थी। सो उसके मन में कई सवाल थे। और मेरे पास उसके किसी सवाल का जवाब नहीं था। 

मैं ऑफ़िस के लिए निकल रहा था कि तभी सामने आकर पत्नी ने सवाल दाग दिया, “यह बूफ़े सिस्टम कैसा होता है? सुनकर ही दोनों बच्चे बहुत ख़ुश हैं और जाने के लिए अभी से ही ऊधम मचा रहे हैं!”

पहले तो प्यार से मैंने पत्नी के कंधे पर हाथ रखा और दुलार से कहा, “देखो, बताने से तुम नहीं समझ पाओगी, मैं भी इस तरह के खान-पान में आज तक शामिल नहीं हुआ हूँ। हाँ, सुना ज़रूर हूँ। देखते हैं न, कैसा होता है, शाम को सब तैयार रहना . . .!” कहता हुआ मैं घर से निकल पड़ा था। 

रास्ते में मुझे पुराने दिन याद आ गये। आपको भी याद होगा। आज से दस बारह साल पहले विवाह-भोज में लोग ज़मीन पर पाँत लगा कर एक साथ बैठकर सखुआ पत्तल पर मज़े से भोजन करते थे। मज़े की बात तो यह होती थी कि जब तक पूरी पाँत के पत्तरों पर खाना पूरा-पूरा परोसा नहीं जाता था, पूड़ी का एक टुकड़ा या भात का एक कौर भी कोई मुँह में नहीं डालते थे।

“हाँ शुरू किया जाए . . .?” कोई कहता।

“हाँ, हाँ शुरू किया जाए . . .!” इस तरह के जवाब के साथ लोग खाना शुरू करते थे। लोग भर पेट खाते फिर, “उठा जाए, हाथ धोया जाए . . .कि और किसी को कुछ लेना है?” उठने से पहले फिर कोई पूछता था। 

“नहीं। नहीं। हो गया . . .!” पाँत के बीच से ही कोई जवाब देता। 

“हाँ, हाँ, उठा जाए, एक एक करके धोया जाए . . .!” यह खाने के बाद का सामूहिक स्वर होता था। कैसा अपनापन कैसा भाई-चारा हुआ करता था तब! भाई-चारे की डोर से सब एक दूसरे से बँधे होते थे। खाने में किसी चीज़ की कोई कमी होती तो कोई शिकवा-शिकायत नहीं, “अरे नहीं जुटा पाया होगा!” कहते हुए लोग निकल लेते! राग-रूस नहीं करते थे! लोग खाते कम परन्तु भाई-चारे की पूड़ियों से सबका पेट भरा रहता था . . .! 

इसी के साथ मुझे दोस्त रमेश की बात भी याद आ गई। वह अपने एक दोस्त के घर की बहू भात (बूफ़े पार्टी) की आपबीती सुनाते हुए एक दिन कह रहा था, “आज कल खाने में कितनी भी वेराइटी बढ़वा दो, लेकिन लोगों को खोट निकालने में जरा भी देर नहीं लगता, ‘क्या बोलूँ यार, खाने का अरेंजमेंट ख़ूब किया था पर मीट ठीक-से गला नहीं था, दाँत से खींचना पड़ता था—शायद बूढ़ा खस्सी था . . .!’ 

“एक बोला, ‘मैंने केटरर्स से बोला दो पीस और डाल दो—डाला नहीं, शायद उसे बोल रखा गया हो—दो से ज़्यादा देना नहीं!’ अब इतना दूर से सिर्फ़ दो पीस मीट खाने आएँ!’

“दूसरा बोला. ‘क्या कहूँ यार! मेरा तो मन ही खिन्न हो उठा!’

‘क्यों, क्या हो गया . . .?’ 

‘वो रतन लाल, प्लेट लेकर मेरे सामने ही आकर खाने लगा था। पीछे से किसी ने उसे धक्का दे दिया, उसके प्लेट का सारा खाना छलक आकर मेरे शर्ट पर गिर गया—देखो! खड़े होकर खाना मतलब ऊँट की तरह खाना है। स्याला गुस्सा तो इतना आया कि मन किया अपना प्लेट रतन पर फेंक दूँ। परन्तु मन मार कर रह जाना पड़ा। उसका क्या दोष?—दोष इस तरह के आर्गनाइज का है! सवारी गाड़ी में जैसे सब ठूँसा-ठूँसी होते है, एक दूसरे पर सवार होने के लिए, उसी तरह यह बूफे सिस्टम है—पहले प्लेट हथियाओ फिर खाने के लिए लाइन में खड़े हो जाओ—सिनेमा के टिकट लेने जैसा, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाओ, पेट में खाना जाने से पहले भीखमंगों सी फिलिंग आ जाती है। मैं जल्दी से जाकर पानी से शर्ट को धोया पर दाग पूरी तरह गया नहीं—क्लीनर में देना होगा—स्याले बूफे की ऐसी तैसी!’ तीसरे की थोथी . . .!” 

ऑफ़िस में काम ज़्यादा कुछ था नहीं। एक सालाना माँग पत्र बनाया और घर वापस आ गया था। बच्चे जाने को तैयार थे। मैं फ़्रेश हुआ। कपड़े बदले और शाम को सपरिवार निकल पड़े थे। 

उधर जैसे ही रसोईए ने गजोधर बाबू को सूचना दी “खाना तैयार है”। वैसे ही गजोधर बाबू गोतिया भाइयों को बुलाने सीधे उनके घर जा पहुँचा था। गोतिया भाइयों ने उसे हाथों-हाथ लिया जैसे इसी घड़ी के इंतज़ार में अपने-अपने घरों के बाहर वे सभी बैठे हुए थे। जहाँ एक-एक करके सबने गजोधर बाबू को लताड़ना शुरू कर दिया। शुरूआत उसके बड़का जेठा ने खैनी थूक कर की, “गजोधर बाबू, हमें मालूम है, तुम बड़का आदमी बन गया है, शानदार मकान भी बना लिया है, चार चक्का वाला गाड़ी भी खरीद लिया है, बोड-बोड लोगों के संग तुम्हरा उठना-बैठना होता है, बड़ी बड़ी पार्टियों में खाने जाता है, नित-नोतन चीज देखता-सुनता है, हम तो कुआँ के बेंग (मेंढक) ठहरे!” जेठा ने बचा खुचा खैनी थूका और फिर चालू हो गया, “लेकिन सुन लो गजोधर बाबू, हम कुँए के बेंग जरूर हैं लेकिन भीखमंगा नहीं है और न हम तुम्हरा घर जाकर हाथ में पलेट लेकर खाने के लिए भीख माँगते, ‘दो भाई, दो भाई!’ कहते फिरेंगे, जाओ घर जाओ और घर आये अपने मेहमानों को खिलाओ जैसे वो तुम्हें खिलाते हैं . . .!”

“हम छोटे आदमी ज़रूर है लेकिन अपनी मान मर्यादा हमें मालूम है . . .” मंझिला जेठा ने जोड़ा था, “सिर्फ़ अधिक पैसा कमा लेने से कोई बड़का आदमी नहीं बन जाता, गुण-संस्कार पैसों से नहीं कमाया जा सकता है, वह तो अपनी बिरादरी, अपने समाज में बैठने-उठने से मुफ़्त मिल जाता है। लेकिन तुम तो समाज को छोड़ चुका है। अपनी लोक-लोकाचारी भूल चुका है, बड़ा आदमी बन चुका है।” 

“चार पैसा कमा क्या लिया, चला है हमें बाहरी तड़क-भड़क दिखाने-सिखाने, बाप-दादाओं, आजा-पुरखों की संस्कृति को भूलाने वाले को गोतिया बिरादरी से बाहर निकालो . . .” बहुत कम बोलने वाले बड़का जेठा का बड़ा बेटा रघुनाथ का ग़ुस्सा एक दम चरम पर पहुँच गया था। 

गजोधर बाबू! काटो तो ख़ून नहीं वाली स्थिति में घिर चुका था। उसकी इच्छा, उसके सपने, समाज में बदलाव वाली उसकी सोच को जैसे लकवा मार दिया था। मुँह से बोल नहीं निकल पा रहा था। हकाबका कभी बड़का जेठा को देखता तो कभी उसके बड़े बेटे को जिसने अभी अभी एक चेतावनी दे डाली थी, “निकाल इसे गोतिया बिरादरी से, बूफ़े सिस्टम से बहू भात का आयोजन करेंगे—किसी से पूछा—नहीं पूछा न, अभी आया है अपनी हेकड़ी दिखाने—खाना खिलाने नहीं . . .!” 

शोर और भीड़ पंडाल से निकल कर गली में आ गयी थी। खाना शुरू होने के पहले गोतिया बिरादरी ने बंद का नोटिस लगा दिया था। गोतिया भाइयों के बीच गजोधर गूँगा बन चुका था। तभी उसके फूफा फूलचंद महतो पहुँचा था वहाँ पर। आगे बढ़ कर गजोधर बाबू ने फूफा का पैर छूकर प्रणाम किया, “गोड लागी फूफा . . .” 

“सदा खुश रहो भतीज . . .” फूलचंद ने गजोधर बाबू के सर पे हाथ रखा फिर बोला, “अरे भाई, सारे लोग यहाँ इकट्ठा हो गये हैं, वहाँ पूरा का पूरा पंडाल खाली है। खिलाने वाले खाली हाथ पकड़े खड़े, आखिर माजरा क्या . . . गजोधर बाबू?” फूलचंद फूल स्पीड से सीधे पंडाल से भागे चले आ रहे थे। 

“हाथ में प्लेट लेकर भीख माँग कर खड़े-खड़े खाना होगा . . . फूफा!” रघुनाथ ग़ुस्से में ही बखेड़े का कारण बताना चाहा था। 

“मतलब नहीं समझा मैं . . .?” फूलचंद ने गजोधर बाबू की तरफ़ देखा। 

गजोधर बाबू मुँह खोलता उसके पहले मंझिला जेठा ने कहना शुरू कर दिया, “मतलब साफ है बहनोई, हम सबने फैसला किया है बूफे सिस्टम के तहत हाथ में प्लेट लेकर भीख माँगते हुए हम खाना नहीं खाएँगे। गजोधर बाबू ने बूफे सिस्टम आयोजन कर रखा है वो हमें मंजूर नहीं है। जमीन पर बैठ कर पाँत लगाकर आज तक खाते आये हैं, वैसे ही खाएँगे!” 

“खाना कब शुरू होगा बाबू जी, जोरों की भूख लगी है!” बेटी पिंकी को भूख बरदाश्त नहीं हो रही थी। 

शोरगुल से पत्नी भी परेशान होने लगी थी। मामला भी शांत नहीं हो रहा था। आकर बिना खाए लौट जाना भी ठीक नहीं था। आकर बुरे फँसे थे हम। हम क्या, ढेरों लोग खाने के इंतज़ार में पंडाल के भीतर इधर-उधर टहल रहे थे। 

“अच्छा तो यह बात है!” फूलचंद ने मामले को फूल की तरह सूँघ लिया फिर बोलना शुरू किया था, “आप लोग एक बात बताइए, पहले हमारी बारात बैल गाड़ियों के साथ निकलती थी, आज बोलोरो-स्कॉरपियो में निकलती है—निकलती है न . . .?” फूलचंद ने भीड़ से पूछा। 

“हाँ निकलती है . . .!” किसी ने कहा

“बहुतों को याद होगा, बारात निकलने के दो-चार दिन पहले गाड़ीवान को डबल सुपारी दी जाती थी बारात जाने की। तब से ही वह बैल और गाड़ी को सजाना शुरू कर देता था। जैसे आज दूल्हे वाली गाड़ी को सजवाते हैं हम। उसी तरह उन दिनों बैलगाड़ियों को ख़ूब सजाया जाता था। घांटी-घुँघरुओं से सजे बैलगाड़ियों के साथ जब किसी की बारात निकलती थी तो लगता किसी नसीब वाले की बारात निकली है। हम बैलगाड़ी से स्कॉरपियो में आ गए तब तो हमें कोई दिक्कत नहीं हुई, किसी को कोई एतराज नहीं हुआ।” फूलचंद फूल स्पीड में जारी था, “पहले हम सौ आदमियों को निमंत्रण भेजते तो दस आते थे और पाँत लगाकर बैठ कर खाते और जाते थे। न जगह की कमी, न खाने की कमी, मन मुताबिक खाकर खुशी खुशी जाते थे। आज स्थिति उलट है, सौ आदमियों को निमंत्रण कार्ड भेजो, पाँच सौ पहुँच जाते हैं। बैठा कर खिलाने के लिए फुटबॉल मैदान भी कम पड़ जाएगा। खाने में कुछ घटना-बढ़ना तो स्वाभाविक है। खान-पान में बदलाव लाकर ही इस स्थिति से बचा जा सकता है। समय के साथ हर चीज में बदलाव आता है। खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, नाच-गान, वेष-भूषा सभी में। बदलाव भी जरूरी है। ढिबरी युग से निकल कर बिजली युग में आते-आते कितने बदलाव हुए। आज लड़कियाँ जीन्स पैंट पहनने लगी हैं लड़के के पहनावे आप सब देख ही रहे हैं, कोई धोती-कमीज पहन शादी करना नहीं चाहते, शर्ट पैंट-कोर्ट-टाई चाहिए। आज की बहन-बेटियाँ करम-जावा गीत नहीं जानती—डी जे की धुन में जींस पहन कर नाचती हैं। करम आखरा में ढोल-मांदर की जगह अब डी जे बजता है, तब आपको पुरखों की संस्कृति की याद नहीं आती है? क्या किसी ने इस बदलते मिजाज को रोक पाया—नहीं न? यह बदलाव का दौर है। इस दौर में हमारे हाथ से बहुत कुछ छूट रहा है। नया-नया बहुत कुछ जुड़ रहा है। पुराने ख्यालात को भी छोड़ना होगा। बेकार की जिद्द छोड़िए। जो समय के साथ नहीं बदलता है, उसे समय बदल देता है! बहुत समय हो चुका है अब खाने में विलम्ब नहीं करना चाहिए क्या कहते हैं आप लोग . . .!”

“हम फूफा की बात का समर्थन करते हैं!” गजोधर बाबू के बड़का जेठा का छोटा बेटा राजेश सामने आ गया। ताली बजा कर सभी ने फूलचंद महतो की बातों का समर्थन किए, “हम सब आपकी बातों से सहमत हैं!” भीड़ से आवाज़ आई। रघुनाथ अबकी चुपचाप खड़ा था। 

गजोधर बाबू ने बुद्धिमानी से काम लिया और बड़का जेठा के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया। बोला, “मेरा बाप मर चुका है, आप ज़िन्दा हो, आप ही हमारे बाप हैं, बेटे से कुछ ग़लती हो गई है तो माफ़ कर दो और चलिए खाना खाने की शुरूआत कर दीजिए, आप नहीं जाएँगे तो कोई नहीं खाएगा, भूखे कब से सभी खड़े हैं।” 

बड़का जेठा को जो मान सम्मान मिलना चाहिए, वह उसे मिला, “गुंगू (जेठा) चलो खाने की शुरूआत कर दो!” यह पूर्वजों वाली इज़्ज़त थी। 

बड़का जेठा खड़ा होते ही रो पड़ा और गजोधर बाबू को गले लगा लिया फिर बोल पड़ा, “पगले तुमने आज अपने गुंगू (जेठा) को रुला दिया न! चलो भाइयो बहू भात खाते हैं . . .!” आँख पोंछते वह आगे बढ़ गये थे। इसी के साथ सब पंडाल की ओर चल पड़े थे . . . 

“बड़का जेठा रूठा था, बकरे की मूंडी वास्ते—बकरे की गोडी (पैर) मिली!”

घर पहुँच कर पत्नी ने कहा, “खड़े होकर खाने में बड़ी शर्म लग रही थी!”

“शर्माना मनुष्यों का फैशन नहीं—गहना होता है। पेटीकोट के नीचे पहली बार जब तुमने पेंटी पहनी थी तब कितनी शर्माई थी—याद है . . .!”

“वह तो मैं तुम्हारी बातों में आ गई थी!”

“जीवन में इसी तरह बदलाव होते रहते हैं, कोई किसी की बातों में आ जाता है, कोई किसी की बातों में आ जाती है, जीवन इसी तरह चलता रहता है!”

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